दहिया वंश और दहियावटी का इतिहास
दहिया वंश और दहियावटी का इतिहास
दहिया वंश और दहियावटी का इतिहास
नेंनसी की ख्यात
के अनुसार दहिया
राजपूत-
दहिया राजपूत |
मारवाङ मे सबसे
ज्यादा शासन करने
का श्रेय दहिया
राजपूतो को जाता
है। नागौर मे
किन्सरिया गांव स्थित
कैवाय माता मंदिर
मे मिले शिलालेख
पर लिखा है
"दधिचिक वंश दहियक
गढ़पति" यानि इस
राजस्थान की धरती
पर दहिया वंश
का ही ज्यादा
गढ़ो पर अधिकार
रहा है।इसलिए तो
दहियो को गढ़पति
कहते है।लेकिन ज्यादा
समय तक इतिहास
नही लिखा जाने
के कारण इनका
ज्यादा वर्णन नही मिलता
है।लेकिन गढ़पति, राजा, रावत, राणा आदि
नामो से दहिया
वंशजो को उपाधि
(संबोधन ) बराबर मिलती रही।गढ़पति
की उपाधि से
दहिया राजपूतो को
नवाजा गया है।जो
अपने आप मे
अपनी महत्ता को
दर्शाता है। दहिया
राजपूत दधीचि ऋषि की
संतान है।जिन्होंने अपनी
हड्डी इन्द्र को
दान मे दी
थी, जिससे इन्द्र
का छिना हुआ
राज्य वापिस मिला
था।यानि दहिया उनकी संतान
है जो अपने
आप मे अद्भुत
और अनूठे है।इतिहास
नही लिखा जाने
के कारण दहिया
राजपूतो की गोत्रो
का ज्यादा वर्णन
भी नही मिलता
है।वैसे दहिया राजपूतो की
खापें अर्थात् शाखाएं
भी सीमित है।लेकिन दहिया
राजपूतो का साम्राज्य
और शासन काफी
विस्तृत रहा है।दहिया
राजपूतो के गौरव
को दर्शाती एक
प्राचीन किवन्दती प्रचलित है
कि
"चार मे
सियो, जात मे
दहिया।
रण मे
भोमिया,कटै न
अटकै।।"
अर्थात् चारे मे
सियो (स्थानीय भाषा
मे एक घास
का नाम), जाति
मे दहिया, रण
अर्थात् लडाई मे
भोमिया कही भी
कभी भी नही
अटकते है या
पीछे नही खिचकते
है।
बडू ठिकाने
के भादवा गाँव(परबतसर) मे उदय
दहिया कार वि.सं.1087 का प्राचीन
दहियो के शिलालेख
व वि.सं.1122
के दो गोवर्धन
स्तम्भ , दधीचिक विक्रम दहिया(किन्सरिया) का मृत्यु
स्मारक लेख वि.सं.1310, संतोषी दहिया
का मृत्यु स्मारक
लेख, वि.सं.1838,
ईस्वी सन् 1781,भूडवा
गांव तथा ठाकुर
मानसिंह दहिया ठिकाना - रियां(नागौर) संवत् 1719 का
स्मारक लेख, इनके
साथ चार ठाकुरानियाँ
का अग्नि स्नान
करने का स्मारक
लेख प्रकाश मे
आए है।
नैणसी की ख्यात
के अनुसार मध्य
काल मे दहिया
राजपूतो को प्रथम
श्रेणी का दर्जा
प्राप्त था।साथ ही यही
स्पष्ट है कि
36 राजवंशों मे दहिया
वंश भी एक
प्रभावशाली राजवंश है।
दहियावटी का इतिहास
-
संवत् 1212 मे भडियाद
परबतसर के राणा
वाराह दहिया अपने
दल-बल सहित
द्वारकाधीश की तीर्थ
यात्रा पर निकले।बीच
रास्ते मे राणा
वाराह दहिया ने
अपने दल-बल
के साथ जालौर
मे पडाव डाला।राणा
वाराह के साथ
उनकी तीनो रानियाँ
पहली रानी छगन
कुँवर कच्छावाह(नेतल)की,दूसरी
रानी सतरंगा हाडी
रानी(कोटा ) की
और तीसरी रानी
परमा दे चौहान
खिवलगढ़ की भी
थी।(इन रानियों
का उल्लेख राव
समेलाजी की बहियों
से लिया गया
है)।
उस समय
जालौर किले अर्थात्
जाबलिपुर मे परमार
वंशीय राजा कुन्तपाल
परमार का शासन
था।जब राजा कुन्तपाल
परमार की सुदंर
कन्या राजकुमारी अहंकार
दे इच्छित वर
पाने के लिए
भगवान की आराधना
कर रही थी,
उसी समय उनकी
दावदियो(प्राचीन काल मे
राजघरानो मे काम
करने वाली दासीयाँ)ने पानी
भरते समय राणा
वाराह दहिया का
ठाठ बाठ देखकर
राजकुमारी अहंकार दे को
राणा वाराह दहिया
के बारे मे
बताया।राजकुमारी राणा वाराह
दहिया को देखने
को आतुर हो
गयी तथा तत्काल
ही राजकुमारी अहंकार
दे ने राणा
वाराह दहिया का
बखान सुनकर अपने
माता पिता से
राणा वाराह दहिया
से शादी करने
की इच्छा जताई।तब
राजा कुन्तपाल परमार
ने अपनी राजकुमारी
कन्या अहंकार दे
की इच्छानुसार राजा
वाराह दहिया से
बडे धूमधाम से
उसका विवाह कराया।
राजा कुन्तपाल
परमार ने अपनी
राजकुमारी कन्या अहंकार दे
का विवाह राणा
वाराह दहिया से
करवा कर अपने
जमाई राणा वाराह
दहिया को दवेदा(सांथु),चुरा व
मोक तीन गांव
दहेज मे दिए।
कुछ समय
पश्चात् माह आषाढ
सूद 14 शुक्रवार के शुभ
दिन अहंकार दे
की कोख से
राणा वाराह दहिया
को पुत्र रत्न
की प्राप्ति हुई।जन्म
रोहिणी नक्षत्र मे होने
से उस बालक
का नाम रोहिदास
रखा गया।पुत्र बधाई
मे राणा वाराह
दहिया ने गांव
दवेदा(सांथु )पालीवाल
ब्राह्मण को एवं
मोक गांव कनोरिया
ब्राह्मण को दान
मे दिया तथा
स्वयं राणा वाराह
दहिया ने चुरा
गाँव में नये
सिरे से अपना
निवास किया।
इसके कुछ
समय पश्चात् राणा
वाराह दहिया ने
अपने पुत्र के
नाम से चुरा
गांव मे रोहिला
तालाब खुदवाकर उस
पर पक्की पाल
बंधवाई।पक्की पाल के
बावजूद रोहिला तालाब मे
पानी नही ठहरने
का कारण राणा
वाराह दहिया ने
पंडित श्री बलदेव
से पूछा।तब पंडित
श्री बलदेव ने
राणा वाराह दहिया
को अपने स्वयं
के पुत्र की
बलि चढाने का
सुझाव दिया।तब पंडित
श्री बलदेव के
बताए अनुसार राणा
वाराह दहिया ने
अपनी पत्नी अहंकार
दे से सलाह
मशविरा कर उस
तालाब मे हवन
कर गाजे बाजे
के साथ राणा
वाराह दहिया ने
भारी और विचलित
मन से अपने
अपने आप को
ढाढ़स बंधाते हुए
अपने पुत्र की
बलि चढ़ाई।राणा वाराह
दहिया द्वारा अपने
पुत्र की बलि
चढाने के बाद
चूरा गांव के
उस रोहिला तालाब
मे पानी ठहरने
लगा।(आज भी
उस स्थान पर
देवली व शिलालेख
मौजूद है)
उस दिन
के बाद राणा
वाराह दहिया ने
चुरा गाँव को
संकल्प कर हमेशा
के लिए छोड़कर
वापस अपने गाँव
भडियाद परबतसर जाने से
पहले राणा वाराह
दहिया अपने ससुर
राजा कुन्तपाल परमार
को मुजरो देने
के लिए जालौर
गए।तब राजा कुन्तपाल
परमार ने अपने
जँवाई राणा वाराह
दहिया को फरमाया
कि "आपरो घोडो
दिन उगता व
आत्मता जितरी भूमि मातै
फिरैला उतरी आपरी
जागीर वेला।"अर्थात्
आपका घोड़ा दिन
उगने से लेकर
अस्त होने तक
जितनी भूमि पार
करेगा उतनी आपकी
जागीर या रियासत
होगी।
तब राणा
वाराह दहिया अपने
घोड़े पर सवार
होकर निकल पडते
है।इस दरम्यान राणा
वाराह दहिया जालौर
के पास के
जालौर अंचल के
64 खेडे अर्थात् गांव को
दिन उगने से
लेकर अस्त होने
तक अपने घोडे
से पार कर
लेते है।यह सभी
गांव राजा कुन्तपाल
परमार अपने वादे
के मुताबिक राणा
वाराह दहिया को
जागीर के रूप
मे दे देते
है।ये खेडे या
64 गांव ही आगे
चल कर दहियावटी
कहलायी।जो आज भी
दहियावटी के नाम
से सुप्रसिद्ध है।
इन 64 खेडो पर
राणा वाराह दहिया
से लेकर उसकी
सातवी पीढ़ी के
शासक राजा मोताजी
तक एकछत्र एक
ही शासको द्वारा
शासन किया गया।राजा
मोताजी दहिया ने भी
64 खेडो
अर्थात् परांगणो पर शासन
किया।राजा मोताजी दहिया के
12 रानियाँ थी।जिनसे मोताजी दहिया
को 24 पुत्रों की
प्राप्ति हुई।राजा मोताजी दहिया
के बाद इन
खेडो अर्थात् परांगणो
को राजा मोताजी
दहिया के 24 पुत्रों
मे बाटा गया।
राजा मोताजी दहिया के
24 पुत्रों को बंटी
मे मिले गाँवो
का ब्यौरा इस
प्रकार है -
पुत्र नाम
गांवो का ब्यौरा
1-लाखनपाल
- बावतरा,
चौराऊ, जैकांना, मोकणी।
2-संग्राम सिंह - सायला,
तुूूरा, वालेरा, कोमता 1/2,सुअरा।
3-पातलजी- ओटवाला, खरेल, विराणा।
4-रूपसिंह- सूराणा,
गंगावा, पुनावा, कोमता1/2 ।
5-चाहड़(साहड़)- देता,
पुनडाऊ,मोडकुना।
6-गोदा- पोसाना,
ऊनडी,बोरवाडा।
7-मूलदास- आसाणा,थरवाड़, खेखर।
8-सिघराव- ऐलाना,
गोल।
9-सगराव- मुडी,
पहाड़पुरा, तिखी।
10-वीरपाल- नेवलाणा,
डोगरा।
11-जोगराज- केवणा,
कतरांण।
12-रवीकर- पोऊ,
पादरू।
13-भोजराज- खारी,सिराणा, सेदराओ,मगराऊ।
14-करमण- नारवाडा,हरभू, कौरी।
15-खेतसी- आलवाडा, खेतलावा।
16-गोयंदराव- आकूवा,
दूदवा,तिलोडा।
17-मानकराव- मेघवंला,
भूण्ड़वा।
18-जैसिंह- सांगोणा,
ढालू।
19- वजेचन्द- जीवाणा,
दीवू, मंमण।
20-तेजसिंह- कूईप।
21-सुजानसिंह- सांथू।
22-विरचंद- विशाला।
23-बाहड़- कोमता1,
तिलोडा,लोजावा1/2 ।
24-अज्ञात- अज्ञात तीन
खेडे।
गढ़ बावतरा
मे दहियो का
गढ़ होने से
तथा यहा कैवाय
माता मंदिर होने
के कारण इसे
गढ़ बावतरा के
नाम से जाना
जाता है।
यह सभी
आधुनिक समय मे
भी दहियावटी के
नाम से जाने
जाते है।
इतिहासकार - रामदेव सिंह
चौहान जोजा कवलाँ
Jay HO Dahiya Rajputana
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