Aayuvan Singh JI
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परिचय :-
कुँवर आयुवानसिंह शेखावत नागौर
जिले के हुडील
गांव में ठाकुर
पहपसिंह शेखावत के ज्येष्ठ
पुत्र थे आपका
जन्म १७ अक्टूबर
१९२० ई.को
अपने ननिहाल पाल्यास
गांव में हुआ
था । आपका
परिवार एक साधारण
राजपूत परिवार था ।
आपका विवाह बहुत
कम उम्र में
ही जब आपने
आठवीं उत्तीर्ण की
तभी कर दिया
।
शिक्षा व अध्यापन
कार्य :-
राजस्थान के ख्यातिप्राप्त
विद्यालय चौपासनी, जोधपुर में
आठवीं परीक्षा उत्तीर्ण
करने के बाद
आपकी शादी होने
के कारण विद्यालय
के नियमों के
तहत आपको आगे
पढ़ने से रोक
दिया गया पर
आपकी प्रतिभा व
कुशाग्र बुद्धि देखकर तत्कालीन
शिक्षा निदेशक जोधपुर व
चौपासनी विद्यालय के प्रिंसिपल
कर्नल ए.पी.काक्स ने आपको
अध्यापक की नौकरी
दिला ग्राम चावण्डिया
के सरकारी स्कूल
में नियुक्ति दिला
दी ताकि आप
अध्यापन के साथ
साथ खुद भी
पढ़ सकें ।
राजकीय सेवा में
रहते हुए आपने
सन १९४२ में
साहित्य रत्न व्
उसके बाद प्रथम
श्रेणी से हिंदी
विषय में एम.ए व
एल.एल.बी
की परीक्षाएं उत्तीर्ण
की तथा सन
१९४८ में आपने
सरकारी नौकरी से त्याग
पत्र दे दिया।
समाज सेवा के
लिए प्रेरित :-
सन १९४२ के
आरम्भ में ही
आपका परिचय तनसिंह
जी,बाड़मेर से
हुआ । दोनों
के ही मन
में समाज के
प्रति पीड़ा व
कुछ कर गुजरने
की अभिलाषा थी
। इस अभिलाषा
को पूर्ण करने
हेतु एक संगठन
बनाने को दोनों
आतुर थे ।
तनसिंह जी ने
पिलानी में पढते
हुए "राजपूत नवयुवक मंडल"
नाम से एक
संगठन बना आयुवानसिंह
जी को सूचित
किया । इस
संगठन के प्रथम
जोधपुर अधिवेशन (मई १९४५)
में क्षत्रिय युवक
संघ नाम दिया
गया जिसके प्रथम
अध्यक्ष श्री आयुवानसिंह
जी चुने गए
। बाद में
क्षत्रिय युवक संघ
में नवीन कार्यप्रणाली
की शुरुआत की
गयी और आप
इस संघ के
संघ प्रमुख बने
। तथा संघ
के बनने से
लेकर १९५९ तक
क्षत्रिय युवक संघ
से जुड़े रहे
।
रामराज्य परिषद से जुड़
राजनीति से जुड़ाव
:-
देशी रियासतों के विलीनीकरण
व राजस्थान के
निर्माण की घटनाओं
के बाद १९५२
के प्रथम चुनावों
की घोषणा हुई
इससे कुछ समय
पूर्व ही स्वामी
करपात्री जी ने
धर्म-नियंत्रित राजतन्त्र
की मांग के
साथ "रामराज्य परिषद" के
नाम से एक
राजनैतिक पार्टी की स्थापना
की । राष्ट्रिय
स्वयं सेवक संघ
के वर्ण-विहीन
हिन्दुवाद से वर्ण-धर्म की
स्वीकारोक्ति के साथ
धर्म की करपात्रीजी
की बात क्षत्रिय
युवक संघ के
लोगों को अच्छी
लगी और वे
रामराज्य परिषद से जुड़
गए । क्षत्रिय
युवक संघ का
साथ मिलते ही
रामराज्य परिषद का राजस्थान
में विस्तार होने
लगा । इस
बीच कांग्रेसी नीतियों
से असंतुष्ट जोधपुर
के महाराजा को
कर्नल मोहनसिंह जी
के माध्यम से
मुलाकात कर श्री
आयुवानसिंह जी ने
राजनीति में आने
को प्रेरित किया
और महाराजा जोधपुर
ने आपको अपना
राजनैतिक सलाहकार बनाया ।
आपकी सलाह से
महाराजा ने ३३
विधानसभा क्षेत्रों में अपने
लोगों को समर्थन
दिया जिसमे से
३० उम्मीदवार विजयी
हुए । किन्तु
दुर्भाग्य से चुनाव
परिणामों के बाद
महाराजा जोधपुर हनुवंतसिंह जी
का एक विमान
दुर्घटना में देहांत
हो गया ।
राजपरिवारों
को राजनीति की
ओर आकर्षित करना
:-
जोधपुर के महाराजा
को राजनीति में
आने के लिए
प्रेरित करना और
उनकी सफलता के
बाद उनका देहांत
होने के बाद
राजस्थान के अन्य
राजपूत नेता बदली
परिस्थितियों में कांग्रेस
की ओर चले
गए और राजपूत
हितों की रक्षा
करने हेतु फिर
राजनैतिक शून्यता पैदा हो
गयी जिसे पूरी
करने के लिए
आप महाराजा बीकानेर
से मिले पर
वहां आपको सफलता
की कहीं कोई
किरण नजर नहीं
आई अत: आप
जयपुर चले आये
और निश्चय किया
कि जयपुर राजघराने
को आप सक्रिय
राजनीति से जोडेंगे
।
जब चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने
स्वतंत्र पार्टी के गठन
के लिए बम्बई
में पहला अधिवेशन
आयोजित किया तो
आपने बम्बई जाकर
राजगोपालाचार्य जी से
जयपुर की महारानी
गायत्रीदेवी को पार्टी
में शामिल करने
के लिए आमंत्रित
करने के लिए
मना लिया, महारानी
को राजनीति की
ललक आप पहले
ही लगा चुके
थे । राजगोपालाचार्य
जी के आग्रह
पर महारानी स्वतंत्र
पार्टी में शामिल
हो गयी पर
समस्या ये थी
कि वे न
तो हिंदी जानती
थी न भाषण
देना । तब
आपने महारानी को
न सिर्फ हिंदी
का ज्ञान कराया
बल्कि भाषण देने
कि कला भी
सिखाई । आपके
सहयोग और महाराजा
मानसिंह जी के
राजनैतिक कौशल के
बूते महारानी गायत्री
देवी एक कुशल
नेता बन गयी
।
महारानी गायत्री देवी को
राजनीति में लाकर
जयपुर राजघराने को
राजनीति से जोड़ने
के बाद आपने
अपने प्रयासों से
महारावल लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर
को भी राजनीति
में खीच लाये
। इस तरह
से जो राजनैतिक
शून्यता महाराजा जोधपुर के
आकस्मिक निधन के
बाद हो गयी
थी उसे आपने
भर दिया ।
और १९६२ के
आम चुनावों में
भी महारानी गायत्री
देवी को वैसी
ही सफलता मिली
जैसी महाराजा जोधपुर
को १९५२ में
मिली थी ।
भू-स्वामी आंदोलन में
भूमिका :-
महाराजा हनुवंतसिंह जोधपुर के
निधन के बाद
कांग्रेस ने राजनैतिक
तोड़ फोड़ व
प्रलोभन नीति शुरू
कर दी थी
। और जागीरदारी
उन्मूलन अभियान शुरू कर
दिया जिसके चलते
जागीरदार अपना पक्ष
रखने तत्कालीन गृह-मंत्री प.गोविंदबल्लभ
पंत से मिले,
साधारण राजपूतों ने भी
पंत से मिलने
वाले प्रतिनिधि मंडल
में शामिल होने
की मांग की
पर बड़े जागीरदारों
ने उन्हें शामिल
नहीं होने दिया
और उन्होंने पंत
से समझौता कर
लिया इस समझौते
में बड़े जागीरदारों
का मुआवजा बढ़ा
दिया गया और
छोटे राजपूत किसानों
का मुआवजा खत्म
कर दिया गया
। इस तरह
कांग्रेस ने बड़े
जागीरदारों को जो
विपक्ष से चुनाव
जीते थे को
अपने पक्ष में
कर कांग्रेस में
मिला लिया ।
उधर कांग्रेसी सरकार के
जागीरदारी उन्मूलन कानून की
आड़ लेकर आम
छोटे काश्तकार राजपूत
की काश्त की
जमीनों पर भी
किसानों ने कब्जे
करने शुरू कर
दिया परिणाम स्वरूप
गांव-गांव में
जमीन के लिए
राजपूत समुदाय का दूसरें
लोगों से झगड़ा
शुरू हो गए
इन झगडों में
कई हत्याएं हुई
। पर बड़े
राजपूत जागीरदारों व नेताओं
ने छोटे राजपूतों
की कोई सहायता
नहीं की ।
आम राजपूत उस
समय अशिक्षित था
अत:वह कुछ
क़ानूनी कार्यवाही समझने में
भी अक्षम था|
इसी समय सन
१९५४ में आयुवानसिंह
जी क्षत्रिय युवक
संघ के संघ
प्रमुख चुने गए
उन्होंने समाज की
दुर्दशा देख समाज
के प्रबुद्ध लोगों
से संपर्क कर
जागीरदारी उन्मूलन कानून के
खिलाफ आंदोलन करने
का धरातल तैयार
किया । १९५५
में भू-स्वामी
संघ के नाम
से एक संगठन
बनाया गया जिसके
अध्यक्ष ठाकुर मदनसिंह दांता
थे । व कार्यकारी अध्यक्ष आयुवानसिंह
जी को बनाया
गया । १ जून १९५५
को इस संगठन
ने जागीरों की
समाप्ति के विरुद्ध
आंदोलन की घोषणा
कर दी ।
पर थोड़े ही
समय में भू-स्वामी संघ के
अध्यक्ष ठा.मदनसिंह
जी कांग्रेसी चालों
में फंस गए
और उनके समझोता
करने के बाद
आंदोलन खत्म हो
गया ।
पर आयुवानसिंह जी ने
समझोते को क्रियान्वित
नहीं करने का
आरोप लगाते हुए
पुन: संघर्ष का
बिगुल बजा दिया
। इस बार
उन्होंने कांग्रेसी चालों से
बचने के लिए
यथा संभव उपाय
भी कर लिए
थे । इस
बार बाड़मेर के
तनसिंह जी को
आन्दोलन का केन्द्रीय
संचालनकर्ता बनाया गया ।
आंदोलन पुरे राजस्थान
में फ़ैल गया
और करीब तीन
लाख राजपूतों ने
अपनी गिरफ्तारियां देकर
राजस्थान की सभी
जेलें भरदी ।
पच्चीस हजार से
अधिक लोगों को
जेलों में रखने
के बाद बाकि
लोगों को सरकार
ने कड़ाके की
ठण्ड में जंगलों
में ले जाकर
छोड़ दिया ।
एक तरफ आंदोलन
अपने चरम था
आयुवानसिंह जी सहित
सभी नेता जेलों
में बंद थे
। उसी समय
आयुवानसिंह जी ने
जेल जाने से
पहले महाराजा जयपुर
को एक पत्र
के माध्यम से
पूरी वस्तुस्थिति की
जानकारी देते हुए
राजप्रमुख के नाते
प्रधान मंत्री नेहरु से
वार्ता करने का
आग्रह किया था
। साथ ही
एक दल ने
दिल्ली पहुँच तत्कालीन केन्द्रीय
मंत्री सत्यनारायण सिंह से
मुलाकात कर उन्हें
प्रधानमंत्री से मिलवाने
का आग्रह किया
। मिलने पर
पूरी वस्तुस्थिति सुन
प्रधानमंत्री ने दल
को कार्यवाही करने
का आश्वाशन दिया
और राजप्रमुख से
बात की ।
राजप्रमुख जयपुर महाराजा ने
भी आयुवानसिंह जी
के पत्र को
पढ़ने के बाद
राजपूत आंदोलनकारियों का पक्ष
लिया व राज्य
सरकार पर राजपूतों
के उत्पीडन का
आरोप लगाया ।
उनकी बात सुनकर
प्रधानमंत्री ने आंदोलनकारियों
को दिल्ली बुलाया,
बैठक में आयुवानसिंह
जी द्वारा मेमोरेंडम
पढकर सुनाया गया
जिसमे जिस भावनात्मक
ढंग से भू-स्वामियों का पक्ष
रखा गया था
उसे सुनकर प.नेहरु द्रवित हो
गए । और
उन्होंने कहा-"मैं राजपूतों
के साथ अन्याय
नहीं होने दूँगा
। और इसके
बाद नेहरु ने
भू-स्वामियों की
मांगों को मानते
हुए आंदोलन समाप्त
करवाने हेतु "नेहरु अवार्ड"
की घोषणा कर
आंदोलन समाप्त कराया ।
नेहरु अवार्ड के
तहत राजपूतों को
कई रियायते व
नहरी क्षेत्र में
जमीनें दी गयी
। पूर्व ठिकानों
के कर्मचारियों की
पेंशन जारी रखी
। जिला स्तर
पर जागीरदारों के
केसों का निपटारा
करने के लिए
जागीर कार्यलय खोले
गए ।
जेल जीवन :-
भू-स्वामी आंदोलन के
दौरान ही आयुवानसिंह
ने भी मार्च
१९५६ में जोधपुर
में जालोरी गेट
के पास स्थित
जाड़ेची जी के
नोहरे में अपनी
गिरफ्तारी दी ।
पर वार्ता के
लिए दिल्ली बुलाने
के बाद आपको
कार्यकारिणी के ११
सदस्यों के साथ
१५ दिन के
पैरोल पर ११
अप्रेल १९५६ को
जेल से रिहा
कर दिया गया।
प्रधानमंत्री से मिलने
के बाद उनसे
आश्वाशन मिलने के बाद
आंदोलन समाप्ति घोषणा के
बाद पैरोल की
अवधि खत्म होने
के बाद रिहा
हुए सभी लोग
वापस जेल चले
गए पर आपने
पुन: जेल जाने
के लिए मना
कर दिया पर
प.नेहरु द्वारा
भेजे गए वरिष्ट
नेता रामनारायण चौधरी
के आग्रह पर
आप १० जून
१९५६ को वापस
जेल चले गए।
समझौता होने व
आंदोलन समाप्ति की घोषणा
के बाद भी
राज्य की कुंठित
कांग्रेसी सरकार ने अपनी
दमन नीति के
तहत भू-स्वामियों
को एक माह
बाद तक जेलों
में बंद रखा।
सभी कैदियों को
छोड़ने के बाद
भी आयुवानसिंह को
जेल से रिहा
नहीं किया गया।
सरकार की नियत
भांपकर जब आयुवानसिंह
जी ने सुप्रीम
कोर्ट में रिट
लागने को अपने
वकील के पास
कागजात भेजे तब
इसका पता चलते
ही राज्य सरकार
ने १ अगस्त
१९५६ को आपको
तुरंत रिहा कर
दिया ।
आपकी प्रकाशित पुस्तकें :-
१- मेरी साधना
२-राजपूत और भविष्य
३-हमारी ऐतिहासिक भूलें
४- हठीलो राजस्थान
५-ममता और
कर्तव्य
६-राजपूत और जागीरें
अंतिम समय :-
अत्यधिक श्रम के
कारण आपका स्वास्थ्य
गिरने लगा। कुछ
वर्षों तक आपने
जयपुर रहकर अपना
इलाज करवाया पर
रोग बढ़ने के
चलते, बाद में
आप इलाज के
बम्बई गए तब
पता चला कि
आपको कैंसर है
और वह अंतिम
स्तर पर जिसका
इलाज भारत में
संभव नहीं। यह
पता चलते ही
महारानी गायत्री देवी ने
विदेश में जाकर
इलाज कराने की
बात कही साथ
ही विदेश में
इलाज पर होने
वाले सभी खर्चों
को महारानी ने
वहन करने की
खुद जिम्मेदारी ली
। पर आपने
कहा-"मैं अपने
ही देश में
अपने गांव में
देह त्यागना चाहता
हूँ।" कुछ वर्षों
तक रोग की
भयंकर वेदना सहन
करने के बाद
आपने अपने गांव
हुडील में ७
जनवरी १९६७ को
देह त्याग दी।
आपके निधन से
एक वृद्ध पिता
ने अपना होनहार
पुत्र खोया,पत्नी
ने अपना पति
खोया, चार अल्पवयस्क
पुत्रों व तीन
पुत्रियों ने अपना
पिता खोया व
समाज ने खोया
अपना महान हितचिन्तक,
एक संघर्षशील व्यक्तित्व,
एक आदर्श नेता,
एक सुवक्ता, एक
क्रांतिदर्शी विचारक, एक उत्कृष्ट
लेखक, एक निस्वार्थ
समाज सेवक व
श्री क्षत्रिय युवक
संघ ने खोया
अपने मास्टर को
।
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