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जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन!वरना कितने मरते और रोज फना होते-अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह

जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन!वरना कितने मरते और रोज फना होते-अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह

स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा,महान क्रांतिकारी ,अचूक निशानेवाज ,साहसी, काकोरी कांड के एक अमर शहीद ठाकुर की गौरव गाथा---- 

अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह
मित्रो!गुलामी के उस युग में जब देश में अंग्रेजी हुकूमत थी 19 वीं सदी के मैं एक ऐसे महान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अमर पुरोधा व्यक्तित्व के जीवन की अमर गाथा पर प्रकाश डाल रहा हूँ जो पढ़ कर रुह को कपा देती है जो हमारे राजपूत समाज के गौरव थे।पर्याप्त सम्पति तथा जमींदारी के होते हुये भी वह वैरागी था ।दो -दो पत्नियों के रहते हुये भी वह निर्मम था और लाड़ -प्यार से पाले जाकर विलासिता के आँगन में खेलकर भी वह लिप्सा -हींन था ।अपने साथियों में सबसे वलवान था और उत्साह का तो उसमें श्रोत ही बहा करता था ।साधारण -सी शिक्षा पाकर भी उसके ह्रदय में जलन थी ,To do and die का तो वह मूर्तिमान अवतार था ।उसके निकट  का सवाल ही कभी नही आया

जीवन परिचय ----
अपने साहस तथा वीरता के लिए प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश जनपद में फतेहगंज से १० किलोमीटर दूर स्थित गाँव नबादा में २२ जनवरी १८९२ को कठेरिया राजपूत परिवार में हुआ था। आपकीमाता जी का नाम कौशल्या देवी एवं पिता जी का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। पूरा परिवार आर्य समाज से अनुप्राणित था। आप पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे।गांव की प्रसिद्धि के अनुसार ही ठाकुर रोशन सिंह जी , अपनी आन के धनी एक बाँके-लड़ाकू योद्धा थे ।तलवार , गड़काफरी ,लाठी चलाने में वे बड़े प्रवीण थे ।बन्दुक का निशाना बड़ा सच्चा था ।चिड़ियों का शिकार ठाकुर साहब ने कभी बैठी चिड़िया मार कर नही किया ।उन्हें उड़ा कर तब निशाना लेते थे ।अचूक निशानेवाज थे ।हिंदी -उर्दू का अच्छा ज्ञान था ।जेल में बंगला और अंग्रेजी भी सीख ली थी ।प्रारंभिक जीवन में एक लड़ाकू ठाकुर थे असहयोग आन्दोलन की दुंदुभी बजी ठाकुर राम प्रसाद विस्मिल (तंवर राजपूत) के संसर्ग ने इन्हें राजनैतिक क्षेत्र में घसीट लिया ।कदम बढ़ा कर पीछे हटना तो ठाकुर साहब की शान के खिलाफ था ।उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली जिले के ग्रामीण क्षेत्र में गांव -गांव घूम कर प्रचार करके आपने अद्भुत योगदान दिया था। बरेली में स्वयं सेवकों का सम्मेलन था ।ठाकुर रोशन सिंह जी भी अपने कारवां के साथ बरेली रवाना हुये ।बरेली कुटबखाने पहुंचने का आदेश था , लेकिन पुलिस ने धारा 144 लगा रखी थी इन्हें रुकने का हुक्म दिया गया , सत्याग्रही ठाकुर साहब कैसे रुक सकते थे ? वे लोग बढ़ते गये ।आख़िरकार गोली बाजी शुरू हो गयी गोली-काण्ड में एक पुलिस वाले की रायफल छीनकर जबर्दस्त फायरिंग शुरू कर दी थी जिसके कारण हमलावर पुलिस को उल्टे पाँव भागना पडा। मुकदमा चला और ठाकुर रोशन सिंह को सेण्ट्रल जेल बरेली में ढाई वर्ष की कड़ी कैद का उपहार मिला ।बरेली जिला जेल में धूनी रमी ।अजब धुन के आदमी थे ठाकुर रोशन सिंह जी ।सजा में चक्की चलाने का काम दिया गया ।लोगों ने कहा ,इसको करना ठीक नही ,आपने उत्तर दिया जब बदन में ताकत है तो काम क्यों किया जाय
केशाहजहाँपुर

राम प्रसाद जी विस्मिल से भेंट -----
  बरेली जेल से निकल कर ठाकुर रोशन सिंह ने देखा क़ि जिस रास्ते पर चले थे वह तो बंद होगया ।तभी उनकी अपने ही गृह जिले के एक और स्वतंत्रता के पुजारी ठाकुर रामप्रसाद जी विस्मिल से मुलाकात हुई ।कुछ विचार -विमर्श हुआ और आप क्रांतिकारी दल के काम में जुट गये गान्धी जी द्वारा सन १९२२ में हुए चौरी चौरा काण्ड के विरोध स्वरूप असहयोग आन्दोलन वापस ले लिये जाने पर पूरे हिन्दुस्तान में जो प्रतिक्रिया हुई उसके कारण ठाकुर साहब ने भी राजेन्द्र नाथ लाहिडी़, रामदुलारे त्रिवेदी सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि के साथशाहजहाँपुर शहर के आर्य समाज पहुँच कर राम प्रसाद बिस्मिल से गम्भीर मन्त्रणा की जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कोई बहुत बडी क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की रणनीति तय हुई। इसी रणनीति के तहत ठाकुर रोशनसिंह को पार्टी में शामिल किया गया था। ठाकुर साहब पक्के निशानेबाज (Clay Pigeon Shooting Expert) थे यहाँ तक कि उडती हुई चिडिया को खेल-खेल में ही मार गिराते थे।

बामरौली डकैती कांड ----
१९२२ की गया कांग्रेस में जब पार्टी दो फाड हो गई और मोतीलाल नेहरू एवम देशबन्धु चितरंजन दास ने अपनी अलग से स्वराज पार्टी बना ली। ये सभी लोग पैसे वाले थे जबकि क्रान्तिकारी पार्टी के पास संविधान, विचार-धारा दृष्टि के साथ-साथ उत्साही नवयुवकों का बहुत बडा संगठन था। हाँ, अगर कोई कमी थी तो वह कमी पैसे की थी। इस कमी को दूर करने के लिये आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का रास्ता अपनाया गया और वह रास्ता था डकैती का। इस कार्य को पार्टी की ओर से ऐक्शन नाम दिया गया। ऐक्शन के नाम पर पहली डकैती पीलीभीत जिले के एक गाँव बमरौली में २५ दिसम्बर १९२४ को क्रिस्मस के दिन एक खण्डसारी (शक्कर के निर्माता) सूदखोर (ब्याज पर रुपये उधार देने वाले) बल्देव प्रसाद के यहाँ डाली गयी। इस पहली डकैती में ४००० रुपये और कुछ सोने-चाँदी के जेवरात क्रान्तिकारियों के हाथ लगे। परन्तु मोहनलाल पहलवान नाम का एक आदमी, जिसने डकैतों को ललकारा था, ठाकुर रोशन सिंह की रायफल से निकली एक ही गोली में ढेर हो गया।

बहुप्रसिद्ध काकोरी कांड ----
अगस्त १९२५ को काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे, यह हकीकत है किन्तु इन्हीं की आयु (३६ वर्ष) के केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), जरूर शामिल थे जो बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य थे, फिर भी पकडे ठाकुर रोशन सिंह गये। चूकि रोशन सिंह बमरौली डकैती में शामिल थे ही और इनके खिलाफ सारे साक्ष्य भी मिल गये थे अत: पुलिसने सारी शक्ति ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा दिलवाने में ही लगा दी और केशव चक्रवर्ती को खो़जने का कोई प्रयास ही नहीं किया। सी०आई०डी० के कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन राम प्रसाद बिस्मिल पर बार-बार यह दबाव डालते रहे कि बिस्मिल किसी भी तरह अपने दल का सम्बन्धबंगाल के अनुशीलन दल या रूस की बोल्शेविक पार्टी से बता दें परन्तु बिस्मिल टस से मस हुए। आखिरकार रोशन सिंह को गिरफ्तार करके लखनऊ जेल में भेजा गया जेल में आकर ठाकुर साहब ने एकदम मौन धारण कर लिया ।उस दिन से उन्होंने आवश्यकता से अधिक बोलने का प्रयत्न किया ।समाचार पत्र पढ़ना और अपनेमें ही मस्त रहना उनका नित्य का प्रोग्राम हो गया था ।लगभग डेढ़ वर्ष तक अभियोग चला और उसके बाद ठाकुर साहब को फाँसी की सजा हुई।पर कर्मवीर ठाकुर साहब के चेहरे पर शिकन तक थी ।स्वाभाविक गंभीरता के साथ उन्होंने सब की ओर देखा उनके सभी साथी एक विचित्र भावना से उनकी ओर ताक रहे थे ।ठाकुर साहब ने बढ़ कर छोटों की पीठ पर वात्सल्य भाव से हाथ रख कर कहा ---"चिंता करने की कोई बात नही है , परेशान क्यों होते हो ।सबसे अधिक उम्र मेरी थी ,सबसे अधिक मुझे मिलना भी चाहिए था , वही मुझे मिला है ,यह तो खुशी का ही वायस है "सभी उनके साथी चुप रह गये ।कोर्ट में याचिका दायर की।

वकील ने कहा , " ठाकुर साहब आपकी अपील कर दी गई "उत्तर मिला ----"कोई बात नही "इसी प्रकार एक दिन सुपरिटेंडेंट ने आकर कहा , "रोशन सिंह ,तुम्हारी अपील ख़ारिज हो गई !" उस समय भी वही पूर्व परिचित उत्तर मिला ---"कोई बात नहीं "

अटल धीरता उनका एक विशेष गुण था ।हवालात की अवस्था में उनके पिताजी की मृत्यु का समाचार आया ।केवल दो -तीन बार जोर जोर से" ऊँ तत्सत् " का उच्चारण किया और फिर वही अपने नित्य के काम में लग गये ।उस दिन लोगों ने सोचा था ,ठाकुर साहब के दिल में अपने पिता के लिए शायद कोई जगह नहीं है ।पर आज उनके चरित्र की महता साफ़ नजर आती है ।फैसले के बाद इन्हें इलाहबाद जेल में डाल दिया ।वहां भी उनकी दिन चर्या में कोई परिवर्तन नही हुआ ।नियमित रूप से सन्धया -वंदन ,गीतपाठ सभी कुछ बराबर चलता रहा चीफ कोर्ट से भी फैसला उनके पक्ष में नही आया

फाँसी से पूर्व अपने एक मित्र को जेल से लिखा हुआ पत्र -----13 दिसंबर 1927 को ठाकुर रोशन सिंह जी ने इलाहबाद जेल से अपने एक मित्र को यह पत्र लिखा था :
"इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी, ईश्वर आपको मोहब्बत का बदला दे।मेरे लिये आप हरगिज रंज करें। मेरी मौत खुशी का बायस (कारण) होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। बदफेल करके आदमी दुनिया में अपने आपको बदनाम करे और मरते वक्त ईश्वर का ध्यान रहे ;यही बातें होनी चाहिये ईश्वर की कृपा से मेरे साथ में ये दोनों बातें हैं। इस लिये मेरी मौत किसी प्रकार भी अफसोस के काविल नहीं है। दो साल से मैं बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ। इस बीच ईश्वर - भजन का खूब मौका मिला।
अब तो सब मोह छूट गया है कोई वासना भी नहीं रही। मुझे विश्वास है दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब शांति की गोद में जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की।" अंत में :
जिन्दगी जिन्दा-दिली को तू जान रोशन ,
यों तो कितने ही हुए और फना होते है।
आख़िरी नमस्ते!
आपका
रोशन"
फाँसी के एक दिन पूर्व परिवार के लोग ठाकुर साहब से आख़िरी मुलाकात करने गए ,तब उन्हें उत्साह देते हुए ठाकुर रोशन सिंह जी ने कहा ---"तुम मेरे लिए चिंता करना ।भगवान् को अपने सभी पुत्रों का ध्यान है "
19 दिसंबर 1927 0 ठाकुर रोशन सिंह जी के जीवन का ऐतिहासिक दिन
19 दिसम्बर को प्रातः4 बजे पहरा देनेवाले संतरियों ने देखा , ठाकुर रोशन सिंह "गीता " पढ़ने के बाद व्यायाम कर रहे है ।सिपाही ने कहा ,"ठाकुर साहब अब तो फाँसी पर जाने का समय रहा है आप यह कसरत क्यों कर रहे है ?" मुस्कराकर बड़ी ही लापरवाही से ठाकुर साहब ने जवाब दिया , "नित्य -नियम में बाधा तो पड़नी चाहिए ।जिस बक्त के लिए जो काम तय है उसे करना ही चाहिए ।जब फाँसी का वक्त आएगा उसे भी कर लेंगे "बेचारा सिपाही चुप था , उसने बड़े -बड़े खुनी और डकैतों को फाँसी जाते वक्त उदास मन से जाते देखा था
बहुतों के प्राण तो कोठरी से निकलते ही निकल गए थे ।जेल के सिपाहियों ने निर्जीव शरीर को ले जाकर फंदे में डाल कर लटका दिया था और एक था यह आदमी जो शांति और लापरवाही के साथ इस अंतिम घडीं में फाँसी से पहले मेहनत कर रहा है और पूछने पर सब बातों का जबाब मुस्कराकर दे रहा है ।उसके लिए तो यह प्राणी ठाकुर रोशन सिंह आश्चर्य और श्रद्धा की चीज बन गया

सन् 1927 के दिसम्बर मास की 19 तारीख थी ,यही वह ऐतिहासिक तारीख थी लोग फाँसी के लिए लेने आए। ठाकुर साहब एक बार पुनः उन्होंने आँखें बंद करके गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया और बोलकर खड़े हो गये।साफ़ कपडे पहने हुये और मूंछों पर ताव लगा कर "गीता "लिए मुस्कराते हुये ठाकुर साहब फाँसी के तख़्त की ओर चल दिए स्वागत के लिए जेल के बाहर अपार जनता की भीड़ थी सीढ़ियां चढ़ते हुये ठाकुर साहब बराबर "वन्देमातरम "का नारा लगाते जा रहे थे ।फाँसी के फन्दे को चूमा फिर जोर से तीन वार वन्दे मातरम् का जय घोष किया और फाँसी के फन्दे को अपने गले में फूलमाला के समान डाल लिया लोगों को कुछ देर बाद जेल केअंदर से गाने की आवाज सुनाई दी ।सब लोग मंत्र -विमुग्ध होकर सुनते रहे ।गाना समाप्त होने पर उपस्थित लोगों ने जो शब्द सुना था --ऊँशांति व् "वन्देमातरम"की आधी आवाज आकर रह गई ।लोगों ने कहा ,"फाँसी हो गई "

ठाकुर साहब के अंतिम दर्शन-----
  मलाका जेल के बाहर जनता की अपार भीड़ ठाकुर साहब के अन्तिम दर्शन करने उनकी अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिये खड़ी थी जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाये वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया - "रोशन सिंह! अमर रहें!!" दाह -संस्कार के लिए शव को देने के बाद अधिकारीयों ने जुलूस निकालने का प्रतिबंध लगा दिया ।दुःखित हृदय से लोगों ने चुपचाप अर्थी को ले जाकर सम्मान केसाथ उनका अंतिम संस्कार गंगा यमुना एवं सरस्वती के संगम तट पर जाकर किया गया और भस्म को मत्थे में लगाकर लोग वापस चले गये। तब से आज तक उस वीर का नाम -मात्र शेष है वर्तमान समय में इस स्थान पर अब एक मेडिकल कालेज स्थापित हो चुका है। मूर्ति के नीचे ठाकुर साहब की कही गयी ये पंक्तियाँ भी अंकित हैं -

जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान रोशन!वरना कितने मरते और रोज फना होते
अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह
ठाकुर रोशन सिंह के जन्मस्थान पर उनकी प्रतिमा तो लगी है ।आकर्षक और रौबीले व्यक्तित्व के धनी ठाकुर साहब अशफाक और विस्मिल से उम्र में बड़े और अचूक निशानेवाज थे ।लेकिन आजादी के इतिहास में उनका बहुत कम होता है ।उनका जो स्थान आजादी के इतिहास में होना चाहिए था वह उनको नही मिल पाया
जिक्र
साझा विरासत की वह लौ आज मंदिम पड़ गई लगती है जिन शहीदों की मजार पर मेले लगने की आवाज कभी कवियों ने की ,वहां आज सन्नाटा पसरा हुआ है ।वतन पर शहीद होने वालों की निंशा की इस दुर्दशा पर कोई भी राष्ट्रभक्त शर्मिंदा हो सकता है ।सरकारी और प्रशासनिक तौर पर इन्हें याद करने की कोशिशें कम रह गई है तो हमारा राजपूत समाज भीअपने पूर्वजों को जिन्होंने देश के लिए अपने आप को बलिदान कर दिया इन सपूतों को भूलता जारहा है ।लेकिन दुःख इस बात का भी है कि ठाकुर रोशन सिंह जैसे भारत माता के वीर सपूत को जिन्होंने बहुत दर्द नाक यातनाएं सह कर मातृभूमि के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए उनको इतिहास में वह स्थान नही मिला जिसके वे हक़दार थे

जब मैने ठाकुर रोशन सिंह जी के जीवन की अमर गाथा को पढ़ा तो एक बार तो शरीर की रूह कांप गयी ।लिखते -लिखते कई बार मेरा हाथ रुका और मैं भावुक हो चला ।फिर भी लिखने का साहस किया जिसे पढ़ कर हमारे युवा कुछ राष्ट्रभक्ति की भावना को समझे तथा ठाकुर साहब के साहस की गाथा का अध्ययन करके कुछ सीख लें ।अंत में, मैं इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा को सादर सुमन अर्पित करते हुए सत् -सत् नमन करता हूँ
जय हिन्द
जय राजपूताना ।।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव - लढ़ोता ,सासनी

जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश

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