चौहान वंश की कुलदेवी श्री आशापुरा माता जी
जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ
जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ
जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ -
जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ |
करौली - राजस्थान के जादौन
राजवंश की कुलदेवी
मॉं भवानी राज
राजेश्वरी श्री कैलादेवी
- चामुण्डा , यहॉं पर
दोनों देवियां श्री
कैलादेवी जिन्हें सतोगुणी और
सौम्य देवी माना
गया है और
दूसरी श्री चामुण्डा
भवानी की प्रतिमायें
स्थापित व प्रतिष्ठित
हैं, करौली के
जादौन राजवंश का
यह परम पूज्य
कुलदेवी मंदिर है , श्री
कैलादेवी को सौम्य
मूर्ति राज राजेश्वरी
भगवती दक्षिण काली
का स्वरूप माना
जाता है और
बाद में एक
उजड़ चुके वीरान
हो चुके करौली
के ही पास
के एक गॉंव
से वीरान व
सूनसान पड़े मंदिर
से मॉं चामुण्डा
(चामड़) की प्रतिमा
भी लाकर यहॉं
मॉं कैलादेवी के
साथ ही स्थापित
की गई , मॉं
चामुण्डा (चामड़) उग्र व
तामसी स्वभाव की
हैं ,
जब यदुवंशी महाराजा अर्जुन
देव जी ने
१३४८ ई. में
करौली राज्य की
स्थापना की तभी
उन्होने करौली से उत्तरी
दिशा में २या
३ कि.मी.
की दूरी पर
पांचना नदी के
किनारे पहाडी पर श्री
अंजनी माता का
मंदिर बनवा कर
अपनी कुलदेवी के
रूप में पूजने
लगे और अंजनी
माता जादौन राजवंश
की कुलदेवी के
रूप में पूजित
हुई ।।
एक लेख यह
मिलता है कि
करौली राज्य के
दक्षिण - पश्चिम के बीच
में २३ कि.
मी. की दूरी
पर चम्बल नदी
के पास त्रिकूट
पर्वत की मनोरम
पहाडियों में सिद्दपीठ
श्री कैला देवी
जी का पावन
धाम है , यहॉ
प्रतिवर्ष अधिकाधिक लाखो श्रृदालु
माँ के भक्त
दर्शनार्थ एकत्रित होते है
,
जिस स्थान पर माँ
श्री कैला देवी
जी का मंदिर
बना है वह
स्थान खींची राजा
मुकुन्ददास की रियासत
के अधीन थी
वे संभवत चम्बल
पार कोटा राज्य
की भूमि के
स्वामी थे जो
गागरोन के किले
में रहते थे
, उन्होने बॉसीखेडा नामक स्थान
पर चामुण्डा देवी
की बीजक रूपी
मूर्ति स्थापित करबाई थी
और वो वहा
अक्सर आराधना के
लिये आते थे
, ये बात सम्वत
१२०७ की है
,
एक बार खींची
राजा मुकुन्ददास जी
अपनी रानी सहित
चामुण्डा देवी जी
के दर्शनार्थ आये
उन्होने कैला देवी
जी की कीर्ति
सुनी तो माता
के दर्शनार्थ आये
, माता के दर्शनार्थ
पश्चात उनके मन
में माता के
प्रति आगाध श्रृदा
बड गयी , राजा
ने देवी जी
का पक्का मठ
बनवाने का उसी
दिन निर्माण शुरू
करवा दिया जब
माता का मठ
बनकर तैयार हो
गया तो उसके
बाद श्री कैला
देवी जी की
प्रतिमा को मठ
में विधि पूर्वक
स्थापित करवा दिया
।
कुछ समय बाद
विक्रम संवत १५०६
में यदुवंशी राजा
चन्द्रसेन जी ने
इस क्षेत्र पर
अपना कब्जा कर
लिया तब उसी
समय एक बार
यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन जी
के पुत्र गोपाल
दास जी दौलताबाद
के युद्द में
जाने से पूर्व
श्री कैला माँ
के दरबार में
गये और माता
से प्राथना करी
कि माता अगर
मेरी इस युद्द
में विजय हुई
तो आपके दर्शन
करने के लिये
हम फिर आयेंगे
। जब राजा
गोपाल दास जी
दौलताबाद के युद्द
में फतह हासिल
कर के लौटे
तब माता जी
के दरबार में
सब परिवार सहित
एकत्रित हुये ।
तभी यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन
जी ने कैला
माँ से प्राथना
करी कि हे
कैला माँ आपकी
कृपा से मेरे
पुत्र गोपाल दास
की युद्द में
फतह हासिल हुई
है । आज
से सभी यदुवंशी
राजपूत अंजनी माता जी
के साथ साथ
श्री कैला देवी
जी को अपनी
कुलदेवी ( अधिष्ठात्री देवी के
रूप में ) पूजा
किया करेंगे , और
आज से मैया
का पूरा नाम
श्री राजराजेश्वरी कैला
महारानी जी होगा
( बोल सच्चे दरबार
की जय ) तभी
से करौली राजकुल
का कोई भी
राजा युद्द में
जाये या राजगद्दी
पर बैठे अपनी
कुलदेवी श्री कैला
देवी जी का
आशीर्वाद लेने जरूर
जाता है , और
तभी से मेरी
मैया श्री राजराजेश्वरी
कैला देवी जी
करौली राजकुल की
कुलदेवी के रूप
में पूजी जा
रही है ।।
यद्यपि चामड़ माता भी
महाकाली का ही
स्वरूप मानी जाती
हैं तथा इनकी
वाममार्गी पूजा पद्धति
ही अधिक मान्य
व प्रचलित है
, जबकि कैलादेवी सौम्य स्वरूपा
की पूजा पद्धति
दक्षिण मार्गी है , मॉं
चामुण्डा (चामड़) को पहले
यहॉं पशु बलि
आदि दी जाती
थी तथा वाममार्गी
पूजा प्रचलित थी
और इसके लिये
यहॉं मंदिर के
पिछवाड़े परिसर में ही
एक बहुत विशाल
बलि कुण्ड भैंसादह
, भैंसा कुड बना
हुआ है लेकिन
बहुत बरसों से
मंदिर में बलि
प्रथा बंद है
और अब यहॉं
अनेक बरसों से
कोई बलि नहीं
दी जाती है
, यहॉं यह किंवदंती
प्रचलित है कि
पहले कैलादेवी जी
की प्रतिमा का
मुख (चेहरा) एकदम
सीधा था , लेकिन
जब बाद में
चामुण्डा की प्रतिमा
यहॉं स्थापित की
गई तो दोनों
देवियों में स्वभाव
भेद होने के
कारण कैलादेवी ने
चामुण्डा से नाराजगी
दिखाते हुये अपना
चेहरा विपरीत दिशा
में मोड़ कर
झुका लिया, तब
से ही कैलादेवी
का सिर एक
तरफ को झुका
हुआ है, करौली
के जादौन राजवंश
के राजा व
वंशज एवं उत्तराधिकारी
जो कि पेशे
से एडवोकेट हैं
, प्रत्येक नवरात्रि की नवमी
के दिन यहॉं
पूजन ने आते
हैं , बताया जाता
है कि केवल
उसी वक्त ही
कुछ समय के
लिये पूजनकाल में
कैलादेवी का चेहरा
सीधा और दृष्टि
सीधी हो जाती
है , यहीं कैलादेवी
में ही मॉं
महाकाली की रक्तबीज
नामक राक्षस से
लड़ाई हुई थी
, आठ दिन युद्ध
चला था और
नवमी के दिन
यानि नौंवें दिन
मॉं काली को
रक्तबीज राक्षस पर विजय
प्राप्त हुई थी
और रक्तबीज मॉं
के हाथों मारों
गया था , यहीं
पर वह काली
शिला मोजूद है
जहॉं देवी का
और असुर का
संग्राम हुआ , वह शिला
भी मौजूद है
जिस पर मॉं
काली के और
असुर के चरणों
के चिह्न छपे
हुये हैं , काली
शिला पर से
ही काली शिल
नामक नदी प्रवाहि
होती है , इस
नदी में स्नान
के बाद ही
मंदिर में दश्रन
के लिये लोग
जाते हैं , यहीं
पर भैरों बाबा
सहि अनेक पज्य
मंदिर हैं , कैलादेवी
मंदिर के सामने
ही मॉं के
एक अनन्य व
एकाकार एक गूजर
भगत की प्रतिमा
भी मौजूद है
, कैलादेवी पर हर
नवरात्रि पर लाखों
लोग अटूट रूप
से पहुँचते हैं
, भारत के सभी
राजपूतानों में मॉं
की काफी अधिक
मान्यता है , मंदिर
के पीछे ही
मनोकामना पूर्ति के लिये
लोग उल्टे स्वास्तिक
बना कर जाते
हैं और मनोकामना
पूर्ति के बाद
आकर चांदी के
स्वास्तिक चढ़ा कर
स्वास्तिक यानि सांतिया
सीधा करते हैं
, जिनके विवाह न हो
रहे हों , जिनकी
संतान न हो
रही हो , पुत्र
की कामना हो
, दांपत्य संबंध बिगड़ गये
हों आदि आदि
के लिये गोबर
(गाय के गोबर)
के सांतियें (स्वास्तिक)
बनाये जाते हैं
, ताजा गोबर वही
पर पया्रप्त मात्रा
में पड़ा मिल
जाता है , इसी
प्रकार अन्य कामनाओं
के लिये सिन्दूर
के सांतिये भैरों
बाबा के मंदिर
पर ( लाट पर
या चौकी पर)
बनाये जाते हैं,
या फिर स्वयं
देवी के मंदिर
पर ही बना
दिये जाते हैं
, अपनी अर्जी मॉं के
गले में या
चरणों में डालने
आदि कार्य भी
लोग यहॉं करते
हैं , मंदिर परिसर
के प्रांगण में
हवन , धूप , दीप
आदि के लिये
समुचित व्यवस्था है , रहने
रूकने के लिये
अनेक मुफ्त धर्मशालायें
यहॉं मौजूद हैं
, भोग प्रसाद आदि
की थाली तैयार
कराने , मिलने की समुचित
व बेहतरीन व्यवस्था
है, खाने पीने
भोजन चाय नाश्ता
आदि के लिये
भी बहुत सस्ती
और उत्तम व्यवस्था
मंदिर पर उपलब्ध
है .... जय श्री
मॉं कैला देवी
चामुण्डा , जय भवानी
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