Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-1
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-2
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-3
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-2
अकबर का चितौड़गढ़ में आक्रमण
जब प्रताप
14 वर्ष के थे
तब मुहम्मद जल्लालुद्दीन
अकबर ने 13 वर्ष
की उम्र में
दिल्ली का सम्राट
बना. उस समय
वो बहुत छोटा
था इसलिए बैरम
खान की संरक्षण
में वो दिल्ली
की राजगद्दी संभाला.
राजपूताने को जीतना
शुरू से ही
उसकी ख्वायिश थी.
सम्राट बनते ही
उसने आमेर के
कछावा राजाओं से
संधि कर ली
और फिर शीघ्र
ही महाराणा उदय
सिंह के पास
प्रस्ताव भेज दिया
की वो मुग़ल-सत्ता की अधीनता
को स्वीकार कर
ले. महाराणा उदय
सिंह ने इस
संधि का जवाब
बहुत ही कड़े
शब्दों में दिया
और जवाब में
लिख दिया की
हम कभी किसी
विदेशी ताकत के
आगे नहीं झुक
सकते है. इससे
क्रोधित होकर अकबर
ने 20 अक्टूबर सन
1567 एक बड़ी विशाल
सेना लेकर बैरम
खान के नेतृत्व
में चितौड़ पर
आ धमका. चितौड़
को मुग़ल सेना
ने चारों ओर
से घेर लिया
गया इसके बावजूद
मुग़ल सेना चितौड़
के अन्दर न
घुस पायी, मैं
आपको बता देना
चाहूँगा की चितौड़
का किला सबसे
बड़ा किला माना
जाता है. 6 महीने
तक महाराणा उदय
सिंह, प्रताप और
समस्त चितौड़गढ़ के
सेना ने बड़े
ही वीरता के
साथ मुगलों को
सामना किया. परन्तु
राशन पानी बंद
हो जाने के
कारण उदय सिंह
मुगलों का ज्यादा
देर तक सामना
न कर सके
लगभग 6 महीने की भीषण
संग्राम के बाद
23 फरवरी को उदय
सिंह को समस्त
परिवार के साथ
चितौड़ छोड़ना पड़ा,
उन्होंने पहाड़ियों से घिरे
सुरम्य स्थल उदयपुर
को अपनी राजधानी
बनाया और फिर
वहीँ रहने लगे.
एक दिन महाराणा
उदयसिंह अपने पुत्र
प्रताप के साथ
उदयपुर की वादियों
में टहलने निकले
दोनों सफ़ेद घोड़े
पर सवार थे.
महाराणा उदय सिंह
का शरीर ज्यादा
स्वस्थ नहीं दिखाई
दे रहा था,
वो लम्बे समय
से बीमार थे,
चितौड़गढ़ में अकबर
का कब्ज़ा, राजपूतानियों
का जौहर, और
30,000 मासूम नागरिकों की निर्मम
हत्या ने उदय
सिंह को अन्दर
से झकझोर दिया
था,जिसका इतिहास
उदय सिंह के
चेहरे में साफ़
साफ़ देखा जा
सकता था. प्रताप
युवा थे, प्रदीप्त
सूर्य की तरह
उनका चेहरा दैदीप्यमान
था. घोड़े पर
सवार कुंवर प्रताप
साक्षात् देव लग
रहे थे. घने
जंगल में उदय
सिंह ने अपना
घोडा रोका और
उतर गए, प्रताप
भी घोड़े से
उतर गए. उदयसिंह
ने सूर्य की
किरणों को देखते
हुए कहा की
हम राजपूतों का
जीवन मातृभूमि की
रक्षा करने के
लिए होता है,
हम इसकी रक्षा
अपने प्राण का
न्योछावर कर के
भी करते है,
तुम जानते हो
की मुग़ल सम्राट
अकबर की नजर
पुरे मेवाड़ में
है. इसपर प्रताप
ने कहा की
आप चिंता न
करे पिताजी आपके
पुत्र प्रताप की
भुजा में इतनी
शक्ति है की
वो हर उस
शत्रु का सामना
कर सकता है
जो मेवाड़ पर
अपनी बुरी दृष्टी
डालेगा. इसपर उदयसिंह
ने कहा की
मुझे मालूम है
बेटे, पर आजकल
हम राजपूतों का
दिन कुछ अच्छा
नहीं रहा है,
राजपूताने के कई
राज्य अकबर से
जा मिले है,
और तुम्हारा बूढ़ा
पिता भी अपने
कई नागरिकों को
नहीं बचा पाया,
प्रताप ने कहा
की आप धैर्य
रखिये पिताजी मैं
प्रण करता हूँ
की जब तक
मैं शत्रु से
उस महाविनाश का
बदला नहीं ले
लूँगा, तब तक
चैन से नहीं
बैठूँगा. इसे देख
कर उदय सिंह
के आँखों में
आंसू आ गए,
उन्होंने कहा की
पर “प्रताप तुम्हारे
छोटे भाई जगमाल
और शक्ति सिंह
दोनों ही तुमसे
आयु के साथ
साथ बुद्धि में
भी छोटे है
मुझे दर है
की कहीं मेरी
मृत्यु के बाद
शिशोदिया वंश…….” प्रताप ने
कहा की नहीं
नहीं पिताजी मैं
अपने विवेक के
साथ उन दोनों
को अपने साथ
बांधने का प्रयत्न
करूँगा. उदय सिंह
की हालत अब
और भी खराब
हो गयी थी
वो अपने घोड़े
पर बैठे और
वापस अपने महल
की ओर वापस
चले गए. महल
पहुँचने पर छोटी
रानी भटियानी ने
उदय सिंह का
स्वागत किया और
उन्हें अपने कक्ष
में ले गयीं.
और वहां पर
उन्होंने अपने छोटे
बेटे जगमाल को
राजा बनानें की
इच्छा व्यक्त कर
दी.
उदय सिंह को पहले से ही यह एहसास था की छोटी रानी जगमाल को राजा बनाना चाहती है, परन्तु आज छोटी रानी ने उदय सिंह को इस प्रकार से घेर लिया था की उससे उनका चैन और सुख जाता रहा, वे परेशान हो गए और अंततः जगमाल को उतराधिकारी घोषित करना पड़ा. उसके उतराधिकारी बनने के कुछ दिन बाद ही महाराणा उदय सिंह स्वर्ग सिधार गए. जिसने भी यह सुना की जगमाल मेवाड़ का उतराधिकारी है वह उदय सिंह की आलोचना करने लगा. सारे प्रजा में निराशा की लहर दौड़ गयी. परन्तु प्रताप ने इसका जरा भी विरोध नहीं किया उन्होंने अपने पिता के फैसले का सम्मान किया और जगमाल को मेवाड़ का नया राणा बनने में ख़ुशी जाहिर किया.
उदय सिंह को पहले से ही यह एहसास था की छोटी रानी जगमाल को राजा बनाना चाहती है, परन्तु आज छोटी रानी ने उदय सिंह को इस प्रकार से घेर लिया था की उससे उनका चैन और सुख जाता रहा, वे परेशान हो गए और अंततः जगमाल को उतराधिकारी घोषित करना पड़ा. उसके उतराधिकारी बनने के कुछ दिन बाद ही महाराणा उदय सिंह स्वर्ग सिधार गए. जिसने भी यह सुना की जगमाल मेवाड़ का उतराधिकारी है वह उदय सिंह की आलोचना करने लगा. सारे प्रजा में निराशा की लहर दौड़ गयी. परन्तु प्रताप ने इसका जरा भी विरोध नहीं किया उन्होंने अपने पिता के फैसले का सम्मान किया और जगमाल को मेवाड़ का नया राणा बनने में ख़ुशी जाहिर किया.
जगमाल का उत्ताराधिकारी घोषित करना
मेवाड़ की सारी
प्रजा और सभी
राजपूत युवक और
सामंत जिनकी भुजा
राणा उदय सिंह
में हुए आक्रमण
का बदला लेने
के लिए मचल
रही थी उनको
प्रताप का राणा
न बन पाने
की फैसला बिलकुल
भी अच्छी नहीं
लग रही थी.
पर वो सभी
महल की राजनीती
के विरुद्ध नहीं
जा पाए. प्रताप
के मन में
अपने पिता के
प्रति अपार श्रद्धा
और आदर था,
और साथ ही
उनके मन में
अपने पुरे परिवार
के प्रति सदभाव
था इसलिए जगमाल
का उन्होंने जरा
भी विरोध न
किया, बल्कि उन्होंने
अपने सारे सामंत
को अच्छी तरह
से समझा बुझा
कर जगमाल के
साथ कर दिया.
रानी भटियानी प्रताप
की शोर्य और
सामंतों के बीच
उनके प्रभावों से
भली भांति परिचित
थी, उसे सर
था की प्रताप
कहीं जगमाल से
राज्गद्दी न छीन
ले, इसलिए रानी
भटियानी ने जगमाल
को सावधान कर
दिया था की
वो प्रताप से
जरा संभल कर
रहे. जगमाल किसी
भी कीमत में
मेवाड़ की गद्दी
संभालने योग्य न था,
वो भोग विलास
में सदैव डूबा
रहता था, जगमाल
प्रताप की मदद
से अपने सभी
कमजोरियों को दूर
कर सकता था
पर जगमाल प्रताप
को अपने पास
तक भटकने नहीं
देता, हर बात
में प्रताप को
निचा दिखाना और
अपने राणा होने
का गलत फायदा
उठाना अब तो
जगमाल के लिए
ये आम बात
हो गयी थी.
वो खुद अपने
देवता सामान बड़े
भाई प्रताप को
शक की नजरों
से देखने लगा
था. जगमाल की
राजनितिक सूझ-बुझ
कमजोर थी, राज
काज को संभालने
एवं व्यक्ति को
परखने वाली पैनी
नजर उसमे बिलकुल
भी न थी,
वो अब केवल
अपने आप को
बहुत महत्व देने
लगा था. अपने
सभी विशेष सामंतों
की अनसुनी करना
और केवल अपने
फैसले में ही
अटल रहना उसकी
खूबी बनती चली
गयी. कई पुराने
सामंत उससे असंतुष्ट
रहने लगे. प्रताप
अपने स्तर से
राज्य की स्थिति
को संभालने में
प्रयासरत थे. पर
जब उन्होंने देखा
की राज्य की
भविष्य अब अंधकारमय
हो चूका है
तो उन्होंने एक
बड़े भाई के
अधिकार से जगमाल
को समझाने जा
पहुंचे. जगमाल ने प्रताप
को देखकर उपरी
तौर से पूरा
आदर दिखाया. प्रताप
ने जगमाल को
समझाया की राज्य
का बोझ अकेले
नहीं उठाया जा
सकता इसके लिए
उसे सरदारों के
राय की आवश्यकता
पड़ती है इसलिए
तुम्हे पुराने सरदारों के
साथ विश्वास को
बनाये रखना चाहिए
और उनका पूरा
पूरा समर्थन और
सम्मान देना चाहिए,
इतना कहकर प्रताप
चले गए. इस
बारे में जगमाल
ने अपने कुछ
चापलूस सामंतों के साथ
विचार-विमर्श किया,
उन्हें लगा की
अगर जगमाल ऐसा
करेगा तो उनकी
सत्ता खतरे में
पद जाएगी, इसलिए
उन्होंने जगमाल को अपने
ही तरीकों से
समझाने लगे, की
अगर राणा आप
है तो आपकी
ही आदेश को
सबको माननी पड़ेगी,
प्रताप को इस
मामले में हस्तक्षेप
न करने दे
अन्यथा आपका राज
वो आपसे छीन
लेगा. अंत में
निश्चय यह हुआ
की पुराने सरदारों
का असंतोस स्वाभाविक
नहीं है उन्हें
प्रताप ने अवश्य
उकसाया होगा, और उन्हें
महत्व देने के
पिछे प्रताप की
ही कोई चाल
होगी. जगमाल ने
अपने चापलूस सामंतों
से कहा की
राजनीती कहती है
की शत्रु सर
उठाये उससे पहले
ही ……..उसका सर
कुचल देना चाहिए.
माँ ठीक कहती
है प्रताप मेरा
भाई नहीं राजनितिक
शत्रु है, आखिर
मैंने उसका अधिकार
छिना है वो
चैन से कैसे
बैठ सकता है.
इतना कहकर जगमाल
ने अपने दूत
को भिजवा कर
तुरंत ही प्रताप
को बुला भेजा.
उसने प्रताप से
कहा की मेवाड़
का राणा मैं
हूँ आप नहीं,
आपको मेरे राज
काज में कोई
आपत्ति न ही
हो तो अच्छा
है, इतनी कर्कश
शब्दों को सुनकर
प्रताप चिल्लाये “जगमाल” और
उनका हाथ तलवार
तक चला गया
पर जल्द ही
उन्होंने अपने आप
को संभाल लिया.
जगमाल ने कहा
“चीखो मत प्रताप
सिंह जो मैं
कहता हूँ उसे
ध्यान से सुनो-मेवाड़ का राणा
होने के हैसियत
से मैं ये
आदेश देता हूँ
की तुम अभी
इसी वक़्त मेवाड़
की सीमा से
बाहर चले जाओ.
अर्थात “मातृभूमि से निर्वासन”
हाँ तुमने सही
सुना मातृभूमि से
निर्वासन, प्रताप की भुजाये
भड़क उठी, उनके
दोनों नेत्र लाल
हो गयी, एकाएक
उनकी दाहिने हाथ
उनके कमर में
बंधी तलवार तक
पहुंची, उनके तलवार
में हल्का सा
खिचाव भी पड़ा
पर तलवार निकलते
निकलते रह गयी,
किसी तरह प्रताप
ने अपने अपमान
की घूंट को
पीकर रह गए.
प्रताप एक सच्चे
राजपूत थे, अगर
उन्हें अपमान और मौत
में से चुनाव
करना होता तो
वो मौत ही
चुनाव करते पर
आज कुछ स्थिति
ही दूसरी थी,
क्या वो अपने
भाई से बदला
लेते ये उनके
संस्कार के अनुकूल
नहीं था इसलिए
प्रताप वहां से
चुपचाप चले गए.
प्रताप बहुत ही
विवेकी और आशावादी
थे इसलिए उन्होंने
जगमाल का तनिक
भी विरोध न
किया. प्रताप का
मातृभूमि से निर्वासन
की खबर सारे
मेवाड़ में आग
की तरह फ़ैल
गयी. सारी प्रजा
जगमाल के विरुद्ध
हो गयी. प्रताप
को दण्डित करने
का अर्थ था
की मेवाड़ की
जनता को दण्डित
करना. प्रताप की
ख्यति उस समय
तक भारतवर्ष के
कोने कोने तक
पहुँच चुकी थी,
एक मात्र राजपूत
जिसने न केवल
अकबर के सामने
घुटने न टेके
बल्कि अकबर की
विशाल सेना की
भी कई दिनों
तक दांत खट्टे
कर के रख
दिए और भी
कई सारी खूबियों
के कारण प्रताप
बहुत प्रचलित हो
चुके थे इसलिए
उनमे न केवल
राजपूत जाती और
मेवाड़ की ही
नजरें टिकी थी
वरन सम्पूर्ण भारतवर्ष
के अकबर अधीन
राजाओं की नजर
भी थी और
इस तरह से
उनका घोर अपमान
कर निर्वासन कर
देना किसी तरह
से क्षमा योग्य
न था. अकबर
के सेना चित्तोडगढ
में अभी भी
मुग़ल ध्वज लहराए
हुए है और
इस दुखद समय
में एक और
झटका मेवाड़ के
जनता कभी में
इसे स्वीकार नहीं
करेगी. सारे मेवाड़
के लोग हड़ताल
करने लगे और
जगमाल को बुरा
भला कहने लगे.
कई सामंत भी
जगमाल के विरुद्ध
हो गए.
प्रताप के निर्वासन
की खबर सुन
कर पुरे मेवाड़
नगरी की प्रजा
में आक्रोश से
भर गयी, कई
लोग प्रताप की
गुणगान करते नही
थक रहे थे।
कुछ गाँव वाले
अपने में बात
कर रहे थे
की प्रताप ही
मेवाड़ के असली
महाराणा है, उदय
सिंह छोटी रानी
भटियानी से ज्यादा
प्यार करते थे
इसलिए जगमाल को
राजा बना दिया
जो की दिन
भर नशे में
धुत रहता है।
इसपर दुसरे गाँव
वाले ने कहा
की सही कहा
उस दिन 6 मुग़ल
सैनिक हमारी गाँव
के एक लड़की
के साथ दुष्कर्म
कर रहे थे
तभी प्रताप वहां
पहुँच कर अकेले
ही उन छः
मुग़ल सैनिकों से
भीड़ गए और
उसका संहार कर
उस लड़की की
इज्जत को बचाया।
इतना सुनते ही
दुसरे व्यक्ति ने
कहा की हाँ
हाँ सही कह
रहे हो एक
दिन मेरी बैल
गाडी खेत में
कीचड़ में फंस
गयी थी कितनी
कोशिश के बाद
भी वह नहीं
निकला, प्रताप ने जैसे
ही मुझे देखा
वो एक राजकुमार
होते हुए भी
मेरी मदद के
लिए कीचड़ में
घुस आये, एक
महराणा होने के
सारे गुण प्रताप
में मौजूद है,
प्रताप ही हमारे
महाराणा है और
हम उनका निर्वासन
कैसे देख सकते
है, राजपूताने के
कई राजा ने
तो अकबर के
सामने घुटने टेक
दिये है एक
प्रताप ही उसको
चुनौती दे सकते
है, वे हमारे
स्वाधीनता के अंतिम
आशा है और
किसी भी हालत
में उनका निर्वासन
नहीं होने देंगे।
उदयपुर के कई
सरदार जगमाल के
इस फैसले से
पहले से ही
बौखलाए हुए थे,
उनकी सलाह के
बिन जगमाल ने
इतनी बड़ी फैसला
कैसे कर लिया
था। प्रताप के
मामा झालावाड़ नरेश
इस फैसले से
बहुत ज्यादा क्षुब्ध
थे, मेवाड़ के
कई सामंतों ने
अपनी आक्रोश को
उनके सामने व्यक्त
किया। झालावाड के
नरेश ने अपनी
नेतृत्व सामंतों को प्रदान
किया और यह
निर्णय लिया गया
की जगमाल को
गद्दी से हटाया
जायेगा और प्रताप
को मेवाड़ का
महाराणा बनाया जायेगा। इतना
निर्णय लेकर वो
महल की ओर
जाने लगे, रास्ते
में उन्हें मेवाड़
के गाँव के
कई लोग मिले।
सामंतों को आता
देख सभी लोग
ने चुप्पी साध
ली, उसमे से
एक व्यक्ति ने
आगे बढ़ कर
कहा की ये
हमारे साथ क्या
हो रहा है
सरदार, हमारे साथ इतना
बड़ा अन्याय क्यो
हो रहा है
? जहाँ प्रताप को मेवाड़
का राणा होना
था वहां एक
विलासी बैठा मौज
कर रहा है,
और हमारे असली
महाराणा को निर्वासन?
सरदार उनका दुःख
समझ रहे थे,
इस पर चुण्डावत
कृष्ण जो की
सामंतों के सरदार
थे आगे बढ़
के कहा की
हम खुद ही
मेवाड़ की राजनीती
से विस्मित है
और आप सब
हमारा विश्वास करे
की मेवाड़ के
असली उत्तार्धिकारी को
ही मेवाड़ का
महाराणा बनाया जायेगा ये
हम सब का
वचन है। इतना
बात सामंतों और
लोगो के बीच
हो ही रहा
था की साधारण
वेशभूषा में प्रताप
अपने घोड़े में
कुछ सामन के
साथ नजर आये,
सभी आश्चर्य से
प्रताप को देखते
रह गए, सभी
को समझते ये
देर न लगी
की प्रताप निर्वासन
के फैसले के
अनुसार मेवाड़ को छोड़
कर जा रहे
है। सभी लोगों
ने प्रताप का
रास्ता रोक लिया
और फिर चुण्डावत
कृष्ण जी ने
आगे बढ़कर कहा
की “रुक जाइये
प्रताप आप मेवाड़
की सीमा को
नहीं लांघेगे, मेवाड़
की समस्त जनता
आपका प्रतीक्षा कर
रहे है”।
प्रताप ने अपने
घोड़े की लगाम
को खींचते हुए
कहा की लेकिन
चुण्डावत जी जगमाल
मेवाड़ का राजा
है और उसने
मुझे निर्वासन का
आदेश दिया है,
इसपर चुण्डावत गरजने
लगे और कहने
लगे की “जगमाल
निरा मुर्ख है,
उसे राज काज
की समझ कहाँ
है और ये
बात आपको और
हम सब को
भली भांति अच्छी
तरह से पता
है। आप ही
मेवाड़ के राणा
है इसलिए आपको
ही मेवाड़ के
राजगद्दी में बैठना
होगा। उदयपुर के
साथ साथ सारे
मेवाड़ की जनता
और सामंतों की
ओर से सन्देश
लेकर मैं आपके
पास आया हूँ।
क्या आपको अपने
पिता से किया
वायदा याद नहीं
चित्तोडगढ अभी भी
मुगलों के हाथ
में है और
आपको ही उसे
मुगलों से आजाद
करवाना है। इसपर
प्रताप ने बड़े
ही विनम्रता से
कहा को जगमाल
मेरा छोटा भाई
है उसके विरुद्ध
मैं तलवार नहीं
उठाऊंगा, मुझे अपने
भाई के साथ
युद्ध कर राज
काज भोगने की
कोई इच्छा नहीं
है। चुण्डावत निकट
आते हुए कहा
की आपको वापस
चलना ही होगा
अन्यथा मेवाड़ आपके बिना
अनाथ हो जायेगा,
मेवाड़ की जनता
ये सदमा बर्दाश्त
नहीं कर पायेगी।
उनका धैर्य का
बाण टूट जायेगा।
प्रताप ने कहा
की क्या एक
एक भाई को
भाई के विरुद्ध
विद्रोह करना शोभा
देगा, विद्रोह तब
होगा जब आप
नहीं चलोगे, मेवाड़
की जनता अपना
संतुलन खो बैठेगी
और विद्रोही सरदार
अपने म्यान से
तलवार निकाल आएगी,
और पूरा का
पूरा मेवाड़ गृह
युद्ध की चपेट
में आ जायेगा।
इस तरह काफी
देर तक बहस
करने के बाद
प्रताप को एहसास
हो गया की
चुण्डावत सही कह
रहे है, मेवाड़
को उनकी आवश्यकता
है और उन्हें
मेवाड़ की उन्हें।
वे अपनी जन्मभूमि,
मातृभूमि से दूर
कैसे जा सकते
थे,उन्हें दूर
जाना भी नहीं
चाहिए, राज्य का अधिकार
उन्हें सुख भोगने
के लिए नहीं
बल्कि उन्हें स्वाधीनता
की रक्षा करने
के लिए उन्हें
करना ही पड़ेगा,
यह एक चुनौती
है और इससे
भागना अब मात्र
एक पलायन होगा।
प्रताप और सारे
सामंतों ने अपना
घोडा उदयपुर की
ओर मोड़ लिया।
इधर जगमाल प्रताप
के निर्वासन से
निश्चिन्त हो गया
था की उसका
एकमात्र कांटा को उसने
निकाल फेंका है,
वह अब और
ज्यादा विलाशभोगी हो गया
था, उसके चापलूस
सामंत अब राजकोष
के धन में
सेंध लगाने लगे
थे। अगली ही
सुबह जगमाल ने
अपने सामने चुण्डावत
कृष्ण के साथ
प्रताप को देखा
तो उसे अपने
आँखों में विश्वास
न हुआ, रात
भर पि हुई
मदिरा की नशा
एक पल में
ही ओझल हो
गयी। जगमाल सिंहासन
में बैठा था
सभी चापलूस सरदार
अपनी अपनी ओट
लिए हुए था।
इतने में चुण्डावत
ने अपनी गर्जना
भरे स्वर में
कहा की “जगमाल
छोड़ दो ये
सिंहासन” जगमाल ने कहा
–“चुण्डावत सरदार आप होश
में तो है”
“हाँ कुमार” अब
हम सब होश
में आ गए
है। उस दिन
हम सब वास्तव
में होश में
नहीं थे जबब
महाराणा उदय सिंह
ने तुम्हे राणा
बनाया था। तुम
इसके तनिक भी
योग्य नहीं हो।
हमने तुम्हे राणा
के रूप में
अवश्य ही स्वीकार
किया है पर
तुम इसके जरा
भी योग्य नहीं
हो तुमने इस
सिंहासन का अपमान
किया है। जगमाल
क्रोधित हो गया
और अपने सैनिकों
को आदेश दिया
की पकड़ लिया
जाए इस चुण्डावत
सरदार को। सभी
सैनिकों के साथ
साथ सभी सरदारों
ने भी अपने
आँखों को झुका
लिया, उनके हाथ
तलवार की मुठ
में अवश्य थे
पर चुण्डावत के
विरुद्ध जाना उनके
वश में न
था, किसी ने
भी उस समय
अपनी तलवार अपने
म्यान से निकालने
की चेष्टा तक
न की, जगमाल
ने सभी सामंतों
के तरफ नजर
दौड़ाई सभी शांत
थे। पुरे दरबार
में सन्नाटा छा
गया था। जगमाल
झट से अपनी
तलवार निकाला और
प्रताप की ओर
देखते हुए बोला
अपनी तलवार निकालो
प्रताप अभी फैसला
हो जायेगा। प्रताप
का हाथ झट
से तलवार पर
गया पर छू
कर वापस आ
गया, वो चुण्डावत
को देखने लगे,
जैसे की वो
कहना चाहते हो
की उन्हें सिंहासन
तो चाहिए लेकिन
इस तरह नहीं।
चुण्डावत समझ गए
थे की प्रताप
क्या कहना चाहते
है इसलिए उन्होंने
झट से अपनी
तलवार निकलते हुए
कहा की सभी
लोग अपनी तलवार
निकाल कर इसे
बता दो की
हम सब प्रताप
है, चुन्दावत की
आदेश सुनते ही
सभी ने अपने
तलवार को म्यान
से बाहर निकाल
लिया और जगमाल
को घेर लिया।
इतने देखते ही
जगमाल का सारा
नशा पल भर
में उड़ गया।
सभी सरदारों ने
एक स्वर में
चिल्लाने लगे की
हम सब प्रताप
के साथ है।
इसे देख कर
जगमाल चुण्डावत सरदार
कृष्ण के प्रति
प्रतिशोध की भावना
से धधक उठा
वो नंगी तलवार
लिए चुण्डावत की
ओर लपके और
उनमे वार किया,
चुण्डावत सरदार पहले से
तैयार खड़े थे
उन्होंने एक वार
में ही जगमाल
के तलवार की
दो टुकड़े कर
डाले। इतना देख
कर दो सैनिकों
ने जगमाल को
पकड़ लिया। उसी
समय प्रताप को
पुरे विधि अनुसार
प्रताप को राणा
घोषित किया गया।
चुण्डावत ने स्वयं
अपने हाथों से
उनके मस्तक में
टीका चढ़ाया और
राजश्री छत्र पहनाया।
और उनका अभिनन्दन
करते हुए कहा
की अब आप
ही हमारे आन,
बान और शान
हो। मेवाड़ ही
नहीं पूरा भारतवर्ष
आपके शोर्य की
वीर गाथा कहे।
अपने बाहुबल से
एक नया इतिहास
लिखो, ऐसी हमारी
कमाना है। प्रताप
बहुत गंभीर थे,
गंभीर चेहरे में
हलकी सी मुस्स्कान
को बड़ी मुस्किल
से बाहर आने
दे रहे थे।
फिर कुछ शब्द
उभर कर आये,
मेवाड़ के महाराणा
की जय, हमारे
महाराणा प्रताप की जय।
सारे दरबार में
महाराणा प्रताप की जय
जयकार होने लगी।
यह जयजयकार इतनी
ऊँची थी की
सारा महल इस
ध्वनि से गूँज
उठा था, सभी
सामंतों में ख़ुशी
की लहर से
छाई हुई थी,
जयजयकार की आवाज
सुनकर जगमाल सिहर
उठा था। मेवाड़
की सेना को
और जनता को
जब ये समाचार
मिला की प्रताप
अब महराणा बन
चुके है तब
उनमे ख़ुशी का
ठिकाना न रहा,
यूँ लगा मानो
अनाथ बच्चे को
उसका खोया हुआ
माता-पिता मिल
गए हो। सारी
मेवाड़ की धरती
महाराणा प्रताप की जय,
मेवाड़नाथ की जय
से कांप उठी।
तभी एक सैनिक
ने सलीके से
सजाई हुई बप्पा
रावल की तलवार
को लिए दरबार
में उपस्थित हुआ।
चुण्डावत ने उस
तलवार को उठाई
और महाराणा प्रताप
के हनथो में
दे दी। सारा
मेवाड़ में मानो
आज कोई उत्सव
मनाया जा रहा
हो ऐसा प्रतीत
होने लगा था।
इस तरह से
चुण्डावत सरदार ने तलवार
देने की रस्म
पूरी की। महाराणा
प्रताप को तलवार
देने के बाद
चुण्डावत सरदार ने कहा
की –“हे क्षत्रिये
कुल दिवाकर ये
हमरे पूर्वज बाप्पा
रावल की तलवार
है जिसे हम
सदियों से चितोड़
की देवी मानते
है आज वही
चितौड़ मुगलों के
कब्जे में है।
मुगलों ने जब
चितौड़ में कब्ज़ा
किया था तब
वहां के हर
एक मंदिर और
प्रतिमाओं की टुकड़े
टुकड़े कर दिए,
वहां के पंडितों
और विद्वानों को
अपमानित किया, राजपूतों पर
मुगलों की अत्याचार
की गवाह है
ये तलवार, तब
से समस्त मेवाड़
मुगलों से पप्रतिशोध
के ज्वाला में
जल रहा है,
चितौड़ की पराजय
से मेवाड का
मस्तक झुक गया
है, मैं ये
तलवार इसी आशा
के साथ सौंपा
हूँ की आप
चितौड़ के अपमान
का बदला लेंगे
और फिर से
चितौड़ को मेवाड़
का भाग बनायेगे।
ये आपके मस्तक
में चढ़ा मुकुट
आपके शोभा और
वैभव नहीं है
अपितु आपके लिए
एक चुनौती है,
की आप हमारा
खोया हुआ स्वाभिमान
और स्वाधीनता वापस
लायेंगे। प्रजा जनों की
रक्षा और विकास
की चुनौती भी
आप ही की
जिम्मेदारी होगी। इसतरह तालियों
की गडगड़ाहट के
बिच चुण्डावत सरदार
कृष्ण का भाषण
समाप्त हुआ। फिर
महाराणा प्रताप उठे उन्होंने
तालियों के बीच
सबका अभिवादन किया
और फिर अपना
तलवार को खींचते
हुए कहा की
मैं राणा प्रताप
बप्पा रावल की
इस पूजन्य तलवार
की सौगंध खा
कर कहता हूँ
की इस तलवार
को सौंपकर चुण्डावत
जी नें जो
दायित्व मुझे सौंपा
है उसे मैं
अवश्य पूरा करूँगा।
अपने स्वाभिमान और
मातृभूमि की रक्षा
के लिए अपना
जीवन समर्पित कर
दूंगा।
मैं कभी किसी शत्रू के सामने अपना मस्तक नहीं झुकाऊँगा। अपने शत्रु से चितौड़गढ़ को वापस लूँगा और चितौड़ पतन के समय हम पर हुए अत्याचारों का बदला लेना मेरा परम ध्येय रहेगा। इसके बाद प्रताप मौन हो गए और फिर इसके बाद प्रताप ने वो संकल्प लिया जो की प्रताप के जीवन का मुख्य भाग था और जिसके लिए वो हमेशा हमेशा के लिए प्रचलित रहेंगे उन्होंने प्रण लिया की:- ”माँ भवानी और भगवान् एकलिंग (शंकर) की सौगंध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ , कि जब तक मेवाड़ का चप्पा-चप्पा भूमि को इन विदेशियों से स्वतंत्र नहीं करा लूँगा, चैन से नहीं बैठूँगा। जब तक मेवाड़ कि पुण्यभूमि पर एक भी स्वतंत्रता का शत्रु रहेगा, तब तक झोपडी में रहूँगा, जमीं पर सोऊंगा, पत्तलों में रुखा-सुखा खाना खाऊंगा, किसी भी प्रकार का राजसी सुख नहीं भोगूँगा, सोने-चांदी के बर्तन और आरामदायक बिस्तर की तरफ कभी आँख उठाकर भी नहीं देखूंगा ! बोलिए, क्या आप सब लोग मेरे साथ कष्ट और संघर्ष का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार है ?” “हम सब अपने महाराणा के एक इशारे पर अपना तन-मन, सब कुछ न्योछावर कर देंगे !” चारों तरफ से सुनाई दिया।“द्रढ़ इरादे वाले लोगों और राष्ट्रों को कोई बड़ी से बड़ी शक्ति भी पराधीन नहीं रख सकती ।” राजगुरु ने कहा — “इस पवित्र ललकार को सुनने के लिए मेरे कान जाने कब से व्याकुल हो रहे थे, प्रताप!””शत्रुओं द्वारा मात्रभूमि के किये गए अपमान का बदला गिन-गिनकर तलवार की नोक से लिए जायेगा । चप्पा चप्पा भूमि की रक्षा के लिए यदि खून की नदियाँ भी बहानी पड़ी, तो मेरे मुख से कभी उफ़ तक न निकलेगा । आप लोगों ने मुझे जो स्नेह और विश्वास प्रदान किया है, प्रताप दम में दम रहते उस पर रत्ती-भर भी आंच न आने देगा ! जय स्वदेश! जय मात्रभूमि ! जय मेवाड़ ! ” उसके बाद सभी उपस्थित सरदारों, सामंतों और दरबारियों ने मात्रभूमि की स्वतंत्रता और रक्षा के प्रति निष्ठावान रहने की शपथ ली । अपने नए महाराणा प्रताप का अभिवादन किया ।
प्रताप को राणा बनते देख पूरा राजपुताना दो खेमों में बंट गया था, एक ओर वो थे जिन्होंने अपना स्वाभिमान अकबर को बेच दिया था और दुसरे वो थे जिनके पास स्वाभिमान तो था पर सागर जैसे सेना और ताकतवर मुग़ल सामराज्य से लोहा लेने की ताकत न थी इसलिए वैसे राजाओं ने प्रताप के राणा बनने में ख़ुशी जाहिर की ।
मैं कभी किसी शत्रू के सामने अपना मस्तक नहीं झुकाऊँगा। अपने शत्रु से चितौड़गढ़ को वापस लूँगा और चितौड़ पतन के समय हम पर हुए अत्याचारों का बदला लेना मेरा परम ध्येय रहेगा। इसके बाद प्रताप मौन हो गए और फिर इसके बाद प्रताप ने वो संकल्प लिया जो की प्रताप के जीवन का मुख्य भाग था और जिसके लिए वो हमेशा हमेशा के लिए प्रचलित रहेंगे उन्होंने प्रण लिया की:- ”माँ भवानी और भगवान् एकलिंग (शंकर) की सौगंध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ , कि जब तक मेवाड़ का चप्पा-चप्पा भूमि को इन विदेशियों से स्वतंत्र नहीं करा लूँगा, चैन से नहीं बैठूँगा। जब तक मेवाड़ कि पुण्यभूमि पर एक भी स्वतंत्रता का शत्रु रहेगा, तब तक झोपडी में रहूँगा, जमीं पर सोऊंगा, पत्तलों में रुखा-सुखा खाना खाऊंगा, किसी भी प्रकार का राजसी सुख नहीं भोगूँगा, सोने-चांदी के बर्तन और आरामदायक बिस्तर की तरफ कभी आँख उठाकर भी नहीं देखूंगा ! बोलिए, क्या आप सब लोग मेरे साथ कष्ट और संघर्ष का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार है ?” “हम सब अपने महाराणा के एक इशारे पर अपना तन-मन, सब कुछ न्योछावर कर देंगे !” चारों तरफ से सुनाई दिया।“द्रढ़ इरादे वाले लोगों और राष्ट्रों को कोई बड़ी से बड़ी शक्ति भी पराधीन नहीं रख सकती ।” राजगुरु ने कहा — “इस पवित्र ललकार को सुनने के लिए मेरे कान जाने कब से व्याकुल हो रहे थे, प्रताप!””शत्रुओं द्वारा मात्रभूमि के किये गए अपमान का बदला गिन-गिनकर तलवार की नोक से लिए जायेगा । चप्पा चप्पा भूमि की रक्षा के लिए यदि खून की नदियाँ भी बहानी पड़ी, तो मेरे मुख से कभी उफ़ तक न निकलेगा । आप लोगों ने मुझे जो स्नेह और विश्वास प्रदान किया है, प्रताप दम में दम रहते उस पर रत्ती-भर भी आंच न आने देगा ! जय स्वदेश! जय मात्रभूमि ! जय मेवाड़ ! ” उसके बाद सभी उपस्थित सरदारों, सामंतों और दरबारियों ने मात्रभूमि की स्वतंत्रता और रक्षा के प्रति निष्ठावान रहने की शपथ ली । अपने नए महाराणा प्रताप का अभिवादन किया ।
प्रताप को राणा बनते देख पूरा राजपुताना दो खेमों में बंट गया था, एक ओर वो थे जिन्होंने अपना स्वाभिमान अकबर को बेच दिया था और दुसरे वो थे जिनके पास स्वाभिमान तो था पर सागर जैसे सेना और ताकतवर मुग़ल सामराज्य से लोहा लेने की ताकत न थी इसलिए वैसे राजाओं ने प्रताप के राणा बनने में ख़ुशी जाहिर की ।
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