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शक्तिसिंह प्रकरण


प्रताप के महाराणा बनते ही कई राजपूत वीरों का खून उबलने लगा था और वो आकर महाराणा प्रताप से मिलने लगे थे. वो सभी शत्रु से दो दो हाथ करने के लिए मचलने लगे थे जिसने उन्हें परतंत्रता ककी जंजीर में बंधा था, परन्तु उस समय उनका शत्रु दिल्ली का बादशाह जल्लालुद्दीन अकबर था जिसके पास सागर सा विशाल सेना थी और जिसने चितौडगढ़ में लगातार 6 महीने तक राजपूतों से युद्ध कर चितौडगढ़ जीता था. कई राजपूत वीर अपने भाला, तलवार और तीर कमान लेकर जंगल की ओर युद्ध का अभ्यास करने चल पड़े. वो अपने हथियार को धार और युद्ध अभ्यास करने को उतावले थे, उन्होंने जंगल को अपना युद्धाभ्यास का क्षेत्र बना लिया था. इन्ही दिनों राणा प्रताप भी युद्धाभ्यास के लिए जंगल जाया करते थे. एक दिन वो अपने छोटे भाई शक्ति सिंह के साथ वराहों का शिकार करने के लिए जंगल गए, जैसे ही उन्हें वराह दिखा दोनों भाइयों ने उस वराह में एक साथ अपना भाला फेंक दिया, परन्तु एक भाला वराह को लगा और वराह वहीँ मर गया. दोनों भाई वराह का पीछा करते हुए वहां पहुंचे. वराह को मृत देख शक्ति सिंह ने कहा की देखा भैया मेरा निशाना कितना अचूक है मेरे एक वार से यह वराह धराशयी हो गया , राणा प्रताप को यह बात अच्छी नहीं लगी , उन्हें अच्छी तरह से ज्ञात था की यह भाला उनका है, वे बोले नहीं शक्ति ये तुम्हारा भाला नहीं ये मेरा भाला है. इस पर शक्ति सिंह बौखला गया, और फिर कहाआपका कहने का तो यही अर्थ हुआ की मैं झूठ बोल रहा हूँ, मैं आपको झूठा नजर रहा हूँ, मैं किसी भी तरह से श्रेष्टता में आपसे कम हूँ, मैं एक राजपूत हूँ और एक राजपूत कभी भी झूठ सहन नहीं कर सकता है. आप मेवाड़ के राजा अवश्य होंगे परन्तु मैं झूठ नहीं सहन कर सकता हूँ. इस पर राणा प्रताप ने कहा कीमेरा ये अर्थ नहीं था शक्ति, मैं तो बस तुम्हे सत्य का बोध करा रहा था,” और कई तरह से समझाने की कोशीश करते हुए मुस्कुराने की कोशिश किये. शक्ति सिंह ने कहा कीसत्य असत्य का बोध आप कराये मुझे मुझे अच्छी तरह से पता है सत्य क्या है, ये शिकार मेरा है और मैं इसे लेकर रहूँगा, मैं जगमाल नहीं हूँ जो आसानी से अपना हक़ छोड़ दूँइतना कहकर शक्ति सिंह ने अपने अनुचरों से कहा की आनुचारों उठा इस शिकार को, इसपर राणा प्रताप गरजे शक्ति सिंह तुम अपनी हद पार कर रहे हो, तुमने मेरा ही नहीं मेवाड़ के महाराणा का भी अपमान किया है, नादे भाई के रूप में मैं तुम्हे क्षमा कर भी दूं, पर मेवाड़ के महाराणा का अपमान नहीं सहा जायेगा. शक्ति सिंह ने कहा की मैं एक राजपूत हूँ, और आपको मेरा ताकत का अंदाजा नहीं है इतना कहकर उसने एक भाला उठाया और पूरी शक्ति से एक शिला में फ़ेंक दिया, भाला शिला से टकराते ही क्षण भर में चूर चूर हो गया,और फिर कहा तो फिर ठीक है, एक राजपूत योद्धा के भांति निकालिए अपना तलवार और सामना कीजिये इस राजपूत का, राणा प्रताप ने फिर समझाने की कोशिश की कि लगता है तुम अपने ताकत की घमंड में अपनी मर्यादा भूल गया हो, शक्ति सिंह अपने आप को सम्भालों. शक्ति सिंह कायर नहीं है, और आप अपनी तलवार निकालो और सामना करो जो जीवित बचेगा वही विजयी होगा, सारे अनुचर उन दोनों भाइयों को देख रहे थे और थर थर काँप रहे थे, यदि आज प्रताप चुप रह जाते तो ये मेवाड़ के महाराणा की शान के विरुद्ध होता, और सारी मेवाड़ में प्रताप की किरकिरी हो जाती, इस ललकार को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता था, इसलिए राणा प्रताप ने अपनी तलवार निकाल लिया, इतना देखते ही उनके सैनिक बीच में गए और होने वाले युद्ध को रोकना चाहा पर शक्ति सिंह उस समय इस तरह पागल हो चूका था की वो तलवार लिए अपने सैनिकों की तरफ ही लपक पड़ा, सभी सैनिक अपनी जान बचा कर वहां से भाग गए, फिर उसने राणा प्रताप पर पहला वार किया, और राणा प्रताप ने भी अपना बचाव किया, दोनों योद्धा तलवार बाजी में निपूर्ण थे, इसलिए थोड़ी ही देर में उन दोनों के बीच होने वाली लड़ाई युद्ध में बदल गयी, तलवार की झंकार से सारा माहोल थर्रा उठा था, और कोई भी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था, दोनों भाई एक दुसरे के खून के प्यासे लगने लगे थे. युद्ध की आवाज सुनकर उनके गुरु राघवेन्द्र वहां पहुँच गए, और वो उन दोनों को इस तरह युद्ध करता नहीं देख पाए, उन्होंने कई बार उन दोनों से युद्ध करने की प्रार्थना की पर किसी ने भी उनकी बात को सुना, फिर युद्ध को रोकने की प्रार्थना करते हुए वे उन दोनों के बिलकुल समीप पहुंचे, इतने में ही शक्ति सिंह ने प्रताप पर एक ऐसा वार किया की प्रताप तो किसी तरह उस वार से बच गए परन्तु वो वार सीधा गुरुवर राघवेन्द्र को लगा, गुरु वहीँ पर अपने प्राण त्याग दिए, दोनों गुरुवर को इस प्रकार गिरता दिख आहात हो गये, उन्होंने अपने क्रोध को भूल कर गुरुवर की तरफ देखे, गुरु की मृत शरीर को देख प्रताप जोर जोर से वहीँ रोने लगे और अपनी गलती की क्षमा मांगने लगे, उन्होंने अपने गुरु की सिर को अपने जांघों में रखा और अपनी पश्चताप करने लगे, शक्ति सिंह वही खड़ा सब देख रहा था, उसने जैसे ही गुरु की तरफ आगे बढ़ा राणा प्रताप ने उसे रोक लिया और क्रोद्ध भरे नज़रों से शक्ति सिंह को देखा. राणा प्रताप उस समय बहुत ज्यादा क्रोद्धित हो चुके थे, इस लिये उन्होंने शक्ति सिंह को उसी समय राज्य से निर्वासन का आदेश दे दिया, शक्ति सिंह अपने निर्वासन के आदेश को सहन नही कर सका और उसी समय मेवाड़ को छोड़ दिया. इधर राणा प्रताप ने पुरे सम्मान के साथ अपने गुरुवर का अंतिम संस्कार किया.

उदयपुर का त्याग और कुमलमेर को राजधानी बनाना



 शक्तिसिंह के निर्वासन के बाद राणा प्रताप ने सभी सामंतों और राजपूत योद्धाओं की एक सभा बुलाई और सबको एक साथ सम्भोधित करते हुए कहा कीमेवाड़ के समस्त सामंत, बहादुर, और नागरिकों आज का दिन हम सबके लिए आत्ममंथन का दिन है, संकल्प का दिन है, हम सभी जानते है की साम्राज्यवादी ताकते हम सभी को नष्ट कर हमारी संस्कृति को छिन-भिन्न कर देना चाहती है, हमारा बस अपराध इतना है की हमने किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की है, आज पूरा भारतवर्ष विदेश से आये हुए मुस्लिम साम्राज्य के आगे घुटने टेक दिए है, हमारे राजपूताने के कई राजाओं ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है, पर आजतक हमारे किसी भी पूर्वजों ने किसी के सामने अपना सर नहीं झुकाया है, हमारे हर पूर्वजों ने अपना सर झुकाने के स्थान में अपना सर कटाने पर विश्वास किया है. मुग़ल हमारी ताकत और राजपूतों की आन बाण और शान से भली भांति परिचित है, परन्तु राजपूतों के ख़ून में जो सबसे बड़ी कमजोरी है वो है एक दुसरे से जलना, उन्हें निचा दिखाना, और हर संभव एक दुसरे को नष्ट करना. विदेशी शक्ति सदैव से इन कमजोरियों का लाभ उठा कर राजपूतों के पीठ पर वार किया है. अपनों के साथ विश्वासघात ही समाराज्य्वादियों की जड़ों को हमारी धरती में गहराइ तक ले गयी है. इन विदेशियों से हाथ मिलाने की इच्छा इसलिए नहीं होती है क्योंकि जब जब राजपूतों ने इनसे हाथ मिलाया है हमारे घरों की स्त्रियों की मान, मर्यादा खतरे में पड़ी है, इनके सरदार जब चाहे हमारे घरों से किसी सामान की भांति हमारी घरों के स्त्रियों को ले जाते है, और आप इस बात से बिलकुल भी अनजान नहीं है की आज जो दिल्ली का राजगद्दी में बैठा शाषण कर रहा है, वो किस तरह से वहां के हिन्दू स्त्रियों को आगरा के बाजार में खुले आम बेच रहा है. इतिहस साक्षी है की, राजपूत स्त्रियाँ इनकी हवास का शिकार बनने से बचने के लिए जलती चिताओं में अपने कुंदन से सुन्दर तनो को जीवित जलाकर राख किया है, महारानी पदिमनी जैसी असंख्य राजपूत ललनाये अपनी सोने से शारीर को आग्नि में भस्म कर चुकी है, बाप्पा रावल के वंशज भीम सिंह से लेकर महाराणा सांगा तक असंख्य वीर राजपूतों ने हमारी इस धरती को विदेशियों से बचाने के लिए अपनी प्राणों की बलि दे दी है. हमें लड़ाकू कौम कहा जाता है, और हम इस बात को स्वीकार करते है की हम लड़ाकू है, और हमें इस बात पर गर्व है की हम एक लड़ाकू कौम है पर लड़ाकू होने का ये अर्थ नहीं है की हम आक्रान्ता हो जाये, अपने ही भाइयों को नीचा दिखाने और उनका हक़ छिनने से हममें और उन मुगलों में क्या अंतर रह जायेगा. आप लोगो ने मुझे मेवाड़ का राणा बनाकर मुझपर बहुत भरी दायित्व दाल दिया है, परन्तु चित्तौड़ अभी भी उन मुगलों के अधीन है, मेरा सबसे पहला कर्तव्य यही है की चितौड़ को मुगलों से छुड़ा कर राजपूती शान को फिर से स्थापित करूँ और मुगलों को ये सन्देश पहुंचा दू की राजपूतों से टकरा कर वो भी चैन से नहीं सो सकते है राजपूत मरने से नहीं डरते वो तो युद्ध में मर कर अमर हो जाया करते है. परन्तु एक बात ध्यान रहे मैं अकेला कुछ भी नहीं हूँ, यदि आप लोगो की फौलादी ताकत मेरे साथ है तो मैं फौलाद हूँ, आज मेरे साथ साथ आपलोग भी शपथ लीजिये की जब तक हम चितौड़ को मुक्त नहीं करा लेंगे तब तक हम सब सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करेंगे, जीवन को भोगों में नष्ट नहीं होने देंगे, हम आपसी वैर भाव, और अन्य सभी संकिर्ताओं को अपने से दूर रखेंगे, और इस तरह महाराणा प्रताप के साथ सभी योद्धाओं, सरदारों और नागरिकों ने सपथ ली. शपथ के बाद ही मेवाड़ क्षेत्र में नई हलचल आरम्भ हो गयी, राजपूतों ने सिर और मुछ के बालों को कटवाने बंद कर दिए. सादे जीवन का प्रण लेकर अपने महाराणा को हर संभव सहयोग देने लगे. इसके साथ ही उदयपुर जैसे सुन्दर नगरी को त्याग कर, कुमलमेर की दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपनी राजधानी बनाने का निर्णय महाराणा प्रताप और उनके विवेकशील सरदारों ने लिया. राणा प्रताप जानते थे की उदयपुर समतल स्थान में बसी नगरी है, और यहाँ भारी मुग़ल सेना कभी भी उनपर आक्रमण कर उनपर अपना अधिकार जमा सकती है, इसके साथ ही राजपूतों के संख्या कम होने के कारण पहाड़ियों के बीच उन्हें लड़ना सदैव से अनुकूल रहा है. देखते ही देखते उदयपुर वीरान हो गया, और महाराणा के इशारे में उदयपुर निवासी कुमलमेर में जाकर बसने लगे. राणा प्रताप ने उदयपुर छोड़ने का आदेश इतनी शक्ति से दे रखा था की जो भी उदयपुर की सीमा में प्रवेश करता उसे मृत्यु दंड दिया जाता. कुछ ही समय में कुमलमेर आबाद और उदयपुर आजाद हो गया. कुमलमेर में आराम का जीवन नहीं था, कठोर जीवन देकर महाराणा प्रताप अपने नागरिकों को ये एहसास दिलवाना चाहते थे की उनका जन्म भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि अपनी धरती को मुगलों से आजाद करवाने के लिए हुआ है. महाराणा प्रताप ने एक विशाल किला कुमलमेर में बनवाया, और सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया. राजपूत युवकों को युद्ध करने का अभ्यास करवाया जाता था, अपनी मातृभूमि में मर मिटने के लिए तैयार रहने का मनोबल दिया जाता था. स्त्रियाँ भी अपने भाइयों, बेटों और पत्तियों को उनकी तैयारी में पूरा सहयोग करती. मेवाड़ की समस्त प्रजा अपनी आय में से कटौती कर सुरक्षा व्यवस्था के लिए धन जूटा कर देती, जन जन में महाराणा प्रताप ने ये मन्त्र फूंक दिया था की, ना कोई राजा है ही कोई प्रजा है, जब तक हम अपनी खोई हुई जमीन वापस नहीं ले लेते तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते है. राणा प्रताप में मुगलों से अपनी मातृभूमि लेने का लक्ष्य था वही उनके दोनों भाइयों ने उन्हें बहुत निराश किया. उनका छोटा भाई जगमाल जिसे हटा कर प्रताप को राणा बनाया गया कभी चैन से नहीं बैठा, राणा प्रताप ने बहुत कोशिश की कि जगमाल को पूरी प्रतिष्ठा दी जाय पर जगमाल उनसे हमेशा असंतुष्ट और नाराज ही रहता वो अपने आप को अपमानित समझता. वो अधिक दिन तक मेवाड़ में नहीं रह सका और उसने मेवाड़ त्याग कर अपने परिवार समेत जहाजपुर चला गया. जहाजपुर आज्मेर के सुबेदारी की अधीन था. अजमेर के सूबेदार ने उसकी रहने की व्यवस्था कर दी. कुछ दिन बाद जगमाल अकबर से मिला. अकबर विस्तारवादी था वह हमेशा से राजपूतों को अपने साथ मिला कर उन्हें अधीन करना चाहता था. वह जनता था की पुरे भारतवर्ष में राजपूत कौम ही सबसे बहादुर और लड़ाकू है, इसलिए ये कौम जिसके पक्ष में रहेगी वही भारत में राज कर पायेगा. उसे पता लगा की राणा प्रताप का भाई उसकी शरण में आया है, जिसे राज गद्दी से हटाकर प्रताप मेवाड़ का राजा बना है. तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई. जगमाल के पिता उदय सिंह से चितौड़ का किला छींनते समय वो राजपूतों के बहुबल से परिचित हो चूका था, उसके विशाल मुग़ल सेना ने मुट्ठी भर राजपूतों से चितौड़ का किला जितने में : महीने का वक़्त लगा था. अब राणा प्रताप का छोटा भाई जगमाल उसके सामने खड़ा था, वह प्रताप से घृणा करता था, ऐसे व्यक्ति को शरण देकर अकबर राजपूतों की एकता की कमर तोड़ देना चाहता था. इसलिए उसने जगमाल का स्वागत किया और उपहार स्वरूप जहाजपुर का परगना दे दिया. जगमाल ने अकबर को वचन दिया की वह सदैव अकबर की अधीनता में रहेगा और यथा संभव सहयोग देगा. उसी समय एक घटना और हो गयी सिरोही राज्य के उत्तराधिकार को लेकर देवड़ा सुरतान और देवड़ा बीजा में टन गयी, दोनो को ही अपनी शक्ति में भरोसा नहीं था इसलिए वो सम्राट अकबर के मित्र राय सिंह के पास पहुंचे. राय सिंह ने दोनो की बात सुनी और फिर देवड़ा सूरतान का पक्ष ले लिया, उसने सुरतन से शर्त रखी की वह सिरोही का आधा राज्य अगर अकबर को दे दे , तो वह उसकी सहायता करेगा. सुरतान तैयार हो गया. उसने आधा सिरोही राज्य अकबर को दे दिया. और अकबर ने तुरंत ही वह सिरोही राज्य जगमाल को दे दिया. राव सुरतान को ये बात बहुत बुरी लगी, उसने जगमाल को चुनौती दे डाली, परन्तु देवड़ा बीजा उसके उसके साथ हो गया और राव सुरतान का शक्ति संतुलन बिगड़ गया.उसे सिरोही छोड़ना पड़ा.वह भाग कर आबू चला गया. बाद में देवड़ा बीजा ने जगमाल का साथ छोड़ दिया अब जगमाल अकेला पड़ गया. राव सुरतान ने मौका देख कर जगमाल पर आक्रमण कर दिया. इस युद्ध में जगमाल मारा गया. रायसिंह की भी इस युद्ध में मृत्यु हो गयी. अकबर की कूटनिति ये थी की वह राजपूतों को अपने अधीन करके उनके बल पर पुरे भारतवर्ष पर शाषण करना चाहता था, अपनी इस योजना को पूरा करने के लिए वह राजपूतों पर सदैव दबाव बनाये रहता था, उन्हें आपस में लड़ा कर नष्ट करने से भी वह कभी नहीं चुकता था, वह राजपूतों की कमजोरियों को अच्छी तरह से समझ गया था, इसी कारण से उन्हें एक एक कर के झुकाने और बर्बाद करने में सफल रहा. सिरोही का आधा राज्य देवड़ा सुरतान से लेकर जगमाल को देने के बाद अकबर ने अपना पल्ला झाड़ लिया और राजपूतों के बीच लड़ने के लिए हड्डी फेंक दी, सिरोही का राज्य उनकी आपसी फूट को हवा देने का माध्यम बन गया. राजपूतों के आपस में अनेक युद्ध हुए और जगमाल, रायसिंह और कोलिसिंह आदि अनेक राजपूत योद्धा अकबर के मकसद को पूरा करने में काम आये.

शक्ति सिंह का अकबर के शरण में जाना



 शक्तिसिंह महाराणा प्रताप के छोटे भाई थे, उन्हें अपनी बहादुरी पर बहुत गर्व था. वे अपने आप को किसी भी तरह प्रताप से कम मनाने को तैयार थे, उनके अहं ने उन्हें प्रताप से टकराने को विवश किया. अपने अहम् की तुष्टि के लिए उन्हें कोई और आधार मिलता, इससे पहले ही उन्हें राज्य निर्वासन का आदेश मिल गया. अपमान और प्रतिशोध की ज्वाला में जलते शक्तिसिंह उदयपुर से चले तो गए, परन्तु अपने बड़े भाई और मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह से बदला लिए बिना उन्हें चैन नहीं था. कई बार उनके मन में आया की एक बार वो प्रताप के सामने खड़े हो और उन्हें द्वंद युद्ध के लिए ललकारे, फिर या तो वे प्रताप की जान ले ले या फिर उनके हाथों अपनी जान गँवा दे. शक्ति सिंह के लिए अपनी क्षत्रिये धर्म की यही परिभाषा थी. उनके मन में ये कभी नहीं आया की उनके पिता महाराणा उदयसिंह को मुगलों से मुकाबला करने में जाने कितने कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, कितने राजपूत योद्धाओं को बिना किसी अपराध के अपने प्राण गंवाने पड़े थे, कितनी राजपूत ललनाओं को जौहर कर, युवास्था में अपने प्राण गंवाने पड़े थे, अब ये सोचना राणा प्रताप जैसे राजपूतों का काम था, और राणा प्रताप जैसे महापुरषों को नष्ट करने का सोच रखना शक्ति सिंह जैसे संकीर्ण सोच वाले राजपूतों का काम था. इस देश का यही दुर्भाग्य रहा है की राणा प्रताप जैसे व्यापक सोच वाले राजपूत राजा कम पैदा हुए है और शक्ति सिंह जैसे दम्भी और आत्मकेंद्रित राजपूत अधिक पैदा हुए. उन दिनों समूचा देश राजपूतो के छोटे छोटे राज्यों में बंटा था. ऐसे दंभी राजपूतो के राज्यों में जो अपनी मिथ्या हठ और झूठे स्वाभिमान के लिए एक-दुसरे से प्रतिशोध लेने, एक-दुसरे को बर्बाद करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोच पाते थे. वो भूल जाते थे की प्रजा पर शासन करने का दयित्व्य उन्हें मिला था, उनका भी कोई स्वाभिमान है, वे भी किसी व्यक्तित्व, किसी पहचान के हक़दार है, उनकी भी कुछ महत्वाकांक्षाये है, अथवा सामन्य इच्छाएं हो सकती है. उनके लिए प्रजा केवल प्रजा थी और सबसे उपर था उनका दंभ. जिसकी पूर्ति करते समय वे प्रजा की हर इच्छा की बलि देने में भी नहीं चुकते थे. राजपूतों की इसी हठधर्मी और संकीर्णता ने उन्हें एक-दुसरे से टकराने और टकराते रहने पैर विवश किया. बात यही समाप्त हो जाती तब भी शायद भारतवर्ष इतना ताबाह ना होता. बात तो इससे भी आगे जा पहुंची थी. प्रतिशोध की ज्वाला में राजपूत इतने अंधे हो जाते थे की वे अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि, अपना परिवार, अपने रिश्ते-नाते यहां तक की अपना मित्र-धर्म, अपना जातीय दायित्व, अपना सामाजिक दायित्व तक भूल जाते थे. बुध्दिहीन हिंसक पशु की तरह चोट करने पर आमादा हो जाते थे. जब वे अपना बल तोलने पर उससे बदला लेने के लिए कम पते अथवा अपनी कोई विवशता देखते थे तो रुकते नहीं थे, अपितु विदेशी सम्रज्वादी ताकतों, लुटेरों और हमलावरों से हाथ मिला लेते थे. ये हमलावर प्रतिशोध की ज्वाला में जलते राजपूत राजा की मदद करने की उद्देश्य से नहीं आते थे, उसके आड़ में अपना स्वार्थ पूरा करने आते थे. ऐसे नेक हमलावरों और लुटेरों को भारत के अनेक राजाओ ने अपने विरोधी राजाओ का दम्भ चूर करने के लिए विदेशी धरती से भारतवर्ष में बुलाया और उनके लिए भारत वर्ष को गुलाम बनाने का रास्ता खोल दिया. भारत के धरती पर अनेक मुस्लिम ताकतों का जमाव यूँ ही नहीं हो गया था, शक्ति सिंह की नस्ल के घमंडी और महत्वकांक्षी चरित्र इसके लिए जिम्मेदार थे. अकबर मुग़ल सल्तनत का तीसरा बादशाह था, उसके दादा ने बाबर ने भारत में प्रवेश किया था और राजपूत राजाओं की कमजोरियों का फायदा उठाकर उसने अपने देश का एक हिस्सा में अपना राज्य स्थापित कर लिया. बाबर के पुत्र हुमायु ने राज्य सीमओं का विस्तार किया, अकबर ने अपने दादा और पिता के लड़ाकू जीवन तथा साम्राज्य स्थापित करने उसका विस्तार करने की नीतियों को बारीकी से समझा और उसने वही किया, जो कमजोरियां भरे इस देश में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के लिए सबसे अनुकूल था. इतना ही नहीं अकबर अपने पूर्वजों से भी कहीं आगे निकल गया, उसने हिन्दू इस्लाम धर्म में समन्वय के भरी प्रयास भी किये, परन्तु दोनों प्रकार की धार्मिक कट्टरता के कारण उसे अपने उद्देश्यों मे सफलता नहीं मिली. अकबर में मानवता और राजनितिक कूटनीति दोनों का अच्छा समन्वय था. वह एक अच्छा इंसान बनना चाहता था, तथा हिन्दू मुसलमान दोनो पक्षों को भी अच्छे इंसान बनाना चाहता था, परन्तु इस दिशा में काम करते समय वह बहुत सावधानी से काम करता था, वह कभी इतना नहीं बहका की दोनों पाटों में पिस जाए, उसने पुरे होश हवास में प्रयास किये, परन्तु जब उसने देखा की उसके साम्राज्य को कोइ खतरा हो सकता है तो उसने तुरंत पैंतरा बदल दिया, और वह सफल साम्राज्यवाड़ी शाषक साबित हुआ. साम दाम दंड भेद सभी राजनितिक दांव पेंच का इस्तेमाल करते हुए अकबर भारत का प्रसिद्ध शासक के रूप में उभरा, यही कारण है की अकबर का मूल्यांकन करने में काफी सारी कठिनाइयाँ आती है. अकबर में शक्ति से नहीं, तर्क और तरकीब से जीतने की क्षमता थी. शक्ति सिंह अपनी प्रतिशोध की ज्वाला को शांत करने के लिए अकबर के पास जा पहुंचा, अकबर जनता था, की शक्ति सिंह का इस्तेमाल कैसे और कहाँ किया जा सकता है, उसने वही किया अकबर ने शक्ति सिंह को पूरा सम्मान दिया, उसके अआहत अहं को शांत करने के लिए राणा प्रताप से टकराने का रास्ता भी सुझाया, परन्तु शक्ति सिंह पर इतना कभी भरोसा कभी नहीं किया की युद्ध की कमान उसके हाथों में सौंप देता, शक्ति सिंह ने अकबर के बिना पुछे ही राणा प्रताप की सारी कमजोरियां और सीमाये बता दी, और जिद्द की कि राना प्रताप को निचा दिखानी का अवसर दिया जाए. इसपर अकबर ने शक्तिसिंह को सुझाया की प्रताप को नीचा दिखाने के लिए बड़े स्तर में सैनिकों के आक्रमण के स्थान पर क्यों ना राणा प्रताप को धोखे से पकड़ लिया जाए, खून खराबा कम हो तो ज्यादा अच्छा हो, इसपर शक्ति सिंह ने इसे राजपूती धर्म के विरुद्ध समझा और इसका विरोध किया. अकबर को समझते देर ना लगी की शक्ति सिंह शक्तिशाली तो है पर विवेक शुन्य है., इसलिए इसका इस्तेमाल राणा प्रताप के भेद और कमजोरियों को जानने के लिए ही किया जा सकता है, इससे ज्यादा छुट देने पर ये पकड़ से बाहर हो जायेगा.

मानसिंह से सलाह



 अम्बर के राजा भगवानदास ने अपनी बहन जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया था, भगवानदास का पुत्र मानसिंह अकबर का परम विश्वसनीय सेनापति था. अकबर ने मानसिंह को अकेले में बुलाया और मेवाड़ में आक्रमण करने के बारे में बातचीत की. अकबर ने शब्दों को अच्छी तरह से चबाते हुए कहा की – :मानसिंह तुम जानते हो की मैं व्यर्थ में खूनखराबा नहीं चाहता और वह खून खराबा राजपूतों के विरुद्ध हो तो मुझे दुःख होता है, परंतु मेवाड़ के राणा प्रताप सिंह का भाई शक्तिसिंह दिल्ली आया हुआ है, उसे प्रताप ने निर्वासित कर दिया है, उसने बताया की प्रताप चित्तोडगढ वापस लेने के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी भी कर रहा है”. इस पर मानसिंह ने बड़े ही आदर से कहा की ये सब राजपूतों के आपसी झगडे है, शक्ति सिंह प्रताप का भाई है उससे कुछ गड़बड़ हुई होगी और प्रताप ने उसे निर्वासित कर दिया, पर इससे ये साबित नहीं होता है की शक्ति सिंह एक गंभीर व्यक्ति नहीं है, फिर हम उसे गंभीरता से क्यों ले. इसपर अकबर ने कहा की तुम ठीक कहते हो मानसिंह परन्तु प्रताप के बारे में मैंने अन्य राजपूतों और अपने गुप्तचरों से भी सुना है वह कई लोगो में जातीय स्वभिमानता को जाग्रत कर हमसे टकराने के लिए उन्हें तैयार कर रहा है. मानसिंह ने कहा की हमें तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए, प्रताप की मुट्ठीभर राजपूत सेना हमारी सागर सी विशाल सेना का कुछ नहीं बिगड़ सकती है. शत्रु को कभी कमजोर समझने की भूल ना करना मानसिंह, और जब शत्रु राणा प्रताप जैसा योद्धा हो तब तो कदापि नहीं. मानसिंह ने कहा की राणा प्रताप के लिए आपके मन में इतनी कद्र? इस पर अकबर ने कहा की बहादुरों की कद्र करना हमारी फिदरत है. बेशक हम राणा प्रताप की बहादुरी की कद्र करते है. इतना ही नहीं हमारे मन में तो सारे राजपूत कौम के लिए इज्जत है. हम नहीं चाहते है की प्रताप हंसे टकराए और हमें राजपूतों का बेवजह खून बहाना पड़े. इसलिए कुछ युक्ति सोचो और प्रताप को समझा बुझा कर मुग़ल सल्तनत के अधीन कर लो, इसके बाद तो सभी राजपूत खुदबखुद मुग़ल सल्तनत के अधीन हो जायेंगे, बस हमें और कुछ नहीं चाहिए. सारे राजपूतों को झुकाकर मुग़ल सल्तनत के अधीन करने वाली बात सुन कर मानसिंह के मन इन चुभन सी होने लगी उसने अकबर कहा की आप चिंता ना करे मैं शोलापुर के विद्रोह का दमन करने जा रहा हूँ. वहां से लौटते समय मैं प्रताप सिंह से अवश्य मिलूँगा और उन्हें समझा बुझा कर माय=उगल सल्तनत से संधि करने के लिए अवश्य मना लूँगा. इतना सुनकर अकबर ने गहरी सांस ली और कहा की देखो मानसिंह मैं राजपूत कौम का परम हितैषी हूँ, मैं बेवजह राजपूतों का खून नहीं बहाना चाहता हूँ, राजपूत कौम की सुरक्षा मुगल सल्तनत से मिलकर ही रहने में है परन्तु पता नहीं क्यों प्रताप जैसे कुछ राजपूतों को ये बात समझ में ही नहीं आती है. इसपर मान सिंह ने कहा की हाँ जह्पनाह मैं प्रताप से मिलकर उन्हें अवश्य समझाऊंगा और मुझे पूरा विश्वास है की मेरी पहल कका नतीजा अवश्य ही निकलेगा. इतना कहकर मानसिंह वहां से चला गया. शोलापुर का विद्रोह दबाने में उसे भारी सफलता मिली. उसके आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया. शोलापुर से लौटते समय वे मेवाड़ के निकट से गुजर रहे थे , उनके दिल में एक अरमान उठा अब वे प्रताप सिंह से मिलेंगे और दिल्लीपति से सुलह करा उनके सल्तनत को अकबर के अधीन लायेंगे. उन्होंने अपना दूत को राणा प्रताप के पास भेजा. दूत ने राणा प्रताप से भेंट की और अम्बर नरेश का सन्देश उन्हें दे दिया. राणा प्रताप ने दूत को कहा मेवाड़ के नरेश उनके स्वागत के लिए पहुँच रहे हैं..राणा प्रताप ने मानसिंह को सम्मान पूर्वक कुमलमेर ले आये. राणा प्रताप उन दिनों पत्तों से बनी पत्तली पर भोजन करते थे. और उनकी प्रेरणा से सभी राजपूत योद्धा पत्तलों पर ही भोजन करते थे. अपने राज्य को मुगलों के अधिपत्य से मुक्त कराने का संकल्प लेकर वे तपस्वी सा जीवन जी रहे थे पर इसके बावजूद उन्होंने मानसिंह के लिए सोने चांदी की बर्तोनो की व्यवस्था की. सोने की थाली में तरह तरह की व्यंजनों को मानसिंह के पास परोसा गया. राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने भोजन की व्यवस्था स्वयं कराई थी. वे सम्मान पूर्वक राजा मानसिंह से बातें कर रहे थे और भोजन की व्यवस्था के बारे में बार बार पूछ रहे थे. भोजन परोसे जाने के बाद अमर सिंह ने निवेदन किया की महाराज आप भोजन प्रारंभ कीजिये. मान सिंह ने द्वार की ओर देखा और बोले-“तुम्हारे पिता अभी तक नहीं पहुंचे है..क्या वे हमारे साथ भोजन नहीं करेंगे.. अमर सिंह ने अपनी नजरें झुका ली और बोला-“आप भोजन आरंभ कीजिये राजा साहब, पिताजी ने सन्देश भिजवाया है की राजा साहब को आदरपूर्वक भोजन कराया जाए. वो किसी कारन से यहाँ आने में असमर्थ है. राजा मानसिंह ने चौंक कर कहा की आखिर ऐसा कौन सा कारण उपस्थित हो गया है की तुम्हारे पिता हमारे साथ भोजन के लिए नहीं पहुँच पा रहे है….मुझे इसका जवाब चाहिए नहीं तो मैं भोजन नहीं करूँगा. आप बुरा ना माने महाराज आप हमारे अतिथि है आप भोजन आरंभ कीजिये- अमर सिंह ने हाथ जोड़कर विनर्मता पूर्वक कहा. पिताजी के सर में दर्द हो गया है वो भोजन के बाद आपसे अवश्य मिलेंगे. इसपर मानसिंह एकाएक चीखे और कहा अपने पिता से जाकर कह दो की मैं उनके सर में दर्द का कारण जान चूका हूँ अगर वो अभी यहाँ आकार मेरे साथ भोजन में सम्मिलित नहीं हुए तो उनके सर में दर्द का उपचार मैं अच्छी तरह से जानता हूँ और उनका समुचित उपचार अवश्य करूँगा.अमर सिंह ने फिर से विनती की आप भोजन कीजिये महाराज..इसपर मानसिंह क्रोधित हो गए और कहा की आज प्रताप सिंह ने मेरे साथ जैसा व्यव्हार किया है ऐसा व्यवहार क्या किसी राजपूत को शोभा देता है. ठीक उसी समय राणा प्रताप अपने प्रमुख सरदार के साथ राणा प्रताप वहां पहुंचे. राजपूतों को क्या शोभा देता है, क्या नहीं इसका फैसला आप कब से करने लगे राजा मानसिंह? प्रताप सिंह आप मेरा अपमान कर रहे है. नहीं राजा मान सिंह राणा प्रताप किसी का अपमान नहीं करते है.. परन्तु आप जैसे राजपूत के साथ भोजन करना मैं अपने प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता हूँ. राणा प्रताप ये मत भूलों की तूम किसके साथ बात कर रहे हो.जनता हूँ राजा साहब मैं अम्बर के महाराजा मानसिंह के साथ बात कर रहा हूँ. ये वही महाराजा मानसिंह है जिनके पिता ने अपनी बहन मुग़ल सम्राट अकबर के साथ ब्याह दी, ताकि मुग़ल के को से बचा सके और मुगलों के रिश्तेदार बनकर युद्ध के खतरे से मुक्त हो जाये..मैं ये भी जानता हूँ की राजा मानसिंह अकबर के चहेते मुग़ल सेनापति हैउनके अधीन कई लाख सैनिकों वाला विशाल लश्कर है, वे चाहें तो पलक झपकते ही मेवाड़ की ईट से ईट बजा सकते है. मुग़ल सेना को लेकर राजपूतों की मान मर्यादा को रौंद सकते है. यह जानते हुए भी तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई की तुमने मुझे घर बुला कर मेरा इतना अपमान किया. जिसे आप अपना अपमान समझ रहे है राजा मान सिंह वह केवल आपको स्मरण करने के लिए था की आपने इस मिटटी के साथ विश्वासघात किया है.. अपने मातृभूमि को मुगलों के हाथों बंधक्ल रखते तुम्हे तनिक भी लज्जा नहीं आई.. आपने राजपूत के घर जन्म लेकर राजपूती शान को कलंकित किया हैराजपूत वह कौम है, जो भरण-पोषण देने वाली अपनी जन्मभूमि को अपनी माता मानती है और हर कुर्बानी देकर उसकी रक्षा करती हैपर आप जैसे राजपूत ने अपनी गर्दन बचाने के लिए अपनी माँ को बंधक रखना ज्यादा सही समझायदि अकबर से रिश्तेदारी बनाने के स्थान पर अपनी जननी जन्मभूमि की रक्षा के लिए मुगलों के खिलाफ तलवार उठा कर लड़ते लड़ते प्राणों की बलि दे दी होती तो देश की अगली पीढ़ी तुम पर गर्व करती और यदि आप जीवित बच जाते तो आज हम आपके साथ भोजन कर रहे होते और गर्व का अनुभव कर रहे होते. तुम्हारी बातों से जातीय स्वाभिमान और राष्ट्र भक्ति की सुंगध आती है राणा प्रताप सिंह यह सुंगंध मुझे भी अच्छी लगती है. काश हम भी तुम्हारी महत्वकांक्षा में सहयोगी की भूमिका निभा सकते परन्तु अब ईश्वर को मंजूर नहीं है प्रताप सिंह, अब बहुत देर हो चुकी है, अब तो हम सब का भलाई इसी में है की की हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मुग़ल सल्तनत का अंग बनकर उसके साथ खड़े हो जाये.. मैं यही सत्य समझाने के लिए तुम्हारे पास आया था, की अब भी समय है एक मौका है उसे मत गंवाओ मेरी सलाह मान लो और मुग़ल के साथ संधि कर के युद्ध की विनाश लीला से बचो. अगर पूरी राजपूत जाती युद्ध में यूँ ही मरती रही तो हमारा बीज नाश हो जायेगा. अगली पीढियां पढेगी की राजपूत जाती कोई हुआ करती थी और अपने मिथ्या अहंकार और समयानुकूल सोच ना रहने के कारण वह नष्ट हो गयी. नहीं राजा मान सिंह नहीं राणा प्रताप बहुत ही बुलंद स्वर में बोलेयही तोह मुख्य अंतर है हमारी और तुम्हारी सोच में….हम तो यही बात मानते है की दुनिया में केवल वही कौम जीवित बचती है जो अपने आन बान और शान को बचाने के लिए हमेशा अपने सर को कटाने के लिए तैयार रहती है. और वे कौम मिट जाती है जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए शत्रुओं के सामने घुटने टेक देती है. आपने शत्रुओं के आगे घुटने नहीं टेके है लेकिन आपने शत्रुओ के हरम में अपनी बहु बेटियों तक को वास्तु की तरह उठा कर देने का अपराध किया है. भारतवर्ष के इतिहास में आपका नाम काले अक्षरों से लिखा जायेगा.. अगली पीढियां आप पर थूका करेंगी. इसपर मानसिंह चीखे और कहा की प्रताप सिंह लगता है आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है, आपकी बुद्धि को ठीक करने के लिए अब एक ही रास्ता है युद्ध. अबकी बार आप ठीक भाषा बोल रहे है राजा साहब राणा प्रताप को ऐसी ही भाषा पसंद है जाओ जाकर कह दो अपने सम्राट अकबर से यदि उसे अपनी शक्ति पर इतना ही नाज है तो सेना लेकर आये अपनी और राणा प्रतापसिंह से करे दो दो हाथ. तुम्हे अपने बाहू बल पर घमंड हो गया प्रतापसिंह इसलिए मेरे बार बार सहनशीलता का परिचय देने पर भी तुमने मेरा अपमान किया है. सम्राट अकबर की बात छोड़ो मैं स्वयं तुम्हे सबक सिखाने आऊंगा और इसके लिए तुम्हे ज्यादा दिन प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी. तुम्हे तुम्हारा घमंड चूर चूर करके तुमसे पूछुंगा की एक राजपूत को घर बुला कर अपमान करने का परिणाम क्या होता है. चलो नाराजगी में हीओ सही तुम्हारे दिल में राजपूती जज्बा तो आया..जाइये और दल बल लेकर रण भूमि में शीघ्र आईये हमारी तलवारें आपका युद्ध भूमि में स्वागत करेगी. मान सिंह अपने घोड़े पर स्वर हुए और अपने घोड़े को ऐड लगा दी. राणा प्रताप मान सिंह के घोड़े को देखते रहे जब तक की वह उनके आँख से ओझल ना हो गया. फिर वो अपने सरदारों की ओर मुड़े और मुस्कुराये..चलो अब इतिहास हम पर युद्ध छेड़ने का इल्जाम नहीं लगाएगाशत्रु स्वयं ही आक्रमण करेगा. हमें केवल प्रतिरक्षा ही नहीं करनी है, अपितु राजपूती शोर्य से ऐसा इतिहास लिखना है जिसे पढ़ते समय इतिहास हम पर गर्व करें.

मान सिंह के आक्रमण की तैयारी



 मान सिंह ने दिल्ली पहुँच कर कर सम्राट अकबर को राणा प्रताप द्वारा किये गए अपमान की कहानी सुनाई. इसे सुनकर अकबर को बहुत प्रसन्नता हुई. परन्तु अकबर ने अपनी प्रसन्नता को प्रकट नहीं होने दी. वह गंभीर मुद्रा में बोला-“तुम्हारा अपमान मेरा अपमान है मानसिंह, परन्तु मैं खून खराबा से बचना चाहता हूँ.खासकर राजपूत का, राजपूत से टकराना मुझे अच्छा नहीं लगता है. राणा प्रताप राजपूत अवश्य है जह्पनाह परन्तु अहंकार ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है . उसे अपनी वीरता पर बहुत घमंड है. मैंने कसम खाई है की उसका घमंड चूर चूर कर अपने अपमान का बदला लूँगा. अकबर एक क्षण चुप रहा, फिर बोला-“लेकिन मानसिंह तुम तो प्रताप की बड़ी प्रशंसा किया करते थे. तुम तो उसे परम विवेकी और सुलझा हुआ शासक समझते थे. जब जब मैने मेवाड़ को अपने राज्य में मिलाने की बात कही तुमने सदा उसका विरोध किया है. तुम्हारी ही बदौलत अबतक प्रताप चैन से शासन करता रहा, मैं तो राजपूत को अब और ना छेड़ने का मन बना चूका था परन्तु तुम्हारा अपमान…..अकबर ने अपमान की पीड़ा में जलती मानसिंह की आँखों में देख कर बोला, अब तो तुम्हारे अपमान करने की सजा प्रताप को अवश्य मिलेगी, जाओ युद्ध की तैयारियां करो और मेवाड़ की ईट से ईट बजा दो. प्रताप को जीवित पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो. यदि जीवित ना ला सको तो मुर्दा ही सही. पर उसे दिल्ली अवश्य लाना. अकबर को प्रणाम कर मानसिंह वहां से चला गया. अकबर सोचने लगायह राजपूत कौम भी बड़ी विचित्र है. सबसे अधिक लड़ाकू और देशभक्त राजपूत जरा सी बात पर एक दुसरे का खून के प्यासे बन जाते हैकल तक जो मान सिंह राणा प्रताप की प्रशंसा करते नहीं थकता था, आज राणा से अपमानित होकर उसके विनाश का सबब बन गया है. अब राणा प्रताप को धुल में मिलाने का सही अवसर है..मानसिंह की प्रतिशोध की भावना शक्तिसिंह के प्रतिशोध की भावना से मिल कर राणा प्रताप का विनाश अवश्य कर डालेगी. जो काम : महीने तक मैंने प्रताप से युद्ध लड़कर केवल चितौड़ के किले को ही जीत सका अब मानसिंह के कारण मैं पूरा मेवाड़ पर अधिकार करूँगा. अकबर ने तुरंत ही शक्ति सिंह को बुलाया. शक्ति सिंह प्रतिशोध की भावना में जल रहा था. उसने आते ही पुछा जहाँपनाह आप प्रताप सिंह से निबटने का मौका कब दे रहे है? अब मेरे सब्र का बाण टूटने लगा है. इस पर अकबर बोला- अब तुम्हे अधिक इन्तेजार की जरुरत नहीं है. शक्तिसिंह. प्रताप से बदला लेने का मौका तुम्हारे पास खुद ही चल के गया है. तुम्हारे मगरूर भाई ने मानसिंह का अपमान कर अपनी मौत का फरमान खुद जरी कर दिया है. शाही फ़ौज की तैयारी हो रही है देखे तुम्हारी तलवार कितनी गर्दन नापती है. आप मौका तो दीजिये जहापनाह शक्ति सिंह की बान्हे फड़कने लगी.-मैं अकेला ही शाही फ़ौज की विजय का इतिहास लिखूंगा..अवश्य शक्ति सिंह तुम इन मेवाड़वाशियों को बता दो की तुम्हारी शक्ति को ना पहचान कर कितनी बड़ी भूल की है. अपनी प्रसंसा सुनते ही शक्ति सिंह का मुह खुल गया. घर का भेदी शक्ति ने मुग़ल सम्राट अकबर को बता दिया की प्रताप के पास कुल मिलाकर 20-22 हजार सैनिक है इनमे जान पर खेलजाने वाले राजपूतों के अलावा एक बड़ी संख्या में भील भी हैभील एक जंगली जाती होती है, ये गजब के तीरंदाज होते है. वे एकाएक आक्रमण कर गुफाओं में चिप जाते है..और फिर वहां से अचानक निकल कर बिजली की तेज़ी से आक्रमण करते है.. इनसे निपटने के लिए एक विशेष प्रकार की रणनीति बनानी होगी. अकबर ने शक्ति सिंह का सारा भेद जानने के बाद सफल रणनीति तैयार करने के उद्देश्य से फौजी हाकिमो की बैठक बुलाई..इस बैठक का केंद्र शक्तिसिंह थे..फौजी हाकिम बड़ी ही सावधानी से शक्ति सिंह से सैनिक महत्त्व के सारे भेद उगलवा लिए.अब फौजी हाकिम अपनी जीत के प्रति और अधिक आश्वस्त हो गए. शाही फ़ौज की जीत सुनिश्चित होने लगी. परन्तु बहुत सोच विचार के बाद भी शाही फ़ौज के सेनापति के चयन की समस्या नहीं हल हो सकी. अकबर का मन था की सेना का पूरा दायित्व मानसिंह ही संभाले. मानसिंह पर अकबर का पूरा भरोसा था. मानसिंह अब तक कई शाही फ़ौज का सेनापतित्व कर चुका था. उसके नेतृत्व में सही फ़ौज ने कई युद्ध जीते भी थे. परन्तु संकट ये भी था की मान सिंह के सेनापति बनते ही बागी हो जाने का खतरा था. अकबर के कूटनीति के हिसाब से शक्तिसिंह के हौसले को कहीं से भी कम होने देना शाही फ़ौज की हवा निकलने जैसा था. अकबर ने बहुत ही विवेक से काम लिया और मानसिंह व् शक्तिसिंह को एक ही तुला में तोला और अपने पुत्र सलीम को सेनापतित्व का दायित्व सौंपा. राणा प्रताप को अपनी शक्ति और राजपूत के स्वाभिमान पर अटूट विश्वास था. वे जानते थे की अकबर से युद्ध करना सर्वनाश को आमंत्रण देना है, परन्तु वे ये भी जानते थे की अकबर के सामने स्वेच्छा से झुक जाना और उसकी अधीनता को स्वीकार कर लेना अपमानजनक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है. यदि इसी तरह सभी शासक मुगलों के समक्ष बिना किसी प्रतिरोध के आत्मसमर्पण करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब राजपूति संस्कृति ही नहीं वरन पूरी की पूरी हिन्दू संस्कृति ही मिट जाएगी. अत्याचार और अन्याय का विरोध ही वास्तव में मानव धर्म है. सच्चे राजपूत का धर्म है, जो पृथ्वी पर आया है, चाहे वो स्वयं हो अथवा अकबर, पर मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो अपने धर्म का निर्वाह करते हुए मृत्यु को प्राप्त करे. गुलामी के सौ वर्ष से ज्यादा प्रताप की आजादी का एक पल प्रिय था. गुलामी की चुपड़ी रोटी की जगह आजादी की घास की रोटी प्रताप को ज्यादा मीठी लगती थी. यही कारन था की तमाम दबाव के बावजूद प्रताप ने अकबर के विरुद्ध युद्ध करना ही श्रेष्ट समझा.

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