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महाराणा प्रताप का संघर्षपूर्ण जीवन


 अकबर लगभग पुरे मेवाड़ पर अपना अधिपत्य जमा चूका था. और राणा प्रताप के पास बहुत बड़ी चुनौती थी. पर राणा प्रताप ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को भी बड़ी ही सरलता के साथ पूरा करते गए, एक एक करके महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि को मुगलों के चंगुल से स्वतंत्र कराते गए. जब ये बात अकबर को पता लगी तो उसे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि हल्दीघाटी के इस विशाल युद्ध में जिस तरह से प्रताप और उनके वीरों ने अपना शोर्य दिखाया था उससे तो ये स्पष्ट ही था की मेवाड़ में मुग़ल सेना ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकती है. अतः मेवाड़ को जीतने के स्थान में अकबर ने सदा राणा को पकड़ने के लिए दबदबा बनाये रखा. राणा के बहादुर साथी और भील सदा ही उनकी रक्षा अपने प्राणों पर खेल कर करते रहे. उन दिनों आगरे के किले में नौ रोज का मेला लगा करता था. उस मेले की विशेषता यह थी की उसमे केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती थी. भारत के विभिन्न हिस्सों की विशेष चीजे इस मेले बिक्री के लिए आती थी. परन्तु बेचने और खरीदने वाले पुरुष नहीं होते थे, स्त्रियाँ ही इस मेले का सारा दायित्व संभालती थी. मुग़ल सम्राट अकबर ही एक मात्र ऐसा पुरुष था, जो इस मेले में घूमने के लिए स्वतंत्र था. इस समय तक अपनी आपसी फूट और कमजोरियों के कारण प्रायः सभी राजपूत राजा अपने छोटे छोटे राज्यों को मुग़ल सामराज्य के अधीन कर चुके थे और अकबर के प्रति दासता के भाव में उनमे हीनता उत्पन्न कर दी थी. प्रति वर्ष इस मेले में अनेक राजपूत स्त्रियों का मान हनन होता था. राजपूतों में अनेक बार इस मेले को लेकर चर्चा हो चुकी थी, परन्तु वे इस मेले को लेकर खुल कर आलोचनाएं नहीं कर पाते थे. इसे बंद कराने की इच्छा हर राजपूत को थी पर इसे बोलने का साहस कोई नहीं जुटा पता था. एक बार सम्राट अकबर ने दरबार के कवि महाराज पृथ्वीराज की पत्नी जोशाबाई के साथ मेले में अभद्र व्यवहार करने का प्रयत्न किया, वह सतिव्रता स्त्री ये सब सहन ना कर सकी और उसने पूरी घटना अपने पति को बताने के बाद रात में आत्महत्या कर ली. जोशीबाई की आत्महत्या का समाचार जंगल की आग की तरह सारे राज्पूतो में फ़ैल गया और देखते ही देखते राजपूत भड़क उठे. राजपूत के आक्रोश को समझकर अकबर चौकन्ना हो गया और उसने तुरंत ही मेले को सदा के लिए बंद करवा दिया. मेले के बंद होने से राजपूतों ने राहत की सांस ली,परन्तु सम्राट अकबर की कूटनीति, राजपूतों की शक्ति से राजपूतों को तबाह करने और मुग़ल साम्राज्य की नींव को मजबूत करने की योजना को वो पूरी तरह से समझ चुके थे. उनमे से अनेक ऐसे थे, जो मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी का युद्ध लड़ चुके थे. अनेक ऐसे थे,जिन्होंने राजपूतों के एकमात्र आशा स्तम्भ महाराणा प्रताप को कमजोर करने में अकबर का साथ दिया था. जोशीबाई आत्महत्या काण्ड ने ऐसे राजाओं की आत्मा को झकझोर दिया था और वे अपने आप को अकबर को सहयोग देने और महाराणा प्रताप को हानि पहुँचाने के लिए दोषी माननें लगे थे


उधर महाराणा प्रताप हल्दीघाटी की युद्ध में अकबर की नींद को उदा देने के बाद बिठुर की जंगलों में जा छिपे थे. उनके परिवार को उनके पास सुरक्षित बुला लिया गया था. उनकी स्थिति बहुत ही दैन्य हो गयी थी, जंगलों में मुग़ल सैनिकों से बचते बचाते वे अनेक प्रकार का कष्ट झेल रहे थे. उन्हें सबसे ज्यादा कष्ट तब होता था जब उनकी जान बचाने के लिए कोई आगे बढ़कर अपनी जान दे देता था. हल्दीघाटी की युद्ध के बाद अकबर की नींद उड़ गयी थी . उसे डर था की समस्त राजपूताने के राजपूत के दिल में कहीं राणा प्रताप के लिए प्यार और इज्जत ना पैदा हो जाये. हल्दीघाटी का रण कौशल ने प्रताप का पद ऊँचा कर दिया था, उस समय की स्थिति ऐसी हो गयी थी की राजपूताना ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष में राणा प्रताप और उनके वीर चेतक की गाथा सुने जाने लगी थी, कवि राणा प्रताप की वीरता में कविता लिखने लगे थे, स्त्रियाँ राणा प्रताप की वीरता और शोर्य के गीत गाने लगी थी, देश का माहौल में अजीब सा बदलाव नजर आने लगा था, इस बदलाव में राणा प्रताप की तरह भारतवासी गुलामी की बेड़ियों से आजाद होकर स्वाधीन होने के सपने देखने लगे थे. बच्चे मेवाड़ के पराक्रम को बड़े ही ध्यान से सुनने लगे थे, जगह जगह नाट्य रूपांतरण के द्वारा महाराणा प्रताप की शूरवीरता को दर्शाया जाने लगा और अकबर को धोखे से छलने वाला, कपटी और धूर्त बताने लगे थे. असहाय और साधनहीन महाराणा अपनी तथा अपने परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए भीलों की मेहरबानी पर दिन काट रहा था और अकबर उसे जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए भीलों की टोली को जंगल जंगल भेज रहा था. मुग़ल सैनिक महाराणा के नाम से थर्राते थे. परन्तु अकबर के आदेश के आगे विवश थे. अनेक सैन्य टुकड़ियाँ विभिन्न जंगलों में राणा प्रताप की टोह में लगी थी. राणा प्रताप की सुरक्षा के लिए भील अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिए थे. अनेक बार ऐसे अवसर भी आये की कई बार मुग़ल सैनिक टोह लेते लेते राणा प्रताप के बिलकुल ही पास पहुंचे और छापामार कर बस उन्हें पकड़ने ही वाले थे की सही वक़्त पर भीलों की टोलियाँ ने उन्हें आगे बढ़कर चुनौती दी. मुग़ल सैनिक के साथ मुठभेड़ में अनेक भीलों ने अपनी जाने गँवा दी और राणा प्रताप को अपने छिपने के स्थान से भाग जाने का अवसर प्रदान किया. भीलों की कुर्बानियों के कारण राणा प्रताप का मन बुरी तरह से दुखी हो गया. ऊपर से उनकी पत्नी तथा बच्चों के शारीर भूख का ताप सहते सहते सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे. मन के साथ साथ महाराणा का शरीर भी टूटने लगा था. उनकी समझ में नहीं रहा था की क्या करे. जंगलों में छिप कर रहने से उनकी बहरी दुनिया से संपर्क बिलकुल ही टूट गया था. उनके परिवार के अन्य सदस्यों का भार भीलों ने विभिन्न स्थानों में उठाया हुआ था. राणा तक यह समाचार बराबर पहुँच रहे थे की मेवाड़ की जनता अपने राणा पर गर्व करते है, वे अपने राणा पर अपना तन मन धन सब कुछ न्योछावर करने को तैयार है, किन्तु कंदराओं में छिप कर जनत अक सहयोग कैसे लिया जा सकता था. राजपूत जाति के बिखराव और पतन में कोई कमी नहीं रह गयी थी. स्वयं महाराणा प्रताप के भाई और भतीजे विरोधी खेमे में चले गए थे. अनेक राजपूत आकबर की अधीनता को स्वीकार कर चुके थे. इन्ही राजाओं की शक्ति के कारण अकबर ने राणा को चारों ओर से घेर रखा था. कई राजपूत राजाओं ने मेवाड़ के कई हिस्सों में अपना अधिकार जमा लिया था. लगभग पूरा मेवाड़ फिर से अकबर के अधीन हो चूका था. ऐसे में राणा प्रताप के सब्र का बाँध टूट गया. महाराणा की पत्नी ने किस तरह घास-पात एकत्रित की, उनसे कुछ रोटियां बनाई और कई दिनों से भूखे दोनों बच्चों के सामने रख दी. इतने में जंगल से एक बिलाव आया और बच्चों के आगे से रोटियां उठा के ले गया. अब किसी भी तरह से रोटियां नहीं बनाई जा सकती थी और बच्चे भूख से बिलख रहे थे. बच्चों को रोता देख पत्नी भी दुखी हो गयी.

पृथ्वीराज द्वारा महाराणा को प्रोत्साहित करना


 अपने बच्चों को भूखा देखकर अब राणा प्रताप का धैर्य टूट गया था. उन्होंने सोचा की वो तो भूखा रह सकते है परन्तु अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकते है. इस विचार से उन्होंने तुरंत अकबर को एक संधि पत्र लिख डाला. और अपने अनुचर के हाथों अकबर के पास भेजवा दिया. अपनी पत्नी जोशाबाई की मृत्यु के पश्चात् पृथ्वीराज बहुत परेशान रहने लगा था. उसका मन होता था की किस तरह बस महाराणा प्रताप के पास पहुँच जाए और एक सच्चे राजपूत की तरह अकबर से बदला लिया जाए,परन्तु स्थितियां इतनी प्रतिकूल थी की राजपूतों को अकबर की दया पर जीना पद रहा था. राजपूतों का एकमात्र आशा दीप राणा प्रताप अकबर के प्रकोप से बचने के लिए जंगल जंगल भटक रहा था. ऐसे में अकबर से बदला लेना असंभव था और बदला लिए बगैर पृथ्वीराज का मन उसे चैन से सांस लेने नहीं दे रहा था. उसका मन अकबर से विद्रोह के लिए चीत्कार रहा था. मन के चीत्कार को दबाते हुए उसने शाही दरबार में प्रवेश किया. अकबर के सामने झुककर सलाम किया और आसन पर बैठ गया. उसने देखा की मुग़ल सम्राट आज कुछ ज्यादा ही खुश है. सब दरबारी जब अपने अपने आसन पर बैठ गए तो अकबर ने ये घोषणा की कि राणा प्रताप ने हमें संधि भेजा है. सारे दरबारी आश्चर्य से देखने लगे, दरबार में कौतुहल का माहौल बन गया, सब कहने लगे असंभव ये नहीं हो सकता….ये तो अनहोनी हो गयी. क्षण भर में ही अनेक प्रतिक्रियां दरबार भर में गूँज गया. अकबर को अपने कानो पर विश्वास करना मुस्किल हो रहा था, दरबार में ये पहली बार हुआ था की दरबार की मर्यादा को भूल सभी दरबारी बस अपनी प्रतिक्रिया देते चले गए. कूटनीतिज्ञ अकबर ने संक्षिप सी घोषणा करने के बाद एक एक करके सभी दरबारियों का चेहरा देखा. राजपूतों के चेहरे में आये भावों को पढ़कर अकबर दहल गया.अधिकांश राजपूत के चेहरे टन गए, कुछ राजपूत उदास हो गए और उनमें से कुछ झूठी प्रसन्नता के भाव व्यक्त करने लगे, जाहिर सी बात है की यह समाचार सुनकर उन्हें ख़ुशी नहीं हुई थी. संधि पत्र की बात सुनकर पृथ्वीराज घम्भीर हो गए थे, राजा पृथ्वीराज के सीने में एक हुक सी उठी जिसे दबाने के लिए वे पूरी शक्ति से प्रयास कर रहे थे. उसी समय अकबर ने राजा पृथ्वीराज को टोक दिया आपका क्या मत है राजा साहब? पृथ्वीराज अपने आसन से उठे और बोले असंभव जहाँपनाह……मुझे तो लगता है संधि पत्र जाली है..महाराणा प्रताप संधि पत्र लिख नहीं सकते है. क्यों राणा भी आखिर एक इंसान है इतने दिनों तक कष्ट सहते सहते तंग गए होंगे. उनके पास मुग़ल सल्तनत से टकराने के लिए बचा ही क्या है. अकबर ने य्दयापी सच बात बोली थी,परन्तु ये बात राजपूतों को अच्छी नहीं लगी. पृथ्वीराज तो अकबर की बात से बौखला गए और बोलेमहाराणा प्रताप कोई साधारण इंसान नहीं हैवे सिर झुकाने की बजाये सिर कटाने में विश्वास रखते है. अकबर मुस्कुराया और कहा आपकी बात में दम है राज साहब..हम सब लोग आपसे इत्तेफाक रखते है परन्तु एक बात तो आप मानेगें ना की मुग़ल सल्तनत से हाथ मिलाने का अर्थ सिर झुकाना नहीं बल्कि सिर उठा कर साथ साथ चलना है, ये हम सब का ही तो सल्तनत है. राजा पृथ्वीराज का पारा चढ़ा हुआ था वो चुप नहीं रह सके उन्होंने कहा कीप्रताप एक अलग किस्म के इंसान है मुझे नहीं लगता है की ये संधि पत्र उनका है अगर आपकी इजाजत हो तो मैं स्वयं इसकी तहकीकात करना चाहूँगा. “इजाजत है“- आप अपने स्तर से तहकीकात कीजिये और सच्चाई जानकर हमें ज्ञान दीजिये. इतना कहकर अकबर उठ गया. जो कुछ भी दरबार में हुआ उससे उसका मन खिन्न हो गया.


  परन्तु वो इतना घम्भीर व्यक्ति था की अपनी मन की खिन्नता किसी के सामने जाहिर नहीं होने दी. राजा पृथ्वीराज सीधे घर पहुंचा और उन्होंने महाराणा प्रताप को कवि की मार्मिक छंदबद्ध लम्बा पत्र लिखा और महाराणा के पास भिजवा दिया. उन दिनों महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह मुगलों के गिरफ्त से भागकर राजपूत बहुल क्षेत्रों में चले गए थे और अकबर के अधीन राजपूत क्षेत्रों में घूम घूम कर महाराणा प्रताप के नाम से सेना का गठन कर रहे थे. ऐसा जादू था महाराणा के नाम में की जो सुनता वह उनके लिए आगे बढ़कर सहयोग देने को तैयार हो जाता. गांव गांव घूम कर शक्तिसिंह ने प्रताप के नाम से सेना का संगठन किया. मुगलों के अधीन किन सहारा का दुर्ग जीत लिया. यद्यपि शक्तिसिंह को अनेक राजपूत बुजुर्गों की नाराजगी झेलनी पड़ी. शक्तिसिंह की करतूत के बारे मैं जिन्हें पता था वो पहली मुलाकात में ही शक्तिसिंह से बिगड़ जाता था परन्तु जब शक्तिसिंह अपने पश्चाताप की बातें बताता तब उन्हें विश्वास हो जाता था की जो उनके सामने खड़ा है वो महाराणा प्रताप का विरोधी नहीं बल्कि महाराणा प्रताप के लिए शक्ति अर्जित करने वाला शेर दिल राजपूत है. उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए युवक और अधेड़ उम्र के व्यक्ति पुरे जोश और लगन के साथ आने लगे थे. शक्तिसिंह की केवल एक ही इच्छा थी की वे एक बड़ी सेना का गठन कर, अपने भाई राणा प्रताप से मिले और उनसे उस सेना का नेतृत्व करा कर मुगलों से टक्कर लेने का निवेदन करें, परन्तु एक दिन शक्तिसिंह के कानो तक राणा प्रताप की संधि की बात पहुंची शक्तिसिंह को अपने कानो में विश्वास नहीं हुआ वे बिलकुल भी नहीं चाहते थे की महाराणा अकबर के सामने झुके. वे तुरंत बिठुर के जंगलों की ओर चल दिए और पता लगाते लगाते राणा प्रताप के पास जा पहुंचे. राणा प्रताप के पास उस समय अनेक सरदार मिलने को आये हुए थे सभी उनसे यही निवेदन कर रहे थे की मुगलों से संधि कर वो अपने आप को छोटा ना करें. राणा के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे. ऐसे समय में शक्तिसिंह ने क्षमायाचना के बाद अपने दुर्ग और अपने सेना का पूरा विवरण प्रताप सिंह को दिया और उनसे निवेदन करने लगे की वे इरादा बदल दे, अन्यथा राजपूतों का सूरज सदा के लिए डूब जायेगा. राणा प्रताप भी पुरे मन से संधि के लिए तैयार नहीं थे, परन्तु युद्ध के लिए जितनी तैयारी की आवश्यकता थी, वह सब जुटा पाना असंभव सा लग रहा था. बिना धन के इतनी बड़ी सेना का संगठन कैसे संभव था की मुग़ल सेना से टक्कर ली जा सके. उसी समय महाराणा को पृथ्वीराज का पत्र मिला. महाराणा ने बड़ी ही गंभीर मुद्रा में उस पत्र को पढ़ा- उस पत्र का आशय था यदि आप अकबर की अधीनता को स्वीकार कर लेंगे तो संसार से वीरता का इतिहास मिट जायेगा. सूर्य पश्चिम में उदय होने लगेगा और पूर्व दिशा में अस्त होने लगेगा. सब कुछ उलट पलट हो जायेगा. जिन राजपूतों ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए है, सच्चाई तो ये है की वे राजपुत भी नहीं चाहते की प्रताप सिंह अकबर के सामने घुटने टेके. अंत में पृथ्वीराज ने लिखा कीअंत में मुझे ये बताये की मैं अपनी मुछे ऊँची रखु या कटवा डालूं, और राजपूतों की विवशता पर अपना माथा ठोक लूँ? पत्र पढ़ते पढ़ते महाराणा का मुख लाल हो गया. उनकी बाँहें फड़कने लगी उनके मस्तक में एक नई सी चमक गयी. वे खड़े हो उठे और कहने लगे नहीं नहीं मैं कभी नहीं झुकूँगा, प्रताप सिंह को ये कहते सुन सबके चेहरे में फिर से चमक गयी. उसके बाद प्रताप अपने सभी साथियों के साथ एक नई सेना के गठन के मुद्दे पर विचार विमर्श करने में जुट गए. विचार विमर्श करने के बाद सभी लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे की नई सेना के गठन के लिए मेवाड़ के पास धन का आभाव है. ये एक बहुत बड़ी समस्या था की आखिर धन कहाँ से जुटाया जाए. धन के आभाव में ही राणा प्रताप के सेना के कई सैनिक उनको छोड़ चुके थे.

भामाशाह का योगदान और महाराणा का विजय अभियान


 भामाशाह चितौड़ के बड़े धनपति थे. उनके पास अपार धन सम्पदा थी, मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने चितौडगढ़ का त्याग कर दिया था. कई वर्षों तक उन्होंने मुगलों से अपनी धन संपत्ति को छुपाये रखा. वे कई दिनों से राणा प्रताप की तलाश में थे क्योंकि उन्हें पता था की राणा को युद्ध के लिए धन की आवश्यकता है. उनकी हार्दिक इच्छा थी की महाराणा उनका धन ले ले और एक मजबूत सेना का गठन कर मुगलों से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ. जब भामाशाह को राणा प्रताप का पता चला तो वो तुरंत अपना सब कुछ लेकर राणा प्रताप के पास जा पहुंचे, उन्होंने आग्रह किया की ये धन वो ले ले और एक सेना का संगठन कर मुगलों को मुंह तोड़ जवाब दे. भामाशाह का निवेदन को महाराणा प्रताप ने अति संकोच के साथ स्वीकार किया. यह राशी इतनी बड़ी थी की इससे 5000 हजार सैनिकों को 12 वर्षों तक वेतन दिया जा सकता था. इतनी बड़ी राशी का योगदान देकर भामाशाह इतिहास में अपना नाम अमर करवा गए. महाराणा प्रताप ने भी उनकी अपने मातृभूमि के लिए योगदान देने पर बहुत प्रसंशा किये. सबने भामाशाह का कृतज्ञता व्यक्त की सबके चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे . शक्तिसिंह के हृदय में युद्धोन्माद लहरे लेने लगा. भामाशाह से धन लेने के बाद राणा प्रताप ने अपने सेना को संगठित किया. अनेक राजपूत राजाओं ने आगे बढ़कर राणा प्रताप का सहयोग दिया. शक्तिसिंह ने भी अपने द्वारा संगठित सैन्य शक्ति राणा प्रताप को दे दी. और अब वह राणा का वफादार सैनिक बन गया. राजा पृथ्वीराज ने अकबर से प्रतिशोद लेने के लिए अकबर का साथ छोड़ दिया और वे राणा प्रताप से आकर मिल गए. राणा प्रताप ने हमले कर मुगलों को कुमलमेर से खदेड़ दिया. पुरे कुमलमेर क्षेत्र में फिर से महाराणा ने कब्ज़ा कर लिया. मुग़ल सेना पहले ही राणा प्रताप के गुरिल्ले युद्ध से आतंकित थी. जहाँ जहाँ महाराणा ने दबाव बनाया वहां वहां मुग़ल सेना पीछे हटते चली गयी. किनसहारा का किला अभी भी शक्तिसिंह के कब्जे में था. अकबर ने राजा मानसिंह को आदेश दे दिया की किनसहारा का किला को शक्तिसिंह से छीन लिया जाए.मानसिंह ने महाबत खान को बुलाकर उसे 10 हजार सैनिक दिए और शक्तिसिंह पर आक्रमण करने को कहा. महाबत खान ने किनसहारा किला पहुँच कर शक्तिसिंह को चुनौती दी उस समय शक्तिसिंह केवल 1 हज़ार सैनिको के साथ किले की रक्षा कर रहा था. महाबत खान ने किले की घेराबंदी कर दी और आशा कर रहा था की रसद खत्म होने पर शक्तिसिंह अपनी सेना लेकर किले से बाहर निकलेगा, तब उसे मार गिराया जायेगा. परन्तु शक्ति सिंह ने हार नहीं मानी. शक्तिसिंह ने तुरंत ही महाराणा प्रताप के पास खबर भिजवा दी. महाबत खान ने दुर्ग के पूर्व की दिवार तोड़ डाली और उसकी सेना किले में घुसने की तयारी करने लगी. शक्तिसिंह ने मुकाबला करते हुए मरने का फैसला कर लिया था. परन्तु ठीक उसी समय महाराणा प्रताप की जयजयकार शक्तिसिंह के कानो तक पहुंची, शक्तिसिंह बिना समय गंवाए आक्रमण का आदेश दे दिया. उसी समय प्रताप की सेना भी पिछे से पहुँच गई. दोनों सेनाओं ने मिल कर महाबत खान की सेना को घेर लिया. मुग़ल सेना दो पाटों के बीच फंस गयी. महबत खान को कैद हो गई. जब उसे महाराणा के सामने लाया गया तो उन्होंने महबत खान को छोड़ दिया. इस प्रकार से किनसहारा का किला बच गया. इस युद्ध में मुगलों के 10 हजार सैनिकों में से 8 हजार सैनिक मारे गए. राणा के विपुल युद्ध सामग्री हाथ लगी . राणा प्रताप ने अपनी बहादुरी और जन सहयोग से अकबर द्वारा जीता गया लगभग सारा क्षेत्र फिर से जीत लिया. अपनी सेना को आधूनिक साज सामग्री से युक्तकर, महाराणा ने कुम्भलगढ़ को अपना केंद्र बना लिया. अकबर ने अक्टूबर 15, 1577 को शाहबाज खां के नेतृत्त्व में एक विशाल सेना कुम्भाल्गढ़ में आक्रमण के लिए भेजा. ऐसा माना जाता है की राजा मानसिंह और भाग्वान्तदास को इस युद्ध से दूर रखा गया था क्योंकि उनके मन में राणा प्रताप के लिए सहानुभूति थी. राजपूत के सिरमौर प्रताप को अधिक सताए जाने के कारन ये राजपूत अकबर के विरुद्ध होने लगे थे, परन्तु अकबर की आँखों में प्रताप चुभ रहे थे. अकबर का पक्का विश्वास था की प्रताप के रहते मुग़ल सल्तनत सुरक्षित नहीं था. प्रताप के नेतृत्व में वह जादू है की राजपूत कभी भी उसके पिछे खड़े हो सकते है. अतः वह बड़ी ही सावधानी से प्रताप को कमजोर करने में लगा था. कुम्भलगढ़ के युद्ध में प्रताप ने तोंपो का भी इस्तेमाल किया था. ऐसा उल्लेख मिलता है की शाहबाज खां हर कोशिश करके हार गया परन्तु प्रताप के तोंपो का जवाब नहीं दे पाया. हर संभव प्रयास के बाद भी वह किले पर कब्जा नहीं कर पाया. अंत में उसने एक चाल चली उसने प्रताप के तोंपो के बारूद में शक्कर मिला दी जिससे की तोंपो के टुकड़े टुकड़े हो गए. और मुग़ल सेन प्रताप के सेना में हावी हो गयी. एक बार फिर प्रताप को करारी हार का मुंह देखना पड़ा. राणा प्रताप किला छोड़ कर,परशुराम महादेव के मार्ग से रणकपुर चले गए और वहां से चावंड जा पहुंचे. प्रताप के सुरक्षित पहुँचने तक राजपूतों ने किला का दरवाजा नहीं खोला और फिर फाटक खोल दिया. फाटक के खुलते ही मुग़ल सेना किले में प्रवेश कर गयी..बचे हुए राजपूत मुग़ल से भीड़ गए..एक एक राजपूत कई कई मुगलों को मारकर वीरगति को प्राप्त किया.

अप्रैल 1578 को कुम्भलगढ़ का दुर्ग शाहबाज खां ने जीत लिया. किला जीतकर शाहबाज खां ने उसे गाजी खां को दे दिया और स्वयं उसने कई मोर्चे बनाकर उदयपुर, गुगुन्दा, चावंड आदि के क्षेत्र को जीते. शाहबाज खां ने लगभग पूरा मेवाड़ को राणा प्रताप से फिर से छीन लिया और राणा को अपने महत्वपूर्ण पहाड़ियों के क्षेत्र से पीछे हटना पड़ा. मेवाड़ विजय के बाद मई 1578 में शाहबाज खां वापस चला गया. शाहबाज खां के लौटते ही राणा प्रताप ने तुरंत हमले आरंभ कर दिए और कुंभलगढ़ को छोड़ कर सारा क्षेत्र फिर फिर से मुगलों से छीन लिया. 11 नवम्बर, 1579 को शाहबाज खां ने फिर से मेवाड़ पर चढ़ाई की, परन्तु इस बार उसका उद्देश्य केवल महाराणा प्रताप को कैद करना था. उसने अपनी पूरी फ़ौज महाराणा के पीछे लगा दी. महाराणा ने बड़ी ही चतुराई से अपना बचाव किया. जन-सहयोग के कारण शाहबाज खां राणा प्रताप को बंदी नहीं बना पाया. कभी भील उनकी सुरक्षा में अपनी जान अड़ा देते थे तो कभी राणा के चाहने वाले उनके सुरक्षा में मदद करते थे. मुग़ल सेना ने हर पहाड़ी का चप्पा चप्पा छापा मारा परन्तु राणा और उसके परिवार तक पहुँच ना सकी. अंत में निराश होकर उसने वापस लौटने का निश्चय कर लिया. मई 1580 को अकबर ने शाहबाज खां को वापस बुला लिया. बाद में शाहबाज खां से अकबर ने अजमेर की सूबेदारी वापस ले ली और अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बना दिया. अब मेवाड़ में सैनिक करवाई का दायित्व खानखाना पर गया. अब महाराणा प्रताप फिर सक्रीय हो गए. उन्होंने अनेक हमले कर कुंभलगढ़ सहित सम्पूर्ण पश्चिमी मेवाड़ पर कब्ज़ा कर लिया. 5 दिसम्बर 1584 को एक बार फिर जगन्नाथ कछावा ने राणा प्रताप को घेरा. इस बार का उद्देश्य राणा प्रताप को गिरफ्तार करना था, उसने पुरे पर्वतिये क्षेत्र में महाराणा का पीछा किया, परन्तु गिरफ्तार करने में असमर्थ रहा. इस प्रकार हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के बाद अकबर ने अनेक आक्रमण किये अनेक चाले चली परन्तु वह महाराणा के लिए परेशानी पैदा करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सका. अकबर चैन से बैठा और ना ही उसने महाराणा को चैन की सांसे लेने दी परन्तु उसने अपनी सारी ताकते झोंक कर भी महाराणा को अंतिम रूप से झुका ना पाया. अनेक संघर्षो और युद्धों के बाद बार बार मेवाड़ राज्य कई बार मुगलों के हाथों चला गया पर अंततः महाराणा ने मंडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ को छोड़कर पुरे मेवाड़ में अपना अधिपत्य स्थापित कर ही लिया.

अकबर द्वारा युद्ध विराम की घोषणा




 अब प्रताप ने उदयपुर से 57 मील की दुरी पर स्थित चावंड में अपनी राजधानी स्थापित कर ली.1583 के बाद महाराणा का केंद्र स्थल चावंड नगर बन गया. अकबर जब सारे प्रयत्न कर के हार गया और उसे राणा प्रताप को काबू में करने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो वह बुरी तरह से बौखला गया. उसने मानसिंह को एकांत में बुलाया और स्थिति की गंभीरता पर विचार किया. मानसिंह ने अकबर को सूचित किया की राजपूत महाराणा पर बार बार आक्रमण करने की निति से प्रसन्न नहीं है. महाराणा ने बेमिसाल बहादुरी का परिचय देकर मुग़ल शक्ति को हर बार नाकामयाब कर दिया है. ऐसे बहादुर व्यक्ति की तबाही से राजपूत क्षुब्ध है. स्वयं मानसिंह ने राणा प्रताप पर और अधिक आक्रमण ना करने की निति से सहमती जताई. अकबर समझ गया था की यदि राणा पर और अधिक हमले किये गए तो राजपूत बगावत पर उतर जायेंगे और जिस मंतव्य से राणा शेर की तरह डटा हुआ युद्धों की विभीषिका को झेलता रहा है उसमे वह कामयाब हो जायेगा. एक बार राजपूत उसके हाथ से निकल राणा प्रताप के साथ हो गए, तब सम्पूर्ण मुग़ल सल्तनत ही खतरे में पड़ सकता है. अगले ही दिन उसने एक महत्वपूर्ण घोषणाएं कर डाली, घोषणा यह थी की महाराणा प्रताप से मुग़ल सम्राट की अब कोई दुश्मनी नहीं है, जब तक प्रताप जीवित है उनपर मुगलों की ओर से कोई और हमला नहीं किया जायेगा. अकबर ने सभी राजपूत से अपने गलतियों के लिए क्षमा याचना की, राजपूतों को और क्या चाहिए था, मुग़ल सम्राट अकबर उनसे क्षमा मांग रहा है इससे प्रतिष्ठा वाली बात और क्या हो सकती है. मुग़ल साम्राज्य से कटकर महाराणा के पीछे एक जुट होने का जो संकल्प उनके मन में जागा था,वो एक कच्चे घड़े की तरह टूट गया था. महाराणा प्रताप को जब ये पता लगा की अकबर उनसे संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया है तो उन्हें बड़ी निराशा हुई. वे उस मिटटी के बने राजपूत थे, जो शत्रु द्वारा उदारता दिखाए जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते थे. फिर अकबर से उनकी शत्रुता तो कई पीढियां पुरानी थी. मुगलों से संघर्ष करना उनकी जीवन शैली में शामिल हो गया था. सम्पूर्ण युद्ध विराम के समाचार से उन्हें ऐसा लगा की जैसे सारे काम एकाएक रुक गए हो. वास्तविकता तो ये थी की 25 वर्षो से निरंतर युद्ध करते करते उनका शारीर जर्जर हो चूका था उन्हें आराम की सख्त जरुरत थी. परन्तु राणा प्रताप ने अपने सुख चैन और आराम को कभी भी महत्त्व नहीं दिया. उनकी एकमात्र चिंता बस यही थी की देश के राजपूतों में एक ऐसा जूनून पैदा हो की वे एक होना सीखे और बहरी ताकतों के हाथों में खेलकर अपनी ताकतों को पहचाने और अपने देश में अपने संयुक्त साम्राज्य की स्थापना के लिए कुछ करें. राणा बीमार पड़ गए उनके मन में एक ही चिंता घर कर गयी थी की उनके बाद मातृभूमि के लिए लड़ने वाले राजपूतों की परम्परा समाप्त हो जाएगी. मेवाड़ का भविष्य भी उनको उज्जवल नहीं दिख रहा था. उन्हें भय था की उनके बाद अमर सिंह मुगलों का दयित्व स्वीकार कर लेगा. जिस प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन हर तरह के कष्ट सहते हुए शत्रुओं से जूझते रहे, उनकी मृत्यु के बाद वह धुल में मिल जाएगी. राणा प्रताप से मिलने प्रतिदिन अनेक लोग आते थे. राणा बीमार है और मृत्यु की शय्या पर है ऐसी खबर दूर दूर तक फ़ैल गयी थी. अनेक राजपूत राजा उनका हाल चाल जानने और उनके दर्शन के लिए आने लगे थे. राजपूत ही नहीं अनेक बहादुर मुसलमान और मुस्लिम सरदार भी राणा के दर्शन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे. अब तो अंतिम दिन निकट पहुंचा था. महाराणा की दशा बिगड़ गयी थी. उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों गोविन्दसिंह,पृथ्वीराज, शक्तिसिंह अमरसिंह आदि को बुलाया और कहने लगे-“अब मुझे केवल एक बात बताओ मेरे बाद इस मातृभूमि की लड़ाई कौन लडेगा आप सब थक चुके है और अमरसिंह इस काबिल नहीं लगता है. “आप शांत रहिये भैयाशक्तिसिंह ने आगे बढ़कर कहा-“जब तक हम चितौड़ का किला जीत नहीं लेते है, मुगलों से कोई समझौता नहीं करेंगे. हम मुगलों के आगे कभी नहीं झुकेंगे, आपके द्वारा स्थापित वीरता की परंपरा को धक्का नहीं लगने देंगे, चाहे हमारे प्राण ही क्यों ना चले जाए.” बाबा रावत को साक्षी मानकर सभी राजपूतों ने प्रतिज्ञा की. राणा आश्वस्त हो गए और बोले-“मुझे आप लोगो पर पूरा भरोसा है अब मैं चैन से मर सकूँगा”.कहते हुए महाराणा ने शून्य में देखा और फिर गर्दन झुकाकर कहने लगे –“मेरा अंत समय निकट गया है. प्राण के निकलते समय मैं चित्तौडगढ के दर्शन करना चाहूँगा आप सब मुझे ऐसी जगह लिटा दीजिये जहाँ से मैं चितौड़गढ़ का किला स्पष्ट रूप से देख सकूँ. चितौड़गढ़ का किला जब राणा जी को दिखने लगा तो वो उठ बैठे और बोले –“हे मुग़ल पददलित चितौडगढ़ मैं तुझे अपने जीवन में प्राप्त ना कर सका. अकबर ने उसपर अन्याय से कब्ज़ा कर रखा है, मैं तुझे जीते बिना ही जा रहा हूँ, परन्तु विश्वास रख मेवाड़ की युवा पीढ़ी तुझे शीघ्र ही मुक्त करा लेगी. मैंने प्राण पण से तेरे उद्धार की कोशिश की थी मगर……”कहते कहते महाराणा का गला रुंध गया, दृष्टी किले के बुर्ज पर ही ठहर गयी थी. तभी वैद्य ने उनकी नाड़ी देखी और बोले- “महाराणा की इहलीला समाप्त हो गयी”. यह शब्द सुनते ही अमरसिंह, गोविन्दसिंह, शक्तिसिंह आदि राणा के गले से लिपटकर फूट फूट कर रोने लगे. मेवाड़ के जाज्वल्यमान सूर्य का अन्त हो गया. पूरा मेवाड़ शोक में डूब गया. समाप्तः

स्वतंत्रता की रक्षा की लिए विषम परिस्थितियों में भी प्रताप ने जो संघर्ष कियाउसकी राजकुलों में जन्मे लोगो के साथ तुलना और कल्पना भी नहीं की जा सकती है . मेवाड़ नरेश होते हुए भी महाराणा का अधिकांश जीवन वनों और पर्वतों में भटकते हुए व्यतीत हुआअपने अदम्य इच्छाशक्तिअपूर्व शोर्यऔर रण कौशलसे अंततः मेवाड़ को स्वाधीन करने में सफल हुएइस वेबसाइट में दिया गया घटनाक्रम और उससे सम्बंधित तिथियों कोयद्यपि गहन अध्यन के साथ लिखा गया हैऔर किसी विशेष घटना और तिथियों का विरोधाभाष हो सकता हैहमारे इस वेबसाइट का लक्ष्य बस इतना है की आज के नवयुवक प्रेरित होमेरे इस मेहनत से मैं आपलोगों के समक्ष महाराणा प्रताप की सम्पूर्ण जीवन पर उनकी संक्षिप्त जीवनी लिखने जा रहा हूँ. आशा करता हूँ की आपको मेरी ये मेहनत पसंद आएगीमैं ये आपको बता देना चाहूँगा कीमहाराणा प्रताप की जीवनी पर यह केवल एक मात्र वेबसाइट हैजहाँ उनकी पूरी जीवन का सारांश वर्णन किया गया हैकृपया इस वेबसाइट/पेज में मौजूद छोटी गलतियों को नजरअंदाज करे और हमारा सहयोग करेअगर आपको कुछ राय और विचार देना है या कुछ सुधार चाहते हैतो आप मुझे अपने कमेंट के माध्यम से जरूर देधन्यवादजय भारत जय महाराणा.


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