देवड़ा राजपूत और उनके शासकों का इतिहास
देवड़ा राजपूत और उनके शासकों का इतिहास
देवड़ा राजपूत और उनके शासकों का इतिहास
देवड़ा राजपूत और उनके शासकों का इतिहास |
देवड़ों की उत्पति-
इतिहास के अवलोकन से ऐसे तथ्य प्रकट होते हैं कि देवड़ा राजपूतों की दो शाखाएँ रही हैं। राजपूतों में एक ही नाम की एक से अधिक शाखाएँ मिलती हैं। जैसे कछवाहों में चौमू तथा सामोद आदि के ठाकुरों की नाथावत शाखा है। इनके अतिरिक्त इस शाखा से भी प्राचीन कछवाहों में इसी नाम की एक ओर शाखा है। इसी प्रकार कछवाहों के अलावा सोलंकियों में भी नाथावत नाम की एक शाखा है।
सिरोही की देवड़ा शाखा से भिन्न देवड़ा शाखा का प्रादुर्भाव सांभर के चौहान शासक के देवराज नाम के एक पुत्र से हुआ था। इस शाखा का आबूगिरि के वि.सं.1225 और 1229 के प्राप्त दो शिलालेखों में वर्णन है। समयावधि के पश्चात् चौहानों की यह प्रथम शाखा नाम शेष हो गई।
वर्तमान देवड़ा शाखा का निकास चौहानों की सोनगिरा शाखा से हुआ है। जालौर के शासक भानसिंह अर्थात् भानीजी के एक पुत्र का नाम देवराज था। उसकी संतति वाले देवड़ा कहलाये। इस देवराज के पुत्र विजयराज ने मुसलमानों को पराजित कर मणादर (बड़गांव) पर विजय प्राप्त की। जालौर पर अलाउद्दीन खिलजी के इतिहास प्रसिद्ध प्रथम आक्रमण के समय जालौर के शासक कान्हड़देव सोनगिरा की सहायतार्थ ये देवड़ा शासक गया था। इस विजयराज के पौत्र राव लुम्भा ने परमारों से चन्द्रवती विजय कर वहाँ पर अपनी राजधानी स्थापित की थी। लुम्भा के छोटे भाई लूला के वंशजों का जीणोंद्धार कराया था और 1320ई. में उसके एक ग्राम भेंट किया था। लुम्भा की कुछ पीढ़ियों के बाद शिवमाल हुआ। इसने मुसलमानों । द्वारा चन्द्रावती ध्वस्त कर देने पर पहाड़ी पर एक दुर्ग का निर्माण कर उसका अपने नाम पर शिवपुर नगर नाम रखा ।
ई. 1405 वि. में बसाया गया वह नगर वर्तमान सिरोही नगर के पूर्व में निर्जन और ध्वंसित अवस्था में पड़ा है। शिवमाल के पुत्र सहसमल ने उक्त नगर में पानी के अभाव के कारण 20 अप्रेल 1425 ई. में वर्तमान सिरोही नगर बसाया तथा इसे अपनी राजधानी का गौरव प्रदान किया। इसके समसामयिक मेवाड़ के प्रतापी महाराणा कुम्भा ने आबू पर अधिकार कर वहाँ 1425ई. में अचलगढ़ नामक दुर्ग और अचलेश्वर महादेव का देवालय बनाया था। सहसमल के पुत्र राव लाखा के समय में मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासकों ने मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण किया। महाराणा कुम्भा ने उनका सामना करने के लिए अपनी समस्त सेना को एकत्र किया इसलिए आबू की रक्षार्थ सेना मेवाड़ चली गई। इस अवसर का लाभ उठा कर राव लाखा ने आबू पर अधिकार कर लिया। लाखा के पुत्र राव जगमाल के समय में जब दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने मेवाड़ के महाराणा रायमल पर आक्रमण किया तब इस युद्ध में राव जगमाल देवड़ा महाराणा की मदद पर गया था। इस संग्राम में राजपूतों की विजय हुई। इस अवधि में जालौर पर पठानों का आधिपत्य था और तब वहाँ का शासक मजदी खाँ था। उसने सिरोही पर हमला किया। राव जगमाल ने उसे परास्त कर बंदी बना लिया। फिर मजदी खाँ से नौ लाख रुपये दण्डस्वरूप लेकर उसे कारागार से मुक्त किया।
देवड़ों के कुलदेव सारणेश्वर महादेव हैं। सारणेश्वर का मन्दिर सिरोही से तीन मील की दूरी पर पहाड़ की तलहटी में है। वह चारों और से परकोटे से घिरा हुआ है। यह परकोटा मालवा के सुल्तान ने बनवाया था। वह कुष्ठ रोग से पीड़ित था। सारणेश्वर की मनौती से उसका कुष्ठ मिट गया था।
जगमाल के बाद उसका पुत्र अक्षयराज सिरोही की गद्दी पर बैठा। इस कालावधि में मुगल बाबर ने भारत पर आक्रमण किया। महाराणा संग्रामसिंह प्रथम ने ई. 1527 में खानवा के युद्धस्थल पर बाबर पर आक्रमण किया। उसमें राव अखैराज महाराणा के पक्ष में मुगलों से लड़ा था। राव अखैराज ने भी जालौर के महजूद खाँ से युद्ध किया था और उसे बन्दी बना लिया था। किन्तु राजपूतों की उदार नीति के कारण वह भेंट देकर छूट गया। अखैराज का पुत्र राव रायसिंह मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य पर गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण करने पर मेवाड़ की सहायता पर चित्तौड़ गया था। बहादुरशाह के चित्तौड़ के इसी घेरे का प्रतिरोध करते हुए राव रायसिंह खेत रहा था। रायसिंह बड़ा वीर और उदार शासक था।
तत्पश्चात ई. 1571 में सिरोही के राज्यासन पर राव सुरतान देवड़ा बैठा। यह महाराणा प्रतापसिंह, राजा चन्द्रसेन की भाँति ही वीर, साहसी स्वातन्त्र्य-प्रेमी और देशभक्त था।
राव सुरतान गद्दी पर बैठा तब वह केवल 12 वर्ष की अल्पायु था। इसकी माता राणी झाली सती हुई थी। सुरतान छोटी उम्र का होते हुए भी कभी भी दिल्ली के मुगल बादशाह के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। राव सुरतान की अल्पावस्था का लाभ उठाकर सिरोही के प्रधान मन्त्री विजयराज (बीजा) देवड़ा ने (जिसके हाथ में पहिले से ही सिरोही का राज्य-प्रबन्धन चला आ रहा था।) उसने सिरोही पर अधिकार कर लिया। तब राव सुरतान सिरोही छोड़कर रामसींण चला गया। सिरोही के सामन्त सरदारों ने बीजा को अपदस्थ कर सुरतान को पुनः सिरोही की गद्दी सौंपी।
बादशाह अकबर ने ई. 1576 में सिरोही विजय करने के लिए सेना भेजी। राव सुरतान शाही अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। शाही सेना से सुरतान का युद्ध हुआ। इसमें बादशाही सेना की विजय हुई। सिरोही पर शाही सेना का अधिकार हो गया। इस पर सुरतान आबू के पहाड़ों पर चला गया और वहाँ से शाही सेना पर हमले करने लगा। शाही सेना का अधिकारी तरसुखाँ सिरोही पर सैयद हुसेन को नियुक्त कर दिल्ली लौट गया। मेवाड़ में महाराणा प्रतापसिंह और शाही सेना में युद्ध चल रहा था। राव सुरतान महाराणा की युद्ध-सहायता करता रहा। इसकी जानकारी मिलने पर बादशाह ने फिर नवीन सेना भेजी। ई. 1581 में राव सुरतान ने सिरोही पर आक्रमण करके सैयद हासिम को मार कर सिरोही को हस्तगत कर लिया। इसी समयावधि में शाही मनसबदार खान कला गुजरात जा रहा था। सिरोही के पास से गुजरते हुए उस पर राजपूतों ने धावा मार कर उसे सख्त घायल कर दिया था। इसका प्रतिशोध लेने के लिए शाही सेना सिरोही पर आयी। राव सिरोही छोड़कर पुनः आबू के पहाड़ों पर चला गया। पीछे 150 राजपूत योद्धाओं ने शाही सेना का सामना करके वीर गति प्राप्त की ।
बादशाह अकबर ने सैन्यबल से राव सुरतान पर काबू न पाने पर राजपूतों में फूट डालने की नीति अपनायी और महाराणा प्रतापसिंह के छोटे भाई महाराज जगमाल जहाजपुर वालों के पूर्वज को जो कि शाही मनसबदार तथा सिरोही के पूर्व राव मानसिंह का दामाद था उसको सिरोह राज्य जागीर में दे दिया। राव सुरतान ने भी सम्बन्ध के नाते सिरोही में रहने के लिए उसका विरोध नहीं किया। सुरतान राज महलों में रहता था और जगमाल अन्यत्र रहता था। इस पर जगमाल की राणी ने अपने पति से कहा कि मेरे रहते मेरे पिता के महलों में सुरतान कैसे रह सकता है?संयोगवश एक बार सुरतान सिरोही से बाहर गया हुआ था। इस अवसर पर जगमाल ने सिरोही के पूर्व प्रधान आमात्य विजयराज देवड़ा से सांठ-गांठ कर दोनों ने सम्मिलित रूप से राज प्रासाद पर आक्रमण किया। परन्तु महलों के प्रबन्ध पर नियत संग्रामसिंह सोलंकी और चारण दूदा आशिया ने उस हमले को विफल कर दिया। अतएव जगमाल सिरोही त्याग कर अकबर के पास आगरा चला गया।
दत्ताणी का प्रसिद्ध युद्ध जगमाल राणावत ने बादशाह अकबर के पास जाकर राव सुरतान देवड़ा की शिकायत की इस पर अकबर ने राव चन्द्रसेन राठौड़ के पुत्र शाही मनसबदार राव रायसिंह राठौड़ सोजत के नेतृत्व में सिरोही पर एक मुगल सेना भेजी। उसके साथ दांतीवाड़ा के स्वामी कोलीसिंह तथा विजयराज देवड़ा भी था। बादशाह ने इस सेना में नियुक्त अपने अमीरों को खिल्लतें आदि देकर सम्मानित किया। यह सेना आगरा से प्रयाण कर सोजत में ठहरी। यहाँ कुछ समय व्यतीत कर राव रायसिंह ने अपने अन्य सरदारों को एकत्रित किया और युद्ध की तैयारी कर सिरोही पर कूच किया। मुगल सेना ने सीधा सिरोही पर आक्रमण न कर सिरोही के जागीरदारों पर हमले करने की योजना बनाई ताकि सरदार लोग अपने ठिकानों की रक्षार्थ चले जायेंगे। इस प्रकार सिरोही की सेना बिखर जायेगी। इस योजनानुसार विजयराज देवड़ा के सेनानायकत्व में भीतरोट पर सेना भेजी। इस आक्रमण के बावजूद भी सरदारों ने राव सुरतान का साथ नहीं छोड़ा। इस प्रकार मुगल सेना की यह चाल सफल नहीं हुई। इस पर देवड़ा समरसिंह ने सुरतान से कहा कि अब देरी नहीं करनी चाहिए और तत्काल मुगल सेना पर हमला बोल देना चाहिए। तब सुरतान ने नक्कारा बजवा कर मुगल सेना पर धावा बोल दिया। यह युद्ध वि.सं. 1640 कार्तिक सुदि 11 ईस्वी 1583 अक्टूबर 18 को दत्ताणी के मैदान में हुआ।
मुगल सेना ने अपनी हरावल में गज सेना को रखा। तोपों और बन्दूकों के गोले-गोलियों से धुआँधार वर्षा होने लगी। देवड़ों की सेना का संचालन स्वयं राव सुरतान कर रहे थे। वे केशर नामक घोड़ी पर सवार थे जिसका रंग भेंवर था। उनके साथ वीरवर समरसिंह देवड़ा था। राव सुरतान तीव्र वेग से आक्रमण कर मुगल सेना में घुस गया। इस प्रचण्ड आक्रमण से शाही हाथी सेना मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। राव रायसिंह हाथी पर सवार था। सुरतान ने अपनी घोड़ी केशर को हाथी पर कुदाया घोड़ी ने अपने आगे के दोनों पैर हाथी के वक्षस्थल पर जमाये। राव सुरतान ने राव रायसिंह पर तलवार से प्रहार किया। राव रायसिंह इस प्रकार से मारे गए। इनके साथ ही महाराज जगमाल राणावत व कोलीसिंह भी काम आये।
महाराव सुरतान का प्रमुख सरदार समरसिंह देवड़ा घोर समरकर खेत रहा। राव रायसिंह के बीस सरदार इस युद्ध में काम आये। मुगल सेना की पूर्णतया हार हुई। राव रायसिंह,महाराज जगमाल आदि के नगारे, निशान तथा सैनिक सामान सुरतान के हाथ आया।
दत्ताणी के युद्ध के बाद जब युद्ध क्षेत्र को सम्भाल कर घायलों को चिकित्सा के लिए उठा रहे थे और मरणासन्न घायलों को दूध पिला रहे थे उस समय राजस्थान का प्रसिद्ध चारण कवि दुरसा आढ़ा जो राव रायसिंह के साथ था, तथा सख्त घायल होकर गिरा था, उसे भी राजपूत समझ कर दूध पिलाने लगे तब उसने अपने आपको चारण बताया।
समरसिंह ने राव (सुरतान) को (धरती) राज्य डूंगरोत शाखा वाले देवड़ों को यश, अपनी संतति पुत्र-पोत्रों को विरुद और शत्रु पक्ष को पराजय की हानि प्रदान की। इस प्रकार वह वीर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर अपने जीवन को सफल कर स्वर्ग गया। तब दुरसा का इलाज करवाया गया। वह स्वस्थ हो गया। वह उच्च श्रेणी का कवि था। सत्यवादिता और स्वाभिमान के लिए उसकी प्रसिद्धि थी। अकबर के दरबार में उसका सम्मान था। वहाँ भी वह सत्य बोलने और सत्य काव्य-पाठ करन के लिए प्रसिद्ध था। इसका जन्म मारवाड़ के पांचेटिया गांव में 1592 वि. में हुआ। यह राव रायसिंह की सेना में था। राव सुरतान ने उसे अपने पास रखा और वि.सं. 1663 में उसे करोड़ पसाव तथा पेशवा नामक गाँव दिया। उसने दत्ताणी के युद्ध पर 'राव सुरताणरा झूलणा'नामक काव्य लिखा था। दुरसा को मेवाड़ और जोधपुर राज्य से भी कई गाँव मिले थे। ई. 1712 में 120 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त कर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
राव रायसिंह ने धरती की तीन बार वन्दना कर जगमाल को सिरोही दिलाने की प्रतिज्ञा के साथ प्रमाण किया। दरबार में उपस्थित हिन्दू और तुकों ने उसके साहस की सराहना की।
इस प्रकार चित्तौड़ के राणावत जगमाल और सोजत के राव रायसिंह सहित शाही सेना को धराशायी कर राव सुरतान ने विजय की दुन्दुभी बजायी।
दत्ताणी की रणभूमि में विजय प्राप्त कर राव सुरतान ने अपने वीरवर सामन्त सिंह देवड़ा को विजयराज देवड़ा पर भेजा जो दत्ताणी के युद्ध से पूर्व शाही सेना के एक दल को लेकर भीतरोट की और गया हुआ था,उसके विरुद्ध भेजा। दोनों पक्षों में मुकाबिला होने पर विजयराज का भाई धनराज देवड़ा मारा गया और विजयराज रण छोड़ कर भाग गया।
दत्ताणी में शाही सेना की भयंकर हार की जब बादशाह अकबर को खबर मिली तो वह बड़ा क्रोधित हुआ और जामबेग को एक सेना देकर राव सुरतान के विरुद्ध रवाना किया। जामबेग की सहायतार्थ जोधपुर के मोटे राजा उदयसिंह को भी नियुक्त किया। इस सेना के सिरोही में पहुंचने पर सुरतान सिरोही छोड़कर अपनी सेना सहित आबू के पहाड़ों पर चला गया। मुगल सेना काफी समय तक सिरोही में जमी रही। पर पहाड़ों पर चढ़कर लड़ने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। तब जामबेग ने सुरतान के साथ समझौता करने का तय किया। अतएव सं. 1645 ई. 1588 में मोटा राजा उदयसिंह के सरदार बगड़ी के ठाकुर वैरीशाल को जो सुरतान का सम्बन्धी भी था के द्वारा संधि की बात चलायी। उदयसिंह के वचन पर महाराव पता (प्रताप सिंह) देवड़ा हम्मीर और बीदा आदि को बैरीशाल के साथ मुगल सेना में भेजा उन्हें भेजते समय सुरतान ने बैरीशाल को कहा कि-यह लोग मेरे कलेजे के टुकड़े हैं जिन्हें आपके साथ भेज रहा हूं। इस पर बैरीशाल ने कहा कि-इन्हें वापस नहीं पहुँचाऊँगा तो मेरा कलेजा दे दूंगा। देवड़ा सरदारों के शाही शिविर में पहुँचते ही जामबेग ने धोखे से उन्हें मार डाला। इस विश्वासघात पर बैरीशाल आग बबूला हो उठा और उसने मोटे राजा उदयसिंह के सामने ही अपने पाट में कटार घोंप कर अपने सेवक को कहा कि मेरा कलेजा राव सुरतान को दे आना। इस प्रकार बैरीशाल ने अपना प्राणान्त कर राजपूत के वचन पालन के आदर्श का पालन किया ।
इसके बाद जामबेग और विजयराज देवड़ा ने आबू पर चढ़ाई की ओर वासथानजी की ओर से पहाड़ पर चढने लगे। इसकी खबर मिलते ही राव सुरतान सेना लेकर उनके मुकाबिले पर पहुँचा। युद्ध में सुरतान के सरदार सांगा (संग्रामसिंह) सोलंकी के हाथ से स्वामी द्रोही विजयराज देवड़ा मारा गया और जामबेग हार कर पीछे भागा। इस प्रकार शाही सेनानायक निराश होकर कल्ला (कल्याण) देवड़ा को सिरोही देकर दिल्ली लौट गया। शाही सेना के कूच करते ही सुरतान पहाड़ों से उतर कर सिरोही पर अधिकार करने चला। यह सुनकर कल्ला देवड़ा सिरोही छोड़कर भाग गया। सुरतान का सिरोही पर वापस अधिकार हो गया।
तदनंतर अकबर ने सिरोही पर दो तीन बार पुनः सेनाएं भेजी परन्तु वे सुरतान को परास्त न कर सकी। महाराव सुरतान की आश्विन कृष्ण सं. 1767 ई. 1610 में 51 वर्ष की आयु में मृत्यु हुई। उसने 51 वर्ष में 52 युद्ध किये थे।
महाराव सुरतान विपत्तिकाल में महाराणा प्रतापसिंह को भी सिरोही भू भाग के पहाड़ों में रखा था। जोधपुर के राजा चन्द्रसेन राठौड़ को भी बादशाह अकबर की सेना द्वारा मारवाड़ से खदेड़ने पर एक वर्ष तक उसे सिरोही में रखा था। महाराणा प्रतापसिंह से इनकी पूर्ण मैत्री थी। महाराणा ने अपने पुत्र महाराज कुमार अमरसिंह की कन्या राव सुरतान को विवाही थी। इस सम्बन्ध का महाराणा के भाई सगर ने बड़ा विरोध किया था। कारण इनके भाई जगमाल को युद्ध में सुरतान ने मारा था। महाराणा ने सगर की इस आपत्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया।
राव सुरतान जैसा उद्भट वीर था दानवीर भी था। उन्होंने चारणों, ब्राह्मणों, रावों आदि को 84 ग्राम दान दिये थे। लगभग सिरोही राज्य के प्रत्येक गाँव में दान प्रदत्त उदक मिलती है।
राव सुरतान ऐसा वीर तथा उदार था।
राव सुरतान के पौत्र राव अखैराज ने शाहजहाँ के पुत्रों के उताराधिकार के युद्ध में शाहजादे दाराशिकोह का पक्ष लिया था। अखैराज के पौत्र राव वैरीशाल के समय में महाराजा जसवन्त सिंह के अफगानिस्तान में निधन होने पर राव अखैराज की पुत्री आनन्द कुंवर जो जसवन्त सिंह की महारानी थी,सिरोही आ गई थी। दुर्गादास राठौड़ आदि जब बालक अजीतसिंह को लेकर सिरोही ही आये थे। राव वैरीशाल की भुआ और बालक महाराजा अजीतसिंह की विमाता आनंद कुंवर के कारण ही अजीतसिंह को गुप्त रूप से दिल्ली से निकाल कर मुकन्द दास खींची वगैरह ने सिरोही में जगदेव पुरोहित की स्त्री के लालन-पालन में कालन्द्री गांव में रहने का प्रबन्ध किया। जगदेव की स्त्री ग्राम के बाहर एक पहाड़ी पर स्थित मन्दिर में अजीतसिंह को रखती थी और पहाड़ पर जाने के मार्ग पर मुकन्ददास खींची सन्यासी के भेष में सुरक्षार्थ रहता था। वह धूणे में अपने शस्त्र छिपाये रखता था।
राव वैरीशाल के पुत्र सुरतान द्वितीय से जब छत्रशाल ने सिरोही छीन ली तो वह जोधपुर गया। महाराजा अजीतसिंह ने उसे देवातरा की जागीर दी थी जहाँ उसकी संतान अब भी रहती है। यह लाखावत शाखा के देवडे कहलाते हैं। छत्रशाल के पुत्र राव मानसिंह ने सिरोही में बढ़िया तलवारों का निर्माण किया था जो मानशाही कहलाती हैं और इसी कारण तलवार का एक पर्याय नाम सिरोही पड़ा है।
महाराजा अभयसिंह जोधपुर ने गुजरात के विद्रोही शाही प्रांतपाल नवाब सर बुलन्दखां पर सन् 1730 में एक बड़ी सेना के साथ चढाई की तब उक्त सेना सिरोही पहुँची तब रावल मानसिंह ने पाडीव के ठाकुर नारायणसिंह को अपनी सेना देकर महाराजा जोधपुर के साथ गुजरात पर भेजा था। अहमदाबाद के उस युद्ध में देवड़ों की सेना ने बड़ी बहादुरी दिखायी थी।
कुछ पीढ़ियों के बाद राव वैरीशाल दूसरा हुआ। उसने अपनी सैन्य शक्ति में पर्याप्त वृद्धि करली थी जिससे सिरोही राज्य मरहठों और पिण्डारियों के आक्रमण से बहुत कुछ सुरक्षित रहा।
महाराव शिवसिंह के शासनकाल में दूसरे राज्यों के सिरोही पर अनवरत हमलों के कारण सिरोही राज्य की व्यवस्था और आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी। इसलिए महाराव नारायणदास ने पुरोहित को कर्नल टॉड के पास जोधपुर भेजकर अंग्रेजों से संधि करने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप 11 दिसम्बर 1823 ई. में सिरोही राज्य की ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि हुई। कर्नल टॉड पहिला अंग्रेज था जो ईस्वी 1822 में आबू देखने गया था।
महाराव स्वरूपसिंह की निस्संतान मृत्यु पर अंग्रेजों ने मंडार खानदान के तेजसिंह को अढाई साल की बाल अवस्था में सन् 1946 की जुलाई में सिरोही की गद्दी पर बैठाया और राजमाता की अध्यक्षता में रिजेन्सी कौंसिल बनाई। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद गृहमन्त्री श्री वल्लभ भाई पटेल के प्रयास से सिरोही रियासत गुजरात प्रांत का भाग बना दिया गया। इसके विरोध में जन आन्दोलन हुआ। तब ईस्वी 1949 में आबू और देलवाड़ा तहसील तो बम्बई
(गुजरात) के साथ ही रखे और सिरोही सहित शेष भाग राजस्थान में मिला दिया। अन्त में
राज्य पुनर्गठन आयोग की अभिशंसा पर भारत सरकार ने 1 नवम्बर 1956 को आबू और देलवाड़ा तहसील को राजस्थान में सम्मिलित कर दिया।
महाराव उम्मेदसिंह के भाई के पौत्र अभयसिंह ने सिरोही राज परिवार का सब से नजदीकी होने पर दावा प्रस्तुत किया। इस पर भारत सरकार ने एक जांच कमेटी नियुक्त की। उस की जाँच के बाद तेजसिंह के स्थान पर महाराव अभयसिंह 1949 में सिरोही का शासक नियत हुआ। आपकी इतिहास में बड़ा अभिरूचि है।
महाराव केशरीसिंह इतिहास और साहित्य का बड़ा प्रेमी था। इन्होंने हस्तलिखित ऐतिहासिक ग्रन्थों का संग्रह कर अपने राज भवन में पुस्तकालय बनाया था। इन्हें संस्कृत भाषा और स्वरोदय का भी अच्छा ज्ञान था।
इनके प्रोत्साहन और प्रेरणा से नवलदान आसियां ने चौहान सुधाकर और स्वरोदय ज्ञान नामक कई ग्रन्थों का सर्जन किया था। राघवदास आढा चारण ने महाराव की आज्ञा से 'चत्रभुज इच्छा प्रकाश' नाम से प्राचीन कविताओं का हस्तलिखित संकलन तैयार किया था। महा महोपाध्याय डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने महाराव की प्रेरणा प्राप्त कर सिरोही राज्य का इतिहास लिखा था। जिस पर केशरीसिंह ने रोहिड़ा गांव में एक अरठिया कुआ को ईनाम में दिया था। इसी का अंग्रेजी अनुवाद पं. सीताराम बनारस वाले ने किया था। उसे भी महाराव ने पुष्कल द्रव्य देकर सम्मानित किया था।
महाराव केशरीसिंह के शासन काल में अंग्रेजों ने इनमे आबू पर 1916में काफी रकबा जमीन लेकर उसकी एवज में सिरोही राज्य का खिराज माफ कर दिया था।
प्राचीन काव्य संकलनों और महाराव अखेराज पर रचित एक सम सामयिक दवा वेत नामक रचना में वर्णन है कि इन पर एक शाही सूबेदार चढकर आया था। उसके साथ सेलदार गांव के पास युद्ध हुआ। महाराव ने उसे हराकर मार डाला था।
इस प्रकार देवड़ा राजपूतों और उनके शासकों का इतिहास बड़ा उज्जवल और गौरवास्पद रहा है।
देवड़ा चौहानों की खापें और उनके ठिकाने
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