श्री जांभोजी महाराज
जाम्भोजी का जन्म
नागौर परगने के
पीपासर ग्राम में हुआ
था | उनकी जन्म
तिथि भाद्रपद वदी
अष्टमी, सोमवार, कृतिका नक्षत्र
में विक्रमी 1508 में
हुआ था | इनकी
माता हाँसादेवी (केसर
नाम भी मिलता
है) छापर के
यादववंशी भाटी मोहकमसिंह
की पुत्री थी
| पिता लोहटजी पंवार (परमार)
राजपूत और सम्पन्न
किसान थे| जाम्भोजी
के दादा रोळौजी
अथवा रावळजी प्रसिद्ध
व्यक्ति थे | उनके
दोपुत्र थे – लोहटजी
और पूल्होजी | तांतू
नामक एक लोहटजी
के बहन भी
थी,जिसका विवाह
जैसलमेर रियासत के ननैयू
ग्राम में हुआ
था | लोहटजी का
समाज में पर्याप्त
मान-सम्मान था,
पर संतान सुख
नहीं था |
लोकाख्यानों
के अनुसार वे
जब बन में
एक दिन गायें
चरा रहे थे,
उन्हें ‘अगम-पुरुष’
योगी मिला जिसने
उन्हें आशीर्वाद देते हुए
कहा कि तुम्हारे
घर में ‘देव’
पुत्र रूप में
अवतरित होंगे | वे जीव-उद्धार के लिए
आयेंगे, तुम कोई
इचरज मत करना,
उदास मत होना,
मन में कोई
अंदेशा(शंका) मत लाना
| योगी ने हाँसाजीको
घर के दरवाजे
आकर उसे पुत्रवती
होने का आशीर्वाद
दिया| हाँसाजी योगी
के लिए भिक्षा
लेने घर के
अंदर गई और
लौटी तो वहां
योगी का कोई
चिन्ह तक नहीं
दिखा| लगभग 60 वर्ष
की आयु में
लोहटजी को पुत्र-रत्न प्राप्त
हुआ था | किंवदंतियों
के अनुसार न
तो बालक ने
जन्मघुट्टी ली, न
ही जमान पर
पीठ के बल
लेटा | लोहटजी की इकलौती
संतान होने के
कारण वे माता-पिता को
अतीव प्रिय थे
| लोकाख्यानों के अनुसार
वे बाल्यावस्था में
मौन ही रहते
थे, इसलिए लोग
उन्हें गूंगा भी कहने
लगे थे | कभी
कभी वे कुछ
ऐसा कर दिखाते
थे कि लोग
अचम्भा करते थे,
इसी कारण लोग
उन्हें ‘जम्भा’ कहने लगे
|
जाम्भोजी की परम्परा
में वील्होजी सुप्रसिद्ध
कवि हुए हैं|
अपने एक कवित्त
में उन्होंने कहा
है कि जाम्भोजी
ने सात बरस
बाळ-लीलावाँ में
बिताया, 27 बरस तक
गायां चराई और
51 बरस शब्द-कीर्तन
में बिताये | वील्होजी
के अनुसार – ‘जाम्भ्जी
की पलक नहीं
झपकती थी, वे
पीठ के बल
नहीं सोते थे,
खाते पीते भी
नहीं थे | परेशान
इनके पिता लोहटजी
इन्हें श्मशानसेवी तांत्रिक के
पास ले गए,
किन्तु उसके सारे
प्रयत्न व्यर्थ गए | वह
जाम्भोजी की आध्यात्मिक
प्रतिभा से प्रभावित
हुआ | इसी अवसर
पर कहते हैं
जाम्भोजी ने अपना
पंला ‘सबद’ कहा|
लगभग 16 बरस की
वय में ये
गोरखनाथ के पंथ
वालों के संपर्क
में आए और
उनसे प्रभावित भी
हुए | आपने विवाह
की बात उठने
पर मना कर
दिया, तथा आजीवन
ब्रह्मचर्य पालन का
वृत लिया | 1540 विक्रमी
में लोह्टजी का
देहावसान हो गया,
तथा पांच माह
पश्चात ही माता
हाँसादेवी भटियाणी भी गुजर
गई | फिर जाम्भोजी
ने घर त्याग
दिया और ‘समराथळ-धोरा’ पर जाकर
तपस्या करने लगे
|
संवत 1542 की कार्तिक
वदी अष्टमी को
इन्होने ‘कलश-स्थापन’
कर ‘विष्णु’ मंत्र
का जाप करने
को कहा और
अपने पंथ को
‘विष्णुई’ अथवा लोकभाषा
में ‘बिश्नोई’ कहा|
संवत 1542 में भयंकर
अकाल भी पडा
था, तब लोग
उनके आश्रम में
आने लगे थे
| जम्भोजी ने उनका
पोषण किया, तथा
उन्हें ‘विष्णु’ मंत्र देकर
पंथ में सम्मिलित
किया | उनके काका
पूल्होजी के मन
में उठी शंकाओं
का भी उन्होंने
समाधान किया और
उन्हें ही सर्वप्रथम
अपने पंथ में
दीक्षित किया था
| अपनी बुआ ताँतू
को भी उन्होंने
नवलमंत्र देकर अपने
धर्म में शामिल
कर लिया था
| कालांतर में उनके
शिष्यों ने 29 नियमों की
स्थापना की और
उस पर चलने
का आग्रह किया
| नासमझ लोग इन
बीस और नौ
नियमों को मानने
के कारण बिश्नोई
शब्द की उत्पति
मानते हैं, यह
भ्रामक धारणा है | विष्णु
( राम की तरह
एक निराकार ब्रह्म
का नाम ) को
भजने वाला बिश्नोई-
‘विष्णु विष्णु तूँ भण
रे प्राणी |’ का
सूक्त ही इस
शब्द ने मूल
में है |
जाम्भोजी के समय
के अनेक प्रवाद
और लोकाख्यान प्रचलित
हैं | राठौड़ राव
दूदा जोधावत की
जाम्भोजी से भेंटवार्ता
हुई थी और
जाम्भोजी से वे
अत्यंत प्रभावित हुए थे,
उन्हें जाम्भोजी ने काठ
की मूठ की
तलवार धारण कराई
और अहिंसावृत पालन
का उपदेश दिया
था | राठौड़ राव
जोधा को उन्होंने
‘बैरीसाल नगाड़ा’ दिया था,
जो कालान्तर में
बीकाजी बीकानेर ले गए,
जिसकी वहां दशहरा
और दीपावली को
बीकानेर नरेश पूजन
करते हैं | जूनागढ़
में यह नगाड़ा
आज भी सुरक्षित
है |
बीकानेर के राजकीय
झंडे में मूलमंत्र
के ऊपर खेजड़े
का वृक्ष अंकित
है, जो राज्य
में जाम्भोजी की
मान्यता का सूचक
है –
‘करूं रूँख प्रितपाळ,
खेजड़ा रावत रखावै’
जोधपुर के राव
सातल ने बिश्नोई-पंथ के
अनुयायियों को सर्वथा
कर मुक्त करना
चाहा था किन्तु
जाम्भोजी के अनुरोध
पर उनकी आमदनी
का पांचवां हिस्सा
लेना स्वीकार किया
–
‘सतगुरु कहे सांतिल
करि चीत,
बिश्नोइयों
सूं पाळो प्रीत
|
देव कहै राठोड़ौं
सुणो,
बिश्नोई गुर –भाई
गिणो |’
जाम्भोजी ने सोलंकी
नेतसी को अजमेर
के सूबेदार मल्लूखां
से छुड़वाने के
लिए कुछ ‘सबद’
कहे थे, जिसका
उसके जीवन पर
प्रभाव पड़ा था
और उसने गौ-हत्या बंद करवा
दी थी |
जैसलमेर के रावल
जैतसी ने ‘जैत-समंद’ की प्रतिष्ठा
पर जाम्भोजी को
बुलाया था और
उन्होंने जीव-दया
सम्बिन्धित चार वचन
उन्हें दिए थे
| रावल जैतसी के अनुरोध
पर लखमण और
पांडू नाम के
दो बिश्नोई उनकी
रियासत के खरींगा
ग्राम में बसे
थे |
इस तरह उनके
प्रभाव में तत्कालीन
अनेक हस्तियाँ आई,
जिनमें जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर,
द्रौणपुर-छापर, चित्तौड़ के
शासकों के अलावा
नागैर और अजमेर
के सूबेदार और
बादशाह सिकंदर लोदी तक
के नाम लोकाख्यानों
में मिलते हैं
|
जाम्भोजी ने नाथों
से संवाद किया
था और उन्हें
‘अरथ-विहूणा’ वाद-विवाद से बचने
का कहा था
| पाखंड और सांसारिकता
में सड़ते हिन्दुओं
से कहा –
‘हिन्दु होय के
हरि क्यूँ नीं
जप्यौ,
काम दह दिस
दिल पसरायौ |’
इसी तरह मुसलमानों
को भी पाखंड
और हिंसा से
दूर रहने की
सीख दी –
चडि-चडि भीतै
मडी मसीतै, क्या
उळबंग पुकारौ |
भाई नांऊँ बळद पियारौ,
तिहकै गळै करद
क्यूँ सारौ||
नंगे-पाँव रहने
वाले श्वेताम्बरी मुनियाँ
को भी वे
इसी तरह उलाहना
देते कहते हैं
–
‘तेऊ पारि पहुन्ता
नाहीं |
जाकि धोती रही
आसमाणी ||’
कर्मवाद के पोषक
और उदारता व
मानववाद के समर्थक
गुरु जाम्भोजी सत्य-अहिंसा के पुजारी
थे | जाम्भोजी गुरु
गोरख को महत्वपूर्ण
मानते हुए कहते
हैं कि गुरु
गोरख निरंजन, अवधूत
और महान है
| गोरख अजर-अमर
और ईश्वर सामान
है | उनकी एक
वाणी कहती है
– ‘उसी गोरख ने
मुझे कहा है
कि – तुम सिद्ध
हो, तुम सब
वर्णों का समन्वय
करके पवित्र धर्म
की स्थापना करो
|’ वस्तुतः जाम्भोजी एक क्रांतिकारी
दर्शन के प्रणेता
थे, जिसमें भारतीय
सभी मतवादों के
सत्य का सार
था |
जाम्भोजी का स्वर्गवास
संवत 1593 की मार्गशीर्ष
वदी नवमी को
संभवतः समराथळ पर ही
हुआ था | उनके
काका पूल्होजी ने
जब जाम्भोजी के
देहत्याग का सुना
तब उन्होंने भी
ग्राम रिणसीसर में
स्वेच्छा से देह
त्याग दी | दोनों
भतीजों के देहावसान
का सुनकर जाम्भोजी
की बुआ तांतू
ने भी ननेऊ
ग्राम में प्राण
त्याग दिए | पंजाब,
हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश
के साथ ही
अन्य राज्यों में
भी जाम्भोजी के
अनुयायी मिलते हैं |
जाम्भोजी के बारे में जानकारी अपडेट करने के लिए आभार । विस्तृत जानकारी के लिए विजिट करें । wwww.bishnoism.online
जवाब देंहटाएं