Headlines
Loading...
प्रस्तावना : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)
इस पुस्तक का उद्देश्य राजपूत जाती और उसके द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए एक महान और उज्जवल भविष्य का निर्माण करना है | इस महँ भविष्य की अधर -शिला अतीत और वर्तमान काल का ऐतिहासिक घटना -क्रम रखा गया है | अतीत और वर्तमान काल की सामाजिक मनोवृत्ति , ऐतिहासिक घटनावली और उनके स्वाभाविक वकास-क्रम का सम्यक रूप से दिग्दर्शन कर लेने के उपरांत ही भावी कार्यक्रम की रुपरेखा तयार की जा सकती है | इस लिए अद्याय ,, और में अतीत और वर्तमान की इस विषय से सम्बंधित घटनावली का दर्शन कराया गया है |अध्याय और में वह कच्ची सामग्री है जिसके आधार पर भावी महल का निर्माण होना है | अध्याय में उस आदर्श नेतृत्व के गुणों और विशेषताओं पर विचार किया गया है जिसके द्वारा महान भविष्य का निर्माण संभव है ,तथा अध्याय १० में मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और विरोध का महत्वांकन किया गया है | अध्याय ११ और १२ में ध्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ रचनात्मक पहलूवों और प्रणाली पर विचार किया गया है |इस प्रकार पुस्तक की समस्त सामग्री इसके वर्ण्य -विषय _ अध्याय और ) के चरों ओर चक्कर कटती हुई किसी किसी रो में उसी विषय की ओर उन्मुख हुई है |

अध्याय और में राजपूत जाती के कर्तव्य का शास्त्रीय ,राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक दिर्स्तिकों से विवेचन किया गया है |किसी भी जाती के पतन के मूल कारन अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य की विश्मृति के रूप में ही देखा जा सकता है | मनुष्य का यही स्वाभाविक कर्तव्य उसका धर्म है |महाभारतकार के सब्दों में -

"धर्म एव हटो हन्ति ,धर्मों रक्षति रक्षितः |
तस्माद्धर्म नाट्य जामि,माँ नो धर्मों हतोव्वाधित ||"


(धर्म ही आहात (परित्यक्त ) होने पर मनुष्य को मरता है और वही रक्षित (पालित ) होने पर रक्षा करता है , अतः मैं ,धर्म का त्याग नहीं करता -इस भय से कही मर (त्यागा हुआ ) हुआ धर्म ,हमारा ही वध कर डाले |

पिछले सैकड़ों वर्षों से राजपूत जाती के साथ भी ऐसा ही हो रहा है |एक पतोंमुखी जाती को उसके सामाजिक कर्त्तव्य और उसकी सामाजिक उपयोगिता का ज्ञान कराना उत्थान की पहली शर्त है |स्वधर्म -पालन ही हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो सकता है | यही स्वधर्म क्षत्रियों के लिए क्षत्र -धर्म है और इसी क्षत्र -धर्म का पालन करना हमारा सामाजिक कर्त्तव्य है |इसी सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति के अंतर्गत सामाजिक ध्याय की प्राप्ति निहित है |

ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाओं का नाम ही क्रांति है| राजनैतिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली राजनैतिक चेष्टाएँ राजनैतिक क्रांति और सामाजिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाएँ सामाजिक क्रांति कहलाती है| क्षात्र-धर्म एक राजनैतिक ध्येय है और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भी| राजनैतिक ध्येय की प्राप्ति के लिए राजनैतिक क्रांति आवश्यक है, राजनैतिक क्रांति तक पहुंचना और समाज को उसके लिए तैयार करना सरल कार्य नहीं है| राजनैतिक क्रांति के पूर्व, सामाजिक-क्रांति आवश्यक है और सामाजिक-क्रांति के भी पूर्व विचार-क्रांति आवश्यक है, अतएव विचार-क्रांति का प्रथम सोपान है| जो व्यक्ति इन दोनों अवस्थाओं को पार किये बिना ही राजनैतिक-क्रांति का प्रयास करते है, उन्की असफलता निश्चित समझनी चाहिये|

सामाजिक-ध्येय की प्राप्ति के पूर्व सामाजिक को अनुकूल सांचे में ढालना आवश्यक है| सामाजिक जीवन को नये सांचे में ढालने का तात्पर्य है पुराने संस्कारों की भूमिका पर नये सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना| नये सामाजिक संस्कारों के निर्माण के पूर्व सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है| दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया का नाम ही विचार अथवा दार्शनिक क्रांति है| अतएव किसी भी प्रकार की सामाजिक-क्रांति का आव्हान करने के पूर्व हमें अपने दृष्टिकोण को सब दिशाओं से हटा कर केवल एक ही केंद्र की और लगा देना चाहिये और वह केंद्र है हमारा ध्येय| राजनैतिक ध्येय के रूप में क्षात्र-धर्म का पालन करने के सिद्धांत को प्रभावशाली और व्यावहारिक बनाने के लिए राज्य-सत्ता की प्राप्ति आवश्यक है| सबसे पहले राज्य-सत्ता की प्राप्ति के लिए जो कार्य करना है वह है केवल राजपूत जाति के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना| प्रत्येक राजपूत को प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक कार्य करते समय केवलमात्र यही ध्यान में रखना है कि शासन करना हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है और इसीलिए हमें प्रत्येक संभव वैध उपाय द्वारा राज्य सत्ता पर अधिपत्य करना है| इस प्रकार के दृष्टिकोण के निर्माण की प्रक्रिया का नाम ही विचार-क्रांति है| कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस दिन सम्पूर्ण जाति की विचारधारा में इस प्रकार का महत्त्वशाली परिवर्तन जायेगा, उसी दिन विचार-क्रांति पूरी होकर सामाजिक और राजनैतिक-क्रांति के लिए अपने आप मार्ग खुल जायेगा| इस समय केवल मात्र अपने दृष्टिकोण को इस ध्येय की और लगाने की आवश्यकता है|

समाज में इसी प्रकार की विचार-क्रांति लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है|

राजपूत जाति के अब तक के भौतिक अध:पतन और उसकी मानसिक पराजय का पर्यवसान, उसकी आत्म-दुर्बलता और निराशामूलक मनोदशा के रूप में हुआ है| इसी निराशामूलक मनोदशा के परिणाम-स्वरूप पराजित मनोवृति व्यापक रूप से घर कर गई है| वीरता, दृढ़ता, धैर्य, कार्य-शक्ति, प्रयत्न, सच्चाई और महान गुणों के प्रति लोगों का विश्वास उठ रहा है और अवसरवादिता, स्वार्थ-साधन, कायरता, असत्य आदि आत्म-पतनकारी दुर्गुणों का दिनोंदिन समाज में जोर बढ़ रहा है| यह स्थिति वास्तव में ही भयावह है| इससे अनैतिकता की सृष्टि होती है और इसी अनैतिकता से नैतिक पतन आदि सब प्रकार की अधोगति होती है|

इस चतुर्मुखी पतन को रोकना का पहला उपाय है समाज को निश्चित, प्रगतिशील और सब दृष्टियों से कल्याणकारी ध्येय और वास्तविक कर्तव्य का ज्ञान करा देना| यही एक मात्र उपाय है जिसके द्वारा यह चतुर्मुखी पतन रोका जा सकता है| इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए यह पुस्तक लिखी है|

सामाजिक उत्थान और प्रगति का आधार सामाजिक ध्येय ही हो सकता है| बिना ध्येय के सामाजिक प्रगति का प्रयास केवल अँधेरे में भटकने के सदृश निरर्थक है| यह ध्येय जितना व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगा, प्रगति भी उतनी ही व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगी| इस पुस्तक द्वारा राजपूत जाति को इसी प्रकार के ध्येय का ज्ञान कराने की चेष्टा की गई है|

विषय के अनुरूप ही इस पुस्तक की शैली अधिकांशतया विश्लेषणात्मक हो गयी है, जिससे भाषा कुछ कठिन और अभिव्यक्ति वक्र बन गई है| इस प्रकार के विषय के प्रतिपादन के लिए इसी प्रकार की शैली की आवश्यकता है| फिर भी विषय को अधिक स्पष्ट, ग्राह्य और सरल बनाने की कोशिश भी की गई है| ऐसा करने में कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी हुई है, पर साधारण शिक्षित पाठकों की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की पुनरुक्ति भी आवश्यक समझी गई है| आशा है इन सब कठिनाइयों के लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे|

लेखक राजस्थान के राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक वातावरण से अधिक परिचित है| अतएव सामयिक राजनीति आदि विषयों का विवेचन करते समय यहाँ के वातावरण को मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया है और यहाँ के वातावरण को ध्यान में रखते हुए ही कई सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है| यदि अन्य राज्यों में राजपूतों की स्थिति कुछ भिन्न तथा घटना-चक्र का विकास कुछ भिन्न परिस्थतियों और रूपों में हुआ हो तो पाठक कृपया मुझे सूचित करें| अपने इसी अल्प अनुभव को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी समालोचना का आधार राजस्थान के वातावरण को ही मुख्य रूप से बनाया है, तथा यहाँ के जीवन से अधिक उदाहरण दिए है|

इस पुस्तक में वर्णवाद अथवा जातिवाद के आधार पर मुख्य रूप से विकासवाद और घटना-चक्र का विश्लेषण किया गया है| यह सब घटना-चक्र को आसानी से समझाने और इस पुस्तक में वर्णित ध्येय के प्रति अनुकूल शैली का निर्माण करने के लिए किया गया है| अंत में आकर इसी जाति अथवा वर्ण को वर्गवाद के रूप में बदल दिया गया है| यह इसलिए नहीं कि लेखक का वर्गवाद में है, वरन इसलिए कि वर्गवाद का अस्तित्त्व वर्तमान समाज की आवश्यकता हो गई है| अतएव समाज की उपलब्ध सामग्री को ही संवार कर हमें भावी भवन का निर्माण करना है| लेखक का दृढ़ विश्वास है कि सब प्रकार की वर्ग-घृणा को समाप्त कर विशुद्ध वर्ण व्यवस्था की पुनर्स्थापना से ही राष्ट्र का कल्याण हो सकता है| इस उद्देश्य का इस पुस्तक में सर्वत्र ध्यान रखा गया है| इस वर्ण व्यवस्था के रूढिगत दुर्गुणों का परिहार कर उसे अधिक वैज्ञानिक बनाने की आवश्यकता है| इसीलिए इस विषय में जो नवीन कल्पनाएँ की गई है उन्हें शास्त्रों का उलंघन नहीं समझना चाहिये| जो कुछ भी परिवर्तन करना है, वह केवल नीति वश वरन आवश्यक भी करना है, इसलिए इस परिवर्तन का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक और शाश्वत सिद्धांतों को समझने के साथ-साथ आज की राजनैतिक आवश्यकता को भी समझना आवश्यक है|

इस पुस्तक की मूल प्रति लिखे हुए लगभग तीन वर्ष हो चुके है| इन तीन वर्षों में राजपूत जाति की मनोदशा और परिस्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है| यदि यह पुस्तक पहले प्रकाशित हो जाती तो इस परिवर्तन के स्वरूप की रुपरेखा निर्माण करने में काफी सहायता मिलती, पर आर्थिक कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो सका| एक दिन दैवयोग से राजस्थान क्षत्रिय-महासभा के अध्यक्ष राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय तथा प्रोफ़ेसर मदनसिंह जी के समक्ष कुं. सवाई सिंह धमोरा ने इस पुस्तक की बात चलाई| तदुपरांत इन दोनों महानुभावों ने इस पुस्तक के कुछ अध्यायों को कुं. सवाईसिंह धमोरा से पढ़वाकर सुना| यह पुस्तक उन्हीं दोनों महानुभावों के परिश्रम, उनकी प्रेरणा, सहायता, विषय-मर्मज्ञता और भावुकता के परिणाम-स्वरूप ही पाठकों के सम्मुख सकी है| यही नहीं, राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय ने तो इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया है; वे इस पुस्तक के प्रकाशक है| इनके अतिरिक्त ठा.साहब केसरीसिंह जी पटौदी और ठा.साहब श्री सज्जनसिंह जी देवली ने भी इस पुस्तक के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण योग दिया है| मैं अभी तक यह निर्णय ही नहीं कर सका हूँ कि इन महानुभावों द्वारा मेरे प्रति बताई गई इस सहृदयता और सदभावना का प्रतिकार मैं किस रूप में दूँ| मैं समझता हूँ, प्रतिकार के रूप में इस कृपा के लिए धन्यवाद देना पर्याप्त है और ही उचित ही|

इस अवसर पर मैं साधना प्रेस जोधपुर के अनुभवी और कार्यकुशल व्यवस्थापक श्री हरिप्रसादजी पारीक को नहीं भूल सकता| इतने कम समय में और इस रूप में पुस्तक-प्रकाशन का समस्त श्रेय इन्हीं को है|

इस पुस्तक के लिखने में जिन ज्ञात अज्ञात विद्वानों के विचारों से सहायता ली गई है, उन सभी के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ|

मैं इस प्रयास में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, कह नहीं सकता| इस पुस्तक द्वारा समाज की विचारधारा में यदि तनिक भी क्रांति जाये तो अपने परिश्रम को सफल समझूंगा|

कुं.आयुवानसिंह, हुडील

जोधपुर संवत २०१४

0 Comments:

It is our hope that by providing a stage for cultural, social, and professional interaction, we will help bridge a perceived gap between our native land and our new homelands. We also hope that this interaction within the community will allow us to come together as a group, and subsequently, contribute positively to the world around us.