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ठाकुर नाथू सिंह राठौड़  जिन्होंने नेहरू के प्रधानमंत्री बनने पर सवाल खड़ा कर दिया

ठाकुर नाथू सिंह राठौड़ जिन्होंने नेहरू के प्रधानमंत्री बनने पर सवाल खड़ा कर दिया

ठाकुर नाथू सिंह साहब रौबदार आदमी थे। राजपूताने के एक प्रतिष्ठित खानदान में (जयमल राठौड़ के वंश में) पैदा हुए थे, लेकिन माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया। उनकी रिश्तेदारी डूंगरपुर राज्य के राजा से थी। वे ही उनके अभिभावक बने।


नाथू सिंह जी ने कट्टर मिजाज पाया था। देश पर बाहरी हुकूमत उन्हें बुरी लगती थी। बचपन में ही मन बना लिया कि बड़े होकर राज्य की सेना में भर्ती होना है औ
ठाकुर नाथू सिंह साहब
ठाकुर नाथू सिंह साहब 

र अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना है। हालांकि जब मौका आया तो राजा साहब ने ही उन्हें ब्रिटिश इंडियन आर्मी जॉइन करने का सुझाव दिया। वहाँ बेहतर प्रशिक्षण मिलता। दरअसल उस समय तक सेना का भारतीयकरण होने लगा था। अर्थात अब सेना में हिंदुस्तानी अफसरों के लिए बराबरी के मौके थे। बस दिक्कत थी कि काबिल ऑफिसर मिलते नहीं थे। आप देखिए कि स्वतंत्र भारत में भी अफसरों की शॉर्टेज बनी रहती है। गुलाम भारत में स्थिति और खराब ही होनी थी।


जब नाथू सिंह जी ट्रेनिंग के लिए ब्रिटेन गए तो पहले ही दिन मेस में उन्होंने बवाल काट दिया। आमतौर होता यह था कि गोरे आपत्ति जताते कि क्या हम अब इन कालों के साथ भोजन करेंगे। यहाँ नाथू सिंह जी का कहना था कि मैं इतने ऊँचे राजपूत खानदान का पैदा हुआ, किंग्स एंड प्रिंस के साथ भोजन करने वाला, इन म्लेच्छ गोरों के साथ भोजन करूँ?


यह जातिवाद नहीं था, बल्कि अंग्रेजों को उन्हीं के जूते का स्वाद चखाना था। अंग्रेज लोग खानदानों, शुद्ध रक्त, कुलीनता को बहुत महत्व देते थे। भारतीय कुलीनों को भी। लेकिन आम हिंदुस्तानियों से रंगभेद बरतते। ठाकुर साहब ने तो बस अपने देशवासियों की तरफ से बदला भर लिया था।


ट्रेनिंग पूरी हुई। ट्रेनिंग समाप्ति पर कमांडिंग अफसर ने अपने भाषण में हिंदुस्तानी अफसरों से कहा कि हमने आपको इसलिए ट्रेन किया है कि कल को यदि हम चले गए तो कुछ तो शिक्षित लोग हों जो सेना को चला सकें। इस पर नाथू जी बोल पड़े कि अंग्रेजों के आने से पहले भी भारत में सेनाएं थी और बेहतर थी। और 'यदि हम चले गए' का क्या मतलब है? आपको जाना तो है ही, कल जाना है, अभी निकल लो।


भारत में भी कभी किसी अंग्रेज अफसर ने कहा कि उसे भारत अच्छा नहीं लगता। ठाकुर साहब ने जवाब दिया, "मैं ब्रिटेन एक बार गया। मुझे बहुत ही ज्यादा बुरा लगा। मैं जितनी जल्दी हो सका, वहाँ से निकल आया। अब कभी उस बेकार देश में नहीं जाऊंगा।
सर! यदि आपको भारत अच्छा नहीं निकलता तो किसने आपका हाथ पकड़ा है? अभी निकल जाइए, और अपने साथ सभी ब्रिटिश मित्रों को भी लेते जाइए।"


नाथू सिंह जी की कई बार शिकायतें की गई। लेकिन हर बार परिणाम एक ही होता। जाँच करने वाले अफसर लिखते कि यह आदमी सेना में रहने के लायक नहीं हैं। अपने साथी अफसरों (ब्रिटिश अफसरों) को अपने से कमतर समझता है, सेना के सोशल प्रोटोकॉल (यूरोपियन संस्कृति) को फॉलो नहीं करता। साथ ही, यह तमाम अफसरों में यह सबसे काबिल, तकनीकी रूप से दक्ष, बेहतरीन लीडर और ईमानदार व्यक्ति है।


नाथू सिंह जी को एक बार इलाहाबाद में एक सड़क पर राजनीतिक रैली को रोकने के लिए कहा गया। ये अपनी पलटन लेकर पहुंचे। सामने से नेहरू और अन्य नेताओं की अगुवाई में देशभक्तों का हुजूम आ रहा था। नाथू जी ने ऑर्डर फॉलो करते हुए रैली को उस सड़क से तो नहीं गुजरने दिया, लेकिन अपनी देखरेख में दूसरे रास्तों से रैली को जाने दिया। ऐसा लगातार कई दिन तक हुआ। अफसर चिढ़ गए और फिर से इंक्वायरी बैठा दी। नाथू जी फिर से साफ बच निकले। दरअसल वे कागज-पत्तर से बिलकुल दुरुस्त काम करते थे।


एक बार ऐसा मौका भी आया कि उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ कॉंग्रेस जॉइन करने का मन बनाया। मोतीलाल नेहरू ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि देश जब आजाद होगा तो उस नए राष्ट्र को उन जैसे सैनिक अफसरों की जरूरत पड़ेगी।


उस समय के सैनिक अफसरों को लेकर अक्सर यह बात कही जाती है कि वे तो अंग्रेजी नौकरी कर रहे थे, वे कैसे देशभक्त। पर हमें समझना होगा कि ये सैनिक भी अंग्रेजों से कुछ इसलिए सीख रहे थे कि वह देश के काम आ सके। केवल नाथू सिंह जी ही नहीं, बल्कि करियप्पा साहब और सगत सिंह जी ने भी समय-समय पर आर्मी छोड़ देश की आजादी की लड़ाई में योगदान देने का मन बनाया था। पर कभी गाँधी, कभी मोतीलाल और कभी पटेल ने इन सैनिकों को ऐसा करने से रोक दिया।

ठाकुर नाथू सिंह राठौड़ ब्रिटेन की सैंडहर्स्ट रॉयल मिलिट्री एकेडमी से पास आउट होने वाले दूसरे भारतीय ऑफ़िसर थे जो 3 स्टार रैंक वाले जनरल बने. पहले थे राजेन्द्र सिंह जड़ेजा जो केएम करिअप्पा के बाद सेनाध्यक्ष हुए. ठाकुर नाथू सिंह के साथ यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि वे ऐसे अधिकारी थे जिन्हें सरकार ने पहला सेनाध्यक्ष बनने का मौका दिया था पर उन्होंने करिअप्पा को अपना वरिष्ठ बताते हुए उनके लिए यह पद छोड़ दिया. नाथू सिंह राठौड़ की शख़्सियत में और भी कई रंग हैं जो उन्हें देश के सबसे चर्चित फ़ौजी अफ़सरों में से एक बनाते हैं.

नाथू सिंह जी नियम-कायदों को घोंटकर पी चुके थे। वे अंग्रेजों के बनाए नियमों के अंतर्गत ही, शिकायती पत्र लिख-लिखकर अंग्रेजों की नाक में दम कर देते और अंततः अपनी माँग मनवा लेते।




सेनाध्यक्ष बनने से इंकार


1946 में तत्कालीन ब्रिटिश कमांडर औचिनलेक ने नाथू सिंह राठौड़ को पहला कमांडर इन चीफ़ बनाने का प्रस्ताव दिया था. जब तत्कालीन रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह ने उन्हें यह सूचना दी तो उन्होंने कहा कि वे इस पद को पाकर यकीनन ख़ुशकिस्मत समझेंगे पर वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते. पूछने पर उन्होंने बताया कि लेफ्टिनेंट जनरल करिअप्पा उनसे कुछ महीने वरिष्ठ हैं और क़ाबिल भी. संभव है उन्हें उम्मीद रही हो कि उन्हें अगला सेनाध्यक्ष बनाया जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ और वे लेफ्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हो गए.


जब नेहरू के प्रधानमंत्री बनने पर सवाल खड़ा कर दिया


नाथू सिंह राठौड़ और जवाहरलाल नेहरू के बीच रिश्ते कभी सामान्य नहीं थे. फिर चाहे वह कश्मीर का मुद्दा रहा हो या सेना का भारतीयकरण. 1948 में जब कश्मीर में कबायलियों का आक्रमण हुआ तो उन्होंने नेहरू को लाहौर पर आक्रमण करने का सुझाव दिया. नाथू सिंह का मानना था कि इस सूरत में पकिस्तान सरकार समझौता करने पर मजबूर हो जाएगी. नेहरू ने उनके सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया. वीके सिंह लिखते हैं कि 1965 की भारत-पाक लड़ाई में लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय सेना के इसी प्लान को मंज़ूरी दी थी और यह कामयाब हुआ था. जब सेना लाहौर से कुछ ही किलोमीटर दूर रह गई तो घबराकर पाकिस्तान ने युद्ध विराम की अपील कर दी थी.

जवाहरलाल नेहरू ने कई दफ़ा फ़ौज के आधुनिकीरण और सशक्तिकरण की बात तो कही थी पर वास्तव में इसके कोई संजीदा प्रयास नहीं किये थे. शायद उन्हें लगता था कि लोकतंत्र में फ़ौज को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए. पकिस्तान के सैन्य इतिहास के जानकार परवेज़ हुडबॉय कहते हैं कि भारतीय कमांडर इन चीफ़ के बंगले को अपना आधिकारिक निवास बनाना इस बात को दर्शता है कि नेहरू लोकतांत्रिक ढ़ांचे में फ़ौज को किस स्थान पर रखना चाहते थे. नेहरू का नज़रिया पूर्णतया ग़लत नहीं था. दक्षिण एशिया और अफ्रीका के मुल्कों में आज़ादी के कुछ समय बाद लोकतांत्रिक सरकारों के तख़्ता के बाद फ़ौजी शासन लागू हो गए थे. पर सेना की हद तक की अनदेखी भी उचित नहीं. चीन से हुए युद्ध में हमारी हार इसकी मिसाल कही जा सकती है.

नाथू सिंह राठौड़ और जवाहरलाल नेहरू से जुड़ा एक बड़ा मशहूर वाकया है. एक उच्चस्तरीय बैठक में ये दोनों मौजूद थे. नेहरू ने सेना में पेशेवर भारतीय अफ़सरों की कमी के चलते पाकिस्तान की तरह ब्रिटिश अफ़सरों की मौजूदगी बरक़रार रखने का का प्रस्ताव दिया. नाथू सिंह ने तुरंत कहा कि जो भारतीय अफ़सर इस मीटिंग में मौजूद हैं उन्हें 25 वर्षों का फ़ौजी अनुभव है और वे वरिष्ठ पदों को सुशोभित कर सकते हैं. आगे उनका कहना था, ‘और रही बात तजुर्बे की, तो क्या आपको प्रधानमंत्री बनने का तजुर्बा है?’ मीटिंग में सन्नाटा छा गया. पर अंततः नेहरू का प्रस्ताव ही स्वीकार किया गया था.


इनका राष्ट्रवाद इतना प्रखर था कि आजादी से पहले ही अंतरिम सरकार ने तय कर लिया था कि देश के पहले आर्मी-चीफ नाथू सिंह जी ही होंगे।


आजादी के बाद एक मीटिंग में नेहरू जी कह रहे थे कि अभी हमारा देश नया है और फौज में भारतीय अफसर बहुत कम हैं, अनुभवहीन है। अतः कुछ साल तक ब्रिटिश अफसर भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दें। जब नेहरू बोल चुके तो सभी लोग चुप बैठे थे और नेहरू का मौन समर्थन कर रहे थे। नाथूसिंह जी ने बोलने की अनुमति लेकर कहा, "यह सही है कि हमारा यह सनातन देश वर्तमान परिस्थितियों में नया है, और भारतीय अफसर कम है, लेकिन अनुभवहीन नहीं हैं। हम सबको सेना में बीस वर्ष से अधिक का अनुभव है। यदि सभी ब्रिटिश अफसर चले भी गए, तब भी हम हिंदुस्तानी अफसर सेना को संभाल लेंगे। और गुस्ताखी की माफी के साथ, अनुभव की ही बात पर, श्रीमान प्रधानमंत्री जी को भी प्रधानमंत्री बनने का कितना अनुभव है? यदि वे नगण्य अनुभव के साथ देश चला सकते हैं तो हम भारतीय अफसर बीस साल के अनुभव के साथ फौज को क्यों नहीं चला सकते?"


हालांकि नेहरू जी की बात अधिक व्यवहारिक थी। कैबिनेट ने नेहरू जी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।


जब पहले भारतीय सेना-प्रमुख की नियुक्ति की बात आई तो सरकार की पहली पसंद ठाकुर नाथूसिंह जी ही थे। लेकिन उन्होंने यह पद इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि सेना में उनसे भी वरिष्ठ जनरल थे, जिनमें वरिष्ठतम करियप्पा थे। देश की सेना की शुरुआत ही गलत परम्परा से हो, यह नाथू जी को स्वीकार्य नहीं था।


इसके बाद से नाथूसिंह जी और सरकार के रिश्ते बिगड़ते ही गए। नाथू सिंह जी पहले की तरह ही सरकार को चिट्ठियां लिखा करते। पर अब हालात बदल गए थे। अब सत्ता पर अंग्रेज नहीं भारतीय नेता बैठे थे। नाथू जी ने लिखा, "मैंने अंग्रेजों के साथ काम किया, और मैं उन्हें पसन्द नहीं करता था। पर मैंने एक भी ऐसा अंग्रेज नहीं देखा जो अपने देश के प्रति, नियमों और कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध न हो। अफसोस है कि बिलकुल यही बात मैं इंडियन्स के लिए नहीं कह सकता।"


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