सिसोदिया वंश की कुलदेवी बाणेश्वरी माता
Sisodia Rajput
सिसोदिया वंश की कुलदेवी बाणेश्वरी माता
जोगमाया कुलदेवी बायण माँ ''( श्रीबाण माता )
सेव्या सदा सिसोदिया
मही बधायो माण,
धनुष बाण धारण
करीया बण तु माता बाण ll
सिसोदिया वंश की कुलदेवी बाणेश्वरी माता |
मेवाड़ में माँ बायण की प्राचीन मूर्ति एक पुरोहित परिवार के पास
रहती है जो की नागदा जाती के ब्राह्मण हैं l यह व्यवस्था इसलिए स्थापित की गयी थी क्यूंकि
मेवाड़ के कई महाराणाओ को शत्रुओं से युद्ध के लिए महलों से बाहर रहना पड़ता था और
किलों पर दुश्मन का कब्जा होने पर बायण माता की मूर्ति को खतरा होने की वजह से ही नागदा
ब्राह्मणों को इसकी जिम्मेदारी दी गयी थी l
एतिहासिक स्त्रोत यह भी साबित करते हैं के बायण माता के नवमी के
दिन बकरे की बलि नहीं दी जाती, क्यूंकि यह सात्विक देवी हैं l जो बलिदान दिया जाता
है वह माँ दुर्गा के ही तामसिक स्वरुप कालीका माता के चडाया जाता है l साथ ही यह बलिदान
कहीं कहीं भेरू जी के नाम से भी चडाया जाता है किन्तु माता बायण सात्विक ही रहती हैं
l यह बताना मुश्किल है की यह अपभ्रंश कब और कहा से शुरू हुआ के सिसोदिया बायण माता
के नाम से बलि देने लगे l सिसोदिया चूण्डावत कुल देवी की सात्विकता का एक सबसे बड़ा
प्रमाण यह है के माता के सामने बलिदान न होकर कही आड़ में मंदिर से बहार किया जाता
है l यह रीती तो लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ आदि के चूण्डावत पालन करते है किन्तु अधिकतर
ठिकानो में माताजी के बलिदान चडाया जाता है, एक बार शुरू होने से अब बंद करने से सभी
शंकित होते है l किन्तु ऐसे भी कई ठिकाने हैं जहा आज भी बलिदान भेरू जी या कालीका माता
के नाम से होता है और बायण माता को बिलकुल सात्विक रखा जाता है l
कुलदेवी माँ बायण का मंदिर भट्टी में बने केलु और बांस की कच्ची
छत और दीवारों/जमीन को गौ माता के गोबर और ठिकाने के खेत की मिटटी से लीप कर बनाया
जाता है l इसी में माता खुश रहती हैं l मंदिर की छत पर यदि ध्वजा फेहराई जाये, तो यह
ध्यान रखा जाता है की उसकी छाया किसी भी घर पे नहीं पढनी चाहिए अन्यथा उस घर-परिवार
का नाश हो जाता है l
हमने नीचे ही आपकी सुविधा के लिए माता जी की आरती और श्री दुर्गा
सप्तशती की फाइलें अपलोड कर दी हैं l इच्छित व्यक्ति इन्हें आसानी से फ्री में डाउनलोड
कर सकते हैं l श्री दुर्गा सप्तशती का ५ घंटे का पाठ चमत्कारी है जो नवरात्री में नौ
दिनों तक प्रतिदिन सुनने से दुर्गा स्वरुप माँ बायण खुश होती हैं और इच्छित फल की मनोकामना
पूर्ण करती हैं l यह पाठ बहुत सरल है जिसमे मंत्रोच्चार के पश्चात् हिंदी में साधारण
अनुवाद भी कर दिया गया है l
बाणासुर और बायण माता का प्राचीन इतिहास
पुराणों के अनुसार हजारों वर्षों पूर्व बाणासुर नाम का एक दैत्य
जन्मा जिसकी भारत में अनेक राजधानियाँ थी। पूर्व में सोनितपुर (वर्तमान तेजपुर, आसाम)
में थी उत्तर में बामसू (वर्तमान लमगौन्दी, उत्तराखंड) मध्य भारत में बाणपुर मध्यप्रदेश
में भी बाणासुर का राज था। बाणासुर बामसू में रहता था।बाणासुर को कही कही राजा भी कहा
गया है और उसके मंदिर भी मौजूद हैं जिसको आज भी उत्तराखंड के कुछ गावों में पूजा जाता
है।
संभवतः प्राचीन सनातन भारत में मनुष्य जब पाप के रास्ते पे चलकर
अतियंत अत्याचारी हो जाता था तब उसे असुर की श्रेणी में रख दिया जाता था क्यूंकि लोगों
को यकीन हो जाता था की अब उसका काल निकट है और वह अवश्य ही प्रभु के हाथो मर जायेगा।
यही हाल रावन का भी था वह भी एक महाज्ञानी-शक्तिशाली-इश्वर भक्त राजा था, किन्तु समय
के साथ वह भी अभिमानी हो गया था और उसका भी अंत एक असुर की तरह ही हुआ। किन्तु यह भी
सत्य है की रावण को आज भी बहुत से स्थानों पैर पूजा जाता है, दक्षिण भारत- श्रीलंका
के साथ साथ उत्तर भारत में भी उसके कई मंदिर
हैं जिनमे मंदसौर(मध्यप्रदेश) में भी रावन की एक विशाल प्रतिमा है जिसकी लोग आज भी
पूजा करते हैं।
बाणासुर भगवान् शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे
हजारों भुजाओं की शक्ति प्राप्त थी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर
ने कहा की आप मेरे किले के पहरेदार बन जाओ। यह सुन शिवजी का बड़ा ग्लानी-अपमान हुआ लेकिन
उन्होंने उसका वरदान मन लिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर परम बलशाली होकर
सम्पूर्ण भारत और पृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा और कुछ देवता तक भयभीत रहने
लगे। बाणासुर अजय हो चुका था, कोई उससे युद्ध
करने आगे नहीं आता था। एक दिन बाणासुर को अचानक युद्ध करने की तृष्णा जागी। तब उसने
स्वयं शिवजी से युद्ध करने की इच्छा करी। बाणासुर के अभिमानी भाव को देख कर शिवजी ने
उससे कहा की वो उससे युद्ध नहीं करना चाहते क्यूंकि वो उनका शिष्य है, किन्तु उन्होंने
उसे कहा की तुम विचलित न होवो तुम्हे पराजित करने वाला व्यक्ति कृष्ण जनम ले चुका है।
यह सुन कर बाणासुर भयभीत हो गया। और उसने शिवजी की तपस्या करी और अपनी हजारों भुजाओं
से कई सौ मृदंग बजाये जिससे शिवजी प्रसन्न हो गए। बाणासुर ने उनसे वरदान माँगा की वे
कृष्ण से युद्ध में उसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे और हमेशा की तरह
उसके किले के पहरेदार बने रहेंगे।
समय बीतता गया और श्री कृष्ण ने द्वारिका पे अधिकार करा और एक शक्तिशाली
सेना बना ली। उधर बाणासुर के एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। उषा से शादी के लिए बहुत
से राजा महाराजा आए किन्तु बाणासुर सबको तुच्छ समझकर उषा के विवाह के लिए मन कर देता
और अभिमानपूर्वक उनका अपमान कर देता था। बाणासुर को भय था की उषा उसकी इच्छा के विपरीत
किसी से विवाह न कर ले इसलिए बाणासुर ने एक शक्तिशाली अग्निगड़(तेजपुर, वर्तमान आसाम)
बनवाया और उसमे उषा को कैद कर नज़रबंद दिया।
अब इसे संयोग कहो या श्री कृष्ण की लीला, एक दिन उषा को स्वप्न में
एक सुन्दर राजकुमार दिखा यह बात उसने अपनी सखी चित्रलेखा को बताई। चित्रलेखा को सुन्दर
कला-कृतियाँ बनाने का वरदान प्राप्त था, उसने अपनी माया से उषा की आँखों में देख कर
उसके स्वप्न दृश्य को देख लिया और अपनी कला की शक्ति से उस राजकुमार का चित्र बना दिया।
चित्र देख उषा को उससे प्रेम हो गया और उसने कहा की यदि ऐसा वर उसे मिल जाये तो ही
तो ही उसे संतोष होगा। चित्रलेखा ने बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध
का है। तब चित्रलेखा ने अपनी शक्ति से अनिरुद्ध को अदृश्य कर के उषा के सामने प्रकट
कर दिया तब दोनों ने ओखिमठ नमक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहाँ आज भी उषा-अनिरुद्ध
नाम से एक मंदिर व्याप्त है। जब यह खबर बाणासुर को मिली तो उसे बड़ा क्रोद्ध आया और
उसने अनिरुद्ध और उषा को कैद कर लिया।
जब कई दिनों तक अनिरुद्ध द्वारिका में नहीं आया तो श्री कृष्ण और
बलराम व्याकुल हो उठे और उन्होंने उसकी तलाश शुरू की और अंत में जब उन्हें नारदजी द्वारा सत्य का पता चला तो उन्होंने बाणासुर पर हमला कर
दिया। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ जिसमे दोनों ओर के महावीरों ने शौर्य का परिचय दिया। अंत
में जब बाणासुर हारने लगा तो उसने शिवजी की आराधना करी।
भक्त के याद करने से शिवजी प्रकट हो गए और श्री कृष्ण से युद्ध करने
लगे। युद्ध कितना विनाशक था इसका ज्ञान इसी बात से हो जाता है की शिवजी अपने सभी अवतारों
और साथियों रुद्राक्ष, वीरभद्र, कूपकर्ण, कुम्भंदा सहित बाणासुर के सेनापति बने और
साथ में सेना के सबसे आगे नंदी पे उनके पुत्र श्री गणेश और कार्तिकेय भी थे। उधर दूसरी
तरफ श्री कृष्णा के साथ बलराम, प्रदुम्न, सत्याकी, गदा, संबा, सर्न,उपनंदा, भद्रा अदि
कई योद्धा थे।इस भयंकर युद्ध में शिवजी ने श्री कृष्ण की सेना के असंख्य सेनिको का
नाश किया और श्री कृष्ण ने बाणासुर के असंख्य सैनिको का नाश किया। शिवजी ने श्री कृष्ण
पर कई अस्त्र-शस्त्र चलाये जिनसे श्री कृष्ण को कोई हानि नहीं हुयी और श्री कृष्ण ने
जो अस्त्र-शास्त्र शिवजी पर चलाये उनसे शिवजी को कोई हनी नहीं हुयी। तब अंत में शिवजी
ने पशुपतास्त्र से श्री कृष्ण पर वर किया तो श्री कृष्ण ने भी नारायणास्त्र से वर किया
जिसका किसी को कोई लाभ नहीं हुआ। फिर श्री कृष्ण ने शिवजी को निन्द्रास्त्र चला के
कुछ देर के लिए सुला दिया। इससे बाणासुर की सेना कमजोर हो गयी। प्रदुम्न ने कार्तिकेय
को घायल कर दिया तो दूसरी तरफ बलराम जी ने कुम्भंदा और कूपकर्ण को घायल कर दिया। यह
देख बाणासुर अपने प्राण बचा कर भागा। श्री कृष्ण ने उसे पकड़ कर उसकी भुजाएँ कटनी शुरू
कर दी जिनसे वह अभिमान करता था।
जब बाणासुर की सारी भुजाएँ कट गयी थी और केवल चार शेष रह गयी थी
तब शिवजी अचानक जाग उठे और श्री कृष्ण द्वारा उन्हें निंद्रा में भेजने और बाणासुर
की दशा जानकर बोहोत क्रोद्धित हुए। शिवजी ने अंत में अपना सबसे भयानक शस्त्र ''शिवज्वर
अग्नि'' चलाया जिससे सारा ब्रह्माण अग्नि में जलने लगा और हर तरफ भयानक जावर बिमारिय
फैलने लगी। यह देख श्री कृष्ण को न चाहते हुए भी अपना आखिरी शास्त्र ''नारायनज्वर शीत''
चलाया। श्री कृष्ण के शास्त्र से ज्वर का तो नाश हो गया किन्तु अग्नि और शीत का जब
बराबर मात्र में विलय होता है तो सम्पूर्ण श्रृष्टि का नाश हो जाता है।
जब पृथ्वी और ब्रह्माण बिखरने लगे तब नारद मुनि और समस्त देवताओं,
नव-ग्रहों, यक्ष और गन्धर्वों ने ब्रह्मा जी की आराधना करी तब ब्रह्मा जी ने दोनों
को रोक पाने में असर्थता बताई। तब सबने मिलकर परा-शक्ति भगवती माँ दुर्गाजी की अराधना
करी तब माताजी ने दोनों पक्षों को शांत किया। श्री कृष्ण ने कहा की वे तो केवल अपने
पौत्र अनिरुद्ध की आज़ादी चाहते हैं तो शिवजी ने भी कहा की वे केवल अपने वचन की रक्षा
कर रहे हैं और बाणासुर का साथ दे रहे हैं, उनकी केवल यही इच्छा है की श्री कृष्ण बाणासुर
के प्राण न लेवें। तब श्री कृष्ण कहा की आपकी इच्छा ही मेरा दिया हुआ वचन है की मेने
पूर्वावतार में बाणासुर के पूर्वज बलि के पूर्वज प्रहलाद को यह वरदान दिया था की दानव
वंश के अंत में उसके परिवार का कोई भी सदस्य उनके विष्णु के अवतार के हाथो कभी नहीं
मरेगा। माँ भगवती की कृपा से श्री कृष्ण की बात सुनकर बाणासुर आत्मग्लानी होने लगी
औरअपनी गलती का एहसास होने लगा की जिसकी वजह से ही दोनों देवता लड़ने को उतारू हो गए
थे। बाणासुर ने श्री कृष्ण से माफ़ी मांग ली। बाणासुर के पराजित होते ही शिवजी का वचन
सत्य हुआ की बाणासुर श्री कृष्ण से पराजित होयेगा लेकिन वो उसका साथ देंगे और उसके
प्राण बचायेंगे।
तत्पश्चात शिवजी और श्री कृष्ण ने भी एक दुसरे से माफ़ी मांगी और
एक दुसरे की महिमामंडन करी। माता पराशक्ति ने तब्दोनो को आशीर्वाद दिया जिससे दोनों
एक दुसरे में समा गए तब नारद जी ने सभी को कहा की आज से केवल एक इश्वर हरी-हरा हो गए
हैं। फिर बाणासुर ने उषा-अनिरुद्ध का विवाह कर दिया और सब सुखी-सुखी रहने लगे। तत्पश्चात
बाणासुर नर्मदा नदी के पास गया और शिवजी की तपस्या करने लगा की उन्होंने उसके प्राणों
की रक्षा करी और युद्ध में उसका साथ दिय। शिवजी ने प्रकट हो कर उसकी इच्छा जानी तब
उसने कहा की वे उसको अपने डमरू बजाने की कला का आशीर्वाद देवें और उसको अपने विशेष
सेवकों में जगह भी देवें तब शिवजी ने कहा की उसके द्वारा पूजे गए शिवजी के लिंगो को
बाणलिंग के नाम से जाना जायेगा और उसकी भक्ति को हमेशा याद रखा जायेगा।
(नोट- वैष्णव ग्रंथो में श्री कृष्ण की कुछ ज्यादा महिमा की गयी
है और स्मृति ग्रंथो में शिवजी की ज्यादा महिमा की गयी है। वैष्णव ग्रंथों में तो यहाँ
तक कहा गया है की शिवजी ने युद्ध के अंत में श्री कृष्ण से प्राणदान की याचना करी की
जिससे खुश होकर कृष्ण ने शिवजी को माफ़ कर दिया। मध्य वैदिक काल में वैष्णव-शैव भक्तो
के बीच में चली प्रतियोगिता का प्रनिमन मालूम होता है किन्तु या सत्य से कोसो दूर है।
उपर जो हमने बताया है वह ज्यादा तर्कसंगत है और प्रभु (त्रिमूर्ति) के स्वयं ज्ञानी
होने का सूचक है और जो यदि आप किसी और ग्रन्थ में इस युद्ध के विषय में अतिशियोक्ति
किसी एक के पक्ष में पढ़ें तो विचार करें की शिव-कृष्ण में कोई उंच नीच नहीं है, और
जिसकी अधिक चर्चा आगे के इतिहास में हम आपको प्रदान करेंगे)
अब आगे की कथा इस प्रकार है की जब अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया
और अंत में कृष्ण-शिव एक में समां गए तो भी बाणासुर की प्रवृति नहीं बदली। बाणासुर
अब और भी ज्यादा क्रूर हो गया। बाणासुर अब जान गया था की श्री कृष्ण कभी उसके प्राण
नहीं ले सकते और शिवजी उसके किले के रक्षक हैं तो वह भी ऐसा नहीं करेंगे।तब सभी क्षत्रिय
राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों ने यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में से माँ पारवती जी
एक छोटी सी कुंवारी कन्या के रूप में प्रकट हुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं
से वर मांगने को कहा।
तब सभी राजपूत राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की कामना
करी (जिनमे विशेषकर संभवतः सिसोदिया वंश के पूर्वज प्राचीन सूर्यवंशी राजा भी रहे होंगे) तब माता जी ने सभी राजाओं-ऋशिमुनियों
और देवताओं को आश्वस्त किया की वे सब धैर्य रखें बाणासुर का वध समय आने पर अवश्य मेरे
ही हाथो होगा। यह वचन कहकर माँ वहां से उड़कर भारत के दक्षिणी छोर पर जा कर बैठ गयीं
जहा पर त्रिवेणी संगम है। (पूर्व में बंगाल की खाड़ी-पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण
में भारतीय महासागर है) बायण माता की यह लीला बाणासुर को किले से दूर लाने की थी ताकि
वह शिवजी से अलग हो जाये। आज भी उस जगह पर बायण माता को दक्षिण भारतीय लोगो द्वारा
कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता है और उस जगह का नाम भी कन्याकुमारी है।
जब पारवती जी के अवतार देवी माँ थोड़े बड़े हुए तब उनकी सुन्दरता से
मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह करने कृयरत हुए जिसपर माताजी भी राजी हो गए। विवाह
की तय्यरिया होने लगी। किन्तु तभी नारद मुनि यह सब देख कर चिंतित हो गए की यह विवाह
अनुचित है। बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पारवती जी का अवतार होने के बावजूत
उनसे भिन्न हैं, यदि उन्होंने विवाह किया तो वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी क्यूंकि
बाणासुर केवल परम सात्विक देवी के हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था। तब उन्होंने
देवी माता के पास जा कर कहा ही जो शिवजी आपसे विवाह करने आ रहे हैं वो शिवजी नहीं है
अपितु मायावी बाणासुर है। नारद मुनि ने माता जी को कहा की असलियत जानने के लिए वे शिवजी
से ऐसी चीज़ मांगे जो सृष्टि में कही पे भी आसानी से ना मिले - बिना आँख का नारियल,
बिना जोड़ का गन्ना और बिना रेखाओं वाला पान का पत्ता। किन्तु शिवजी ने ये सब चीजें
लाकर माता जी को दे दी।
जब नारद जी की यह चाल काम नहीं आई तब फिर उन्होंने भोलेनाथ को छलने
का उद्योग किया। सूर्योदय से पहले पहले शादी का महूरत था जब शिवजी रात को बारात लेकर
निकले तब रस्ते में नारद मुनि मुर्गे का रूप धर के जोर जोर से बोलने लगे जिससे शिवजी
को लगा की सूर्योदय होने वाला है भोर हो गयी है अब विवाह की घडी निकल चुकी है सो वे
पुनः हिमालय वापिस चले गए। देवी माँ दक्षिण में त्रिवेणी स्थान पर इंतज़ार करती रह गयी।
जब शिवजी नहीं आये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं। उन्होंने शादी का सब खाना फेक दिया
और उन्होंने जीवन परियन्त सात्विक रहने का प्राण ले लिया और सदैव कुंवारी रहकर तपस्या
में लीं हो गयी।
इश्वर की लीला से कुछ वर्षो बाद बाणासुर को माताजी की माया का पता
चला तब वह खुद माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना कर दिया। जिसपर
बाणासुर क्रुद्ध हुआ वह पहले से ही अति अभिमान हो कर भारत वर्ष में क्रूरता बरसा रहा
था। तब उसने युद्ध के बल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी। जिसमे देवी माँ ने प्रचंड
रूप धारण कर उसकी पूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया और अपने चक्र से बाणासुर का सर कट
के उसका वध कर दिया। मृत्यु पूर्व बाणासुर ने मत परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने
जीवन भर के पापों के लिए क्षमा मांगी और मोक्ष की याचना करी जिसपर देवी माता ने उसकी
आत्मा को मोक्ष प्रदान कर दिया। यही देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण
माता या बाण माता के नाम से जाना जाता है। जिसप्रकार नाग्नेचिया माता ने राठौड़ वंश
की रक्षा करी थी उसी प्रकार इन्ही माता की कृपा से सिसोदिया चूण्डावत कुल के सूर्यवंशी
पूर्वजों के वंश को बायण माता ने बचाया।
महा-माया देवी माँ दुर्गा की असंख्य योगिनियाँ हैं और सबकी भिन्न
भिन्न निशानिय और स्वरुप होते हैं। जिनमे बायण माता पूर्ण सात्विक और पवित्र देवी हैं
जो तामसिक और कामसिक सभी तत्वों से दूर हैं। माँ पारवती जी का ही अवतार होने के बावजूत
बायण माता अविवाहित देवी हैं। तथा परा-शक्ति देवी माँ दुर्गा का अंश एक योगिनी अवतारी
देवी होने के बावजूत भी बायण माता तामसिक तत्वों से भी दूर हैं अर्थात इनके काली-चामुंडा
माता की तरह बलिदान भी नहीं चढ़ता है।
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