Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-3
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-4
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-5
Dharti ka veer Putra Maharana Pratap Part-4
हल्दीघाटी का युद्ध 1
5000 चुने हुए
सैनिकों को लेकर
मानसिंह व शक्तिसिंह
शहजादे सलीम के
साथ 3 अप्रैल, 1576 ई.
को मंडलगढ़ जा
पहुंचे. शहजादा सलीम इस
सेना का सेनापति
था, परन्तु आक्रमण
का पूरा सेहरा
मानसिंह के सर
पर था. सब
जानते थे की
ये आक्रमण मानसिंह
के पहल में
ही हो रहा
है. इस सेना
में मुग़ल सेना
की चुनी हुई
हस्तियाँ मानसिंह के साथ
में थी- गाजी
खां, बादक्शी,ल
ख्वाजा गियासुद्दीन, आसफ खां
आदि को साथ
लेकर मानसिंह ने
दो माह तक
मांडलगढ़ में मुग़ल
सेना का इन्तेजार
किया. महाराणा प्रताप
को जब यह
पता लगा की
शक्तिसिंह को साथ
लेकर मानसिंह मेवाड़
पर आक्रमण के
लिए चल पड़ा
है, और मंडलगढ़
में रूककर एक
बड़ी मुग़ल सेना
का इन्तेजार कर
रहा है, तो
महाराणा प्रताप ने उसे
मंडलगढ़ में ही
दबोचने का मन
बना लिया, परन्तु
अपने विश्वसनीय सलाहकार
रामशाह तोमर की
सलाह पर राणा
प्रताप ने इरादा
बदल दिया. रणनीति
बने गयी की
मुगलों को पहल
करने देनी चाहिए
और उस पर
कुम्भलगढ़ की पहाड़ियों
से ही जवाबी
हमला किया जाए.
अपनी फ़ौज की
घेरा को मजबूत
करने के लिए
महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ से
गोगुंडा पहुंचे. उनके साथ
उस समय झालामान,झाला बीदा,
डोडिया भीम, चुण्डावत
किशन सिंह, रामदास
राठोड, रामशाह तोमर, भामाशाह
व् हाकिम खां
सूर आदि चुने
हुए व्यक्ति थे.
जून के महीने
में बरसात के
आरम्भ में मुगल
सेना ने मेवाड़
के नै राजधानी
कुम्भलगढ़ के चरों
ओर फैली पर्वतीय
श्रृंखलाओं को घेर
लिया. कुम्भलगढ़ प्रताप
का सुविशाल किला
था, जो की
प्रताप की समस्त
गतिविधियों का केंद्र
था. इसी जगह
प्रताप का जन्म
हुआ था और
कहा जाता है
की विश्व में
चीन की दिवार
के बाद सबसे
लम्बी दीवारों में
से एक है.
मानसिंह तथा मुग़ल
शहजादा ने सारी
जानकारी प्राप्त कर यह
रणनीति तैयार की कि
प्रताप को चारो
ओर से घेर
कर उस तक
रसद पहुँचने के
सारे रास्ते बंद
कर दिए जाए.
कुम्भलगढ़ के बुर्ज
से महाराणा प्रताप
ने जब मुग़ल
सेना और उसकी
घेराबंदी का निरिक्षण
किया तब वे
समझ गए की
राजपूतों के अग्निपरीक्षा
के दिन आ
गए है. जहाँ
भी नजर जाते
थी बरसाती बादलों
के तरह फैले
मुग़ल सेना के
तम्बू नजर आ
रहे थे. मुग़ल
सेना का घेरा
बहुत मजबूत था,
इतना मजबूत था
की उससे नजर
बचाकर परिंदा भी
कुम्भलगढ़ मे प्रवेश
नहीं कर सकता
था. मुग़ल सेना
में अधिक संख्या
भीलों और नौसीखिए
की थी. तीर
कमान, बरछी, भाले,
और तलवारे ही
उनके हथियार थे.
मुग़ल सेना के
पास तोपें थे
और अचूक निशाना
लगाने वाले युद्ध
पारंगत तोपची थे. महाराणा
प्रताप के पास
एक भी टॉप
नहीं थी पर
उनका एक एक
सैनिक अपना सर
में कफ़न बंधकर
निकला था, जान
लेने और जान
देने का जूनून
प्रताप के हर
सैनिक में था.
मुग़ल सेना के
निरिक्षण के बाद
महाराणा प्रताप अपने प्रमुख
सलाहकारों एवं सरदारों
के साथ अपनी
सेना के सम्मुख
पहुंचे. और सैनिकों
को सम्भोधित करते
हुए कहा –“जान
लेने और जान
देने का उत्सव
अब हमारे सिर
में है, मुग़ल
सेना काले घटाओं
की तरह कुमलमेर
की पहाड़ियों पर
छा गयी है,
एक लाख से
अधिक मुग़ल सेना
ने हमें इस
आश को लेकर
घेरा है की
हम संख्या में
कम है और
विस्तार देख कर
ही डर जायेंगे,
परन्तु शायद वो
भूल गए है
की सूर्य की
एक मात्र किरण
अत्यंत अन्धकार को विदीर्ण
करने के लिए
काफी होती है.
मुग़ल सेना का
सेनापति भावी मुग़ल
सम्राट शहजादा सलीम कर
रहा है, और
उसका मार्गदर्शन कर
रहे है देश
के दो गद्दार
राजपूत मानसिंह और शक्तिसिंह.
मानसिंह वो गद्दार
है जिसने अपनी
बहन को शहजादे
सलीम से ब्याह
दी और शक्तिसिंह
इस मेवाड़ धरती
का गद्दार है
जो की दुर्भाग्यवश
मेरा भाई है,
उसे भाई कहते
हुए मुझे लज्जा
आती है, परन्तु
यह सच है
की आज उसने
राजपूती शान का
बट्टा लगाया है,
वह मुग़ल सेना
के साथ मिलकर
अपनी ही धरती
और अपने ही
भाई में चढ़ाई
करने आया है.
शक्ति सिंह इस
जगह से भली
भांति परिचित है.
वह घर का
भेदी है, अगर
आज वो उनके
साथ नहीं होता
तो हमारे बहुत
से रहस्य शत्रुपक्ष
को पता नहीं
लग पाते, और
उस स्थिति का
लाभ उठा कर
हम शत्रु पक्ष
को अनेक तरह
से पटखनी दे
सकते थे. परन्तु
ये हमारे मेवाड़
धरती का दुर्भाग्य
है की उसी
का एक बेटा
विदेशी मुग़ल सेना
को लेकर उसी
की मनंग उजाड़ने
आया है.परन्तु
साथियों विजय सिर्फ
हमारी होगी क्योंकि
ये हमारी स्वाधीनता
बचाने की लड़ाई
है, और हम
अपनी मातृभूमि की
रक्षा के लिए
अपना खून बहाना
भलीं भांति जानते
है.हम गिन
गिन कर शत्रुओं
का सिर काटेंगे.
हमारे एक एक
सैनिकों को पच्चीस
पच्चीस मुग़ल सैनिकों
का सर काटना
है. हमारा हौसला
बुलंद हो, हमारी
भुजाओं की ताकत
के सामने, हमारे,
युद्ध कौशल, व्
देशभक्ति के जूनून
के सामने एक
भी शत्रु सैनिक
यहाँ से जीवित
बचकर नहीं जा
पायेगा. हम एक
एक को कुमाल्मेर
की पहाड़ियों में
दफ़न कर देंगे.
आओ प्रतिज्ञा करें
की हम एक
एक सैनिकों को
मुगलों के पच्चीस
पच्चीस सैनिकों के सिर
काटने है, हमारे
जीते जी शत्रु
हमारी मातृभूमि पर
कदम नहीं रख
सकेगा, इसके लिए
चाहे हमें कोई
भी कीमत चुकाने
पड़े. हम इन
मुग़ल सेना को
बता देंगे की
हम भले ही
मर जाये पर
युद्ध भूमि से
पिछे हटना हम
राजपूतों के खून
में नहीं है.
इसप्रकार से महाराणा
प्रताप की जोरदार
आवाज से सैनिकों
में प्रोत्साहन भरा
जाने लगा, उनके
इस बातों को
सुनकर उनके सैनिकों
का मनोबल आसमान
की उचाईयों में
पहुंचा दिया. सबने जोरदार
अपने तलवारे खिंची
और और बुलंद
आवाज में घोषणा
की कि अब
ये तलवार शत्रु
का रक्त पी
कर ही म्यान
में वापस जाएगी.
दोनों ओर की
सेना तैयार हो
गयी परन्तु हमला
नहीं हुआ, महाराणा
प्रताप ने मन
बना लिया था
की पहले मुग़ल
सेना पहल करेगी
और उसके हमला
करते ही हमारी
सेना उनपर टूट
पड़ेगी परंतू मान
सिंह ने यह
युद्धनिति तैयार की थी
की मुग़ल सेना
सीधे हमला कर
पहाड़ियों के बीच
में नहीं फसेंगी,
वो उनको बस
कुछ दिन घेरे
रखेंगे ताकि उनका
रसद उनतक ना
पहुँच सके और
महाराणा प्रताप की सेना
पहाड़ियों से उतरकर
खुले मैदान में
आ सके जिससे
उन्हें हराना ज्यादा आसान
हो जाये. शहजादा
इस पक्ष में
था की आगे
बढ़कर उनपर आक्रमण
किया जाये ताकि
युद्ध जल्दी ख़त्म
हो सके.
हल्दीघाटी का युद्ध-2
शहजादे सलीम मुग़ल
सेना की एक
टुकड़ी आगे बढ़कर
महाराणा प्रताप में आक्रमण
करने का निर्देश
दे दिया, मानसिंह
ने उसे समझाने
का प्रयत्न किया
परन्तु वो नहीं
माना. मुगलसेना ने
जैसे ही हल्दीघाटी
के संकरे घाटी
में प्रवेश की
राणा प्रताप की
सेना ने एक
एक कर कई
मुग़ल सेना को
मौत के घाट
उतार दिया क्योंकि
हल्दीघाटी की प्राकृतिक
बनावट कुछ इस
प्रकार से थी
की केवल एक
बार में एक
सैनिक अपने घोड़े
के साथ आगे
बढ़ सकती थी,
इस संरचना का
लाभ उठा कर
राणा प्रताप के
सैनिकों ने मुग़ल
सेना के कई
सैनिकों को मार
डाला, उस समय
ये देख कर
ऐसा प्रतीत हो
रहा था मानो,
ये युद्ध केवल
राणा प्रताप के
हाथ में ही
है, परन्तु तुरंत
ही सलीम ने
अपने सेना को
पीछे हटने का
संकेत दे दिया.
अब उन्हें ये
समझ नहीं आ
रहा था की
प्रताप तक पहुँचने
का कौन सा
मार्ग लिया जाए,
ऐसे समय में
शक्तिसिंह निकलकर आया और
उसने शहजादे सलीम
के सामने हल्दीघाटी
में सेना को
प्रवेश कराने की जिम्मेदारी
ली. शक्तिसिंह के
मार्गदर्शन में मुग़ल
सेना हल्दीघाटी के
मार्ग से पहाड़ी
क्षेत्र में प्रवेश
करने लगी. महाराणा
प्रताप ने जब
ये देखा की
मुग़ल सेना हल्दी
घाटी के पीछे
वाले रास्ते से
आगे बढ़ रही
है तो उन्हें
ये समझते देर
ना लगी की
किसने उन्हें ये
रास्ता सुझाया होगा. अब
राणा प्रताप ने
आगे बढ़कर हल्दीघाटी
में ही मुगल
सेना को दबोचने
की रणनीति बनाई.
राणा का आदेश
पाते ही राजपूत
नंगी तलवार लिए,
मुग़ल सेना पर
टूट पड़े. भीलो
का समूह जहर
बुझे तलवार से
मुग़ल सेना का
संहार करने लगी.
पहले ही हमले
में राणा प्रताप
ने मुग़ल सेना
के छक्के छुड़ा
दिए, देखते ही
देखते मुग़ल सेना
की लाशे बिछनी
लगी. मुग़ल सेना
में, मानसिंह सेना
की बीचोबीच था.
सैयद बरहा दाहिनी
ओर, बाई ओर
गाजी खां बादक्शी
था, जग्गनाथ कछावा
तथा गयासुद्दीन आसफ
खां इरावल में
थे. आगे के
भाग में चुना-ए-हरावल
नाम का विख्यात
मुग़ल सैनिक था
जो की कुशल
लड़ाकू माना जाता
था. राणा प्रताप
के सेना में
बीच में स्वयं
राणा प्रताप और
दाहिनी ओर रामशाह
तोमर तथा बाई
ओर रामदास राठोड
था. राणा प्रताप
ने मुग़ल सेना
पर अपनी सारी
शक्ति झोंक दी
थी, अतिरिक्त सेना
के रूप में
केवल पोंजा भील
था, जो अपने
साथियों के साथ
पहाड़ियों में छिपा
रहा.. शहजादा सलीम
अपने हाथी पर
स्वर था. जब
उसने देखा की
महाराणा प्रताप अपने तलवार
से मुग़ल सैनिकों
को गाजर मुल्ली
की तरह कटता
जा रहा है
और मुग़ल सेना
के पैर उखड़ने
लगे है, तो
उसने तोंपे चलने
का आदेश दे
दिया. तोंपो के
गोले जब आग
उगलने लगे तो
राणा प्रताप के
सेना के पास
मुग़ल सेना के
तोपों का कोइ
जवाब ना था.
उनकी ढालें, तलवारे,
बरछे और भाले
उनके तोपों के
आगे बौने पड़ने
लगे. अचानक से
लड़ाई का रुख
ही बदल गया
और राजपूतों की
लाशे बिछनी लगी.
महाराणा ने राजपूत
सैनकों की एक
टुकड़ी को आदेश
दिया की आगे
बढ़कर उनकी तोपें
छीन ली जाए,
सैंकड़ो सैनिक अपनी जान
हथेली में रख
कर उन तोंपो
को छिनने के
लिए आगे बढ़
गए, परन्तु इसके
विपरीत तोप के
गोले उनगे शरीर
की धज्जियाँ उड़ाने
लगे. ये देख
कर महाराणा को
बहुत दुःख हुआ,
परन्तु यह एक
कडवी सच्चाई थी,
तोंपो की मार
को परवाह किये
बगैर राणा प्रताप
की सेना दुगुनी
उत्साह के साथ
मुग़ल सेना पर
टूट पड़ी. स्वयं
राणा प्रताप घाटी
से निकलकर गाजी
खां की सेना
में टूट पड़े,
जो की बहुत
देर से घाटी
के द्वार में
कहर ढा रही
थी, राणा प्रताप
ने गाजी खां
के सेना की
परखच्चे उडा दिए,
इस प्रकार मुग़ल
सेना और राणा
प्रताप के बीच
दो दिन तक
युद्ध हुआ, परन्तु
कोई भी नतीजा
निकल कर सामने
नहीं आया. दोनों
ओर से सैनिकों
की लाशे बिछ
गयी थी, पूरा
युद्ध क्षेत्र लाशो
से पट गया
था. मुग़ल सेना
के तोंपो से
निकले गोलों ने
राजपूत सेना में
कहर ढाया था.
संख्या में चार
गुनी होते हुए
भी मुग़ल सेना
राजपूत सेना के
सामने टिक नहीं
पा रही थी.
युद्ध के दौरान
कई ऐसे मौके
आये जब मुग़ल
सेना भाग खड़े
हुए, परन्तु उन्हें
नया उत्साह देकर
वापस युद्ध के
लिए भेज दिया
गया. हल्दी घाटी
के युद्ध में
त्तिसरा दिन निर्णायक
रहा, अपने जांबाज
सैनिकों के लाशों
के अम्बार देखकर
महाराणा प्रताप बौखला गए
थे.
सवानवदी सप्तमी
का दिन था,
आकाश में बदल
भयंकर गर्जना कर
रहे थे.. आज
राणा प्रताप अकेले
ही पूरी फ़ौज
बन गए थे.
दो दिन तक
वो अपने परम
शत्रु मानसिंह को
ढूंढते रहे जो
युद्ध में मुलाकात
करने की धमकी
दे गया था.
राणा प्रताप का
बहुत अरमान था
की वो उससे
युद्ध करे और
अपना शोर्य दिखाए,
परन्तु मानसिंह अपने सेना
के बीचोबीच छिपा
रहा. आज के
युद्ध में महाराणा
प्रताप ने फैसला
कर लिया था
की वो मानसिंह
को अवश्य ढूँढ
निकालेंगे, वो बहुत
ही खूबसूरत सफ़ेद
घोड़े चेतक में
बैठे शत्रुओं का
संहार करते करते
मानसिंह को ढूँढने
लगे. सैनिकों का
सिर काटते हुए
वो मुग़ल सेना
के बीचो बीच
जा पहुंचे. उन
पर रणचंडी सवार
थी, देखते ही
देखते उन्होंने सैंकड़ो
मुगलों की लाशे
बिछा दी. महाराणा
के साथ उनके
चुने हुए सैनिक
थे वो जिधार
निकल जाते थे
मुग़ल सेना में
हाहाकार मच जाता
था, मुग़ल युद्ध
भूमि को छोड़
भागने को मजबूर
हो जाते थे,
मुग़ल सेना अब
उनसे सीधे सीधे
लड़ाई करने में
भयभीत हो रही
थी, महाराणा मुग़ल
सेना को चीरते
हुए आगे बढ़ते
गए. कुछ दूर
जाने के बाद
एक एक कर
के उनके सहायक
सैनिक ढेर होते
गए. अब वो
मुग़ल सेना के
बीचो बीच लगभग
अकेले थे, तभी
उनकी नजर शहजादे
सलीम में पड़
गयी, सलीम एक
बड़े हाथी में
सवार होकर लोहे
की मजबूत सलाखों
से बने पिंजड़ा
में सुरक्षित बैठा
युद्ध का सञ्चालन
कर रहा था.
महाराणा ने सलीम
को देखा और
चेतक को उसके
ओर मोड़ लिया,
सलीम ने जैसे
ही देखा की
महाराणा उसके ओर
आ रहा है
उसने अपने महावत
को आदेश दिया
की हाथी को
दूसरी दिशा में
मोड़ कर दूर
ले जाया जाये,
जब तक वो
उनके पास पहुँचते
एक कुशल मुगल
सेना की टुकड़ी
ने उन पर
जान लेवा हमला
किया परन्तु महाराणा
प्रताप ने सभी
का वार को
अच्छी तरह से
बेकार कर दिया
और सबको मौत
के घाट उतार
दिया. अचानक से
महाराणा की नजर
मान सिंह पर
पड़ी और उसे
देखते ही महाराणा
का खून खौलने
लगा,मानसिंह हाथी
पर सवार था,
उसके पास अंगरक्षकों
का एक बड़ा
जमावड़ा था, मानसिंह
के सुरक्षा व्यूह
को तीर की
तरह चीरते हुए,
महाराणा का चेतक
हाथी के बिलकुल
ही नजदीक पहुँच
गया, मानसिंह को
ख़त्म करने के
लिए महाराणा प्रताप
ने दाहिने हाथ
में भाला संभाला
और चेतक को
इशारा किया की
वह हाथी के
सामने से उछल
कर गुजरे, चेतक
ने महाराणा का
इशारा समझ कर
ठीक वैसा ही
किया, परन्तु चेतक
का पिछला पैर
हाथी के सूंढ़
से लटका तलवार
से चेतक का
पैर घायल हो
गया, परन्तु महाराणा
उसे देख ना
पाए, घायल होने
के क्रम में
ही महाराणा ने
पूरी एकाग्रता से
भाला को मानसिंह
के मस्तक में
फेंक डाला, परन्तु
चेतक के घायल
होने के कारण
उनका निशाना चूक
गया, और भला
हाथी में बैठे
महावत को चीरता
हुआ लोहे की
चादर में जा
अटका, तबतक महाराणा
की ओर सभी
सैनिक दौड़ पड़े,
और मानसिंह महाराणा
के डर से
कांपता हुआ हाथी
के हावड़े में
जा छिपा,भला
हावड़े से टकरा
कर गिर गया,
राजा मानसिंह को
खतरे में देख
माधो सिंह कछावा
महाराणा पर अपने
सैनिकों के साथ
टूट पड़े, उसने
महाराणा पर प्राण
घातक हमला किये.
उसके साथ कई
सैनिकों ने महाराणा
पर एकसाथ हमला
किये जिससे महाराणा
के प्राण संकट
में पद गए.
एक बरछी उनके
शरीर में पड़ी
और महाराणा लहू
लुहान हो गए.
उसी समय एक
और तलवार का
वार उनके भुजा
को आकर लगी.
परन्तु अपनी प्राणों
की परवाह किये
बगैर महाराणा लगातार
शत्रुओं से लोहा
लेते रहे. अपने
स्वामिभक्ति दिखा रहा
चेतक भी हर
संभव महाराणा का
साथ दिए जा
रहा था, चेतक
का पिछला पैर
बुरी तरह से
घायल हो चूका
था, परन्तु अश्वों
की माला कहा
जाने वाला अश्व
दुसरे अश्वों की
तरह घायल हो
जाने पर युद्ध
भूमि में थककर
बैठ जाने वालों
में से नहीं
था. झालावाडा के
राजा महाराणा प्रताप
के मामा ने
जब ये देखा
की महाराणा प्रताप
बुरी तरह से
घायल हो गए
है, और लगातार
शत्रु से लड़े
जा रहे है,
तब उन्होंने अपना
घोडा दौडाते हुए
महाराणा प्रताप के निकट
जा पहुंचे, उन्होंने
झट से महाराणा
का मुकुट निकला
और अपने सिर
में पहन लिया,
फिर राणा से
बोले-“तुमको मातृभूमि
की सौगंध राणा
अब तुम यहाँ
से दूर चले
जाओ, तुम्हारा जीवित
रहना हम सबके
लिए बहुत जरूरी
है. महाराणा ने
उनका विरोध किया
परन्तु कई और
सैनिको ने उनपर
दवाब डाला की
आप चले जाइये,
अगर आप जीवित
रहेंगे तब फिर
से मेवाड़ को
स्वतंत्र करा सकते
है, महाराणा का
घोडा चेतक अत्यंत
संवेदनशील था, अपने
स्वामी के प्राण
को संकट में
देख तुरंत ही
उसने महाराणा को
युद्ध क्षेत्र से
दूर ले गया.
मन्नाजी अकेले ही मुग़ल
सेना के बीच
घिर चुके थे,
मुग़ल सेना उन्हें
महाराणा समझ कर
बुरी तरह से
टूट पड़े, उन्होंने
बहुत देर तक
अपने शत्रुओं का
सामना किया परन्तु
अंत में वीर
गति को प्राप्त
किया. मन्ना जी
के गिरते ही
राणा प्रताप के
सेना के पैर
उखड़ गए.
शक्तिसिंह का हृदय परिवर्तन
शक्तिसिंह ने महाराणा
प्रताप को घायल
शारीर को लादे
हुए चेतक को
भागते देख लिया
था. उसने ये
भी देखा की
झाला नरेश ने
किस तरह अपनी
जान देकर महाराणा
प्रताप को बचाया
था. प्रताप के
लिए हजारों राजपूत
हसते हसते अपनी
जान न्योछावर कर
गए. और तीन
दिन के भीषण
युद्ध के सामने
मुग़ल सेना त्राहि
त्राहि कर उठी
थी. यह सब
देख कर शक्तिसिंह
को बहुत पछतावा
होने लगा. हजारों
राजपूतों को लाशों
का ढेर बनाने
एवं देवता सामान
भाई की प्राण
को संकट में
डालने के लिए
शक्तिसिंह ही जिम्मेदार
था. यदि उसने
हल्दीघाटी में घुसने
और महाराणा प्रताप
की कमजोरियों को
मुगलों के सामने
ना बताया होता
तो आज के
युद्ध का परिणाम
कुछ और ही
होता, और इतिहास
महाराणा प्रताप के साथ
साथ शक्तिसिंह पर
भी उतना ही
गर्व करता. शक्ति
सिंह तुरंत ही
अपने घोड़े की
ऐड लगाई और
उधर चल पड़ा
जिस ओर चेतक
गया था. इधर
सलीम ने घोषणा
कर दिया की
प्रताप युद्ध के मैदान
से जिन्दा भाग
गए है उसको
जिन्दा पकड़ कर
लाने वाले को
भरी इनाम दिया
जायेगा. दो मुग़ल
सैनिको को शक्तिसिंह
ने प्रताप का
पीछा करते हुए
पाया.शक्तिसिंह समझ
गया की मुग़ल
शहजादा से भरी
इनाम के लालच
में घायल राणा
प्रताप का पीछा
कर रहे है.
शक्तिसिंह ने अपने
घोड़े को वायु
वेग से दौड़ाया.
युद्ध के मैदान
से निकलने के
बाद चेतक की
गति कुछ धीमी
पद गयी थी..चेतक के
पैर से भी
रक्त की धारा
बहे जा रही
थी. महाराणा प्रताप
लगभग लगभग अछेत
की स्थिति में
हो चुके थे.
अचानक महाराणा प्रताप
को घोड़े की
ताप सुनाई दी
जब उन्होंने पीछे
पलट के देखा
तो दो मुग़ल
सैनिक उनका वायु
वेग से हाथ
में तलवार लिए
उनकी ओर आ
रहे है, चेतक
भी बहुत तेज़ी
से भागा, परन्तु
दुर्भाग्य वश एक
बड़ा सा नाला
उनके बीच आ
गया. वो नाला
एक पहाड़ी को
दुसरे पहाड़ी से
अलग करता था,
उन दोनों पहाड़ियों
के बीच की
लम्बाई 27 फूट की
बताई जाती है,
चेतक वो घोडा
था जो अपनी
स्वामी की इशारे
को अच्छी तरह
से समझता था,
वो अपने स्वामी
के इशारे से
वायु वेग में
दौड़ना जानटा था.
ऐसा करते समय
वो अपने प्राणों
की परवाह तक
न करता था.
उसने बिना एक
पल के देरी
के उस नाले
में जोरदार छलांग
लगा दिया. परन्तु
घायल चेतक उस
पार जाने के
बाद दुबारा फिर
कभी नहीं उठ
पाया, महाराणा प्रताप
तो सकुशल थे
पर एक मूक
जीव ने अपने
स्वामीभक्ति दिखाते हुए वीरगति
को प्राप्त किया
और अपना नाम
इतिहास के स्वर्णिम
अक्षरों में लिखवा
गया. युद्ध में
घायल महाराणा प्रताप
की उस समय
बड़ी ही असहाय
स्थिति हो गयी.
महाराणा प्रताप के शारीर
से टिके अर्ध्मुछित
से चेतक की
मृत्यु पर रो
पड़े. जब उन
दो मुगलों ने
ये देखा तो
वे आश्चर्य से
देखते रह गए,
उन्होंने अपने घोड़े
को भी उस
नाला को पार
करने का आदेश
दिया पर हर
घोडा चेतक नहीं
हो सकता है.
शक्ति सिंह भी
ये सारा नजारा
देख रहा था.
उस समय उसके
ह्रदय में अपने
प्रति ग्लानी की
भावना प्रकट होने
लगी वह अपने
आप को कोशने
लगा की जब
मेवाड़ का एक
एक पशु अपने
मातृभूमि और अपने
स्वामिभक्ति में अपना
प्राण न्योछावर कर
सकता है तो
मैं तो फिर
भी मनुष्य हूँ.
दोनों मुग़ल सैनिक
नाला पार कर
महाराणा प्रताप की ओर
बढ़ने लगे. जैसे
ही दोनो मुग़ल
सैनिक ने महाराणा
प्रताप में प्राण
घातक वार करने
का प्रयास किया
वैसे ही शक्तिसिंह
ने विद्युत् गति
से झपटकर दोनों
की गर्दने काट
दी, जब महाराणा
प्रताप ने चौंक
कर पीछे पलट
कर देखा- तो
उन्होंने पाया की
पीछे मुग़ल सैनिको
की लाशे पड़ी
हुई है. और
शक्तिसिंह दोनों हाथ जोड़े
अपने घुटने पर
बैठा हुआ है.
शक्तिसिंह…एक भावुकता
भरी आवाज महाराणा
के मुख से
निकल पड़ी. और
शक्ति सिंह हाथ
जोड़े अपने घुटने
पर बैठा रहा.
अच्छा हुआ तुम
आ गए इस
समय मैं पूरी
तरह से असहाय
हूँ, लहूलुहान हूँ,
मेरे प्रिय चेतक
की मौत ने
मुझे जीते जी
मार डाला है,इस समय
मैं तलवार नहीं
उठाऊंगा तुम अपनी
इच्छा पूरी कर
लो.राणा ने
चेतक की कमर
में से जब
अपना चेहरा उठाया
तो शक्ति सिंह
की चीख निकल
गयी. नहीं भैया
नहीं मैं आपकी
आँखों में आंसू
नहीं देख सकता.
राणा ने फिर
गर्दन घुमा ली
और फिर चेतक
के शारीर से
लिपट कर रोने
लगे. राणा को
रोते हुए देख
शक्तसिंह भी रो
पड़ा.उसने कहा
भैया इस सब
का जिम्मेदार मैं
हूँ. आपसे प्रतिशोध
लेने की भावना
में मैं पागल
हो गया था.
यह कहकर शक्तिसिंह
फूटफूट का रोने
लगा. उसने तुरंत
ही अपने आप
को संभाला और
और फिर राणा
प्रताप के पास
जा कर कहने
लगा मैं जनता
हूँ की मैं
क्षमा के योग्य
नहीं हूँ परन्तु
आप मुझे एक
बार क्षमा कर
दीजिये मुझे एक
बार आप गले
से लगा लीजिये….और शक्तिसिंह
फिर रो पड़ा.
प्रताप ने गर्दन
उठाई उनका चेहरा
खून और आसुओं
से सना था.
तुम मेरे ही
नहीं पुरे मेवाड़
के अपराधी हो
शक्ति सिंह तुमने
अपने मातृभूमि के
साथ विश्वासघात किया
है. अब मैं
तुम्हारी आँखों में प्रायश्चित
के आंसू देख
रहा हूँ. जी
करता हूँ की
अपने छोटे भाई
को गले लगा
लूँ. परन्तु यह
क्षत्रिये धर्म मुझे
इसकी अनुमति नहीं
देता है, मैं
मेवाड़ी सिपाही हूँ और
तुम मेवाड़ द्रोही
शत्रु सैनिक. यह
कहकर राणा ने
गर्दन घुमाई और
फिर शक्तिसिंह को
देखे बगैर ही
बोले शक्तिसिंह तुम
मेरी नजरों से
दूर हो जाओ
मैं नहीं चाहता
की मेरे मन
में कोई कमजोरी
उभरे . मैं जा
रहा हूँ भैया.
शक्ति सिंह ने
भाववेग से थर्राते
हुए कहा- बस
मेरा एक निवेदन
मान लो मेरा
ये घोड़ा लो
और तुरंत ही
यहाँ से दूर
चले जाओ. आपको
मेवाड़ की जरुरत
है. आप यह
युद्ध हारे नहीं
है केवल ऐसी
परिस्थिति आ गयी
है की युद्ध
को रोकना पड़
रहा है. और
आब आपके चरणों
की सौंगंध है
की मेरी ये
तलवार अब मेवाड़
के साथ होगी.
अपनी करनी से
मैं अपने पर
लगे इस्कलांक को
धो डालूँगा और
अगर जिविर्ट बचा
तोह आपके गले
लगूंगा. प्रताप सिंह शक्तिसिंह
की बातें सुनते
रहे. उनके आँखों
से बहते हुए
आंसू उनके चेहरे
पर लगे हुए
खून को धोते
रहे. परन्तु शक्तिसिंह
अब ये नहीं
देख पाया था
की अब जो
आंसू राणा की
आँखों से बह
रहे थे वो
अपने छोटे भाई
के लिए थे,परन्तु वह रे
क्षत्र्ये धर्म, उस क्षत्रिये
शूरवीर राणा ने
अपने भाई से
वो आंसू छुपा
लिए और धर्म
तथा भाई में
से धर्म को
ज्यादा महत्त्व देकर धर्म
को विजय स्थापित
किया. राणा ने
अपने आप को
संभाला वे उठे
शक्तिसिंह का घोड़ा
ले लिया , शक्तिसिंह
नजरें झुकाए खड़ा
रहा उसके आँखों
में प्रायश्चित के
आंसू बह रहे
थे. मैं तुम्हारा
ये एहसान कभी
नहीं भूलूंगा शक्तिसिंह,
तुमने मुझ अर्धमूर्छित
की जान लेने
वाले मुग़ल सैनिक
को मार कर
मेरी जान बचाई
है और अभी
सुरक्षित स्थान पर पहुँचने
के लिए अपना
घोडा दे रहे
हो.मेवाड़ याद
रखेगा तुम्हारी ये
भूमिका. राणा तुरंत
घोड़े पर सवार
हुए, उनके चरण
छूने के लिए
शक्तिसिंह ने हाथ
आगे बढ़ाये पर
तबतक राणा घोड़े
की ऐड ले
चुके थे. वायुवेग
से घोड़े दौडाते
हुए राणा कुछ
ही समय में
शक्तिसिंह की आँखों
से ओझल हो
गए.
युद्ध की समीक्षा और अकबर द्वारा मेवाड़ को पूरी तरह से कब्जे में लेना
अपने भाई
मेवाड़ के महाराणा
प्रताप सिंह को
अपना घोड़ा देने
के बाद शक्तिसिंह
नदी तैर कर
नदी पार की
और किसी तरह
से छुपता छुपाता
मुग़ल छावनी तक
पहुंचा. जब वहां
पहुंचा तो शक्तिसिंह
ने देखा की
चारों तरफ अफरातफरी
मची हुई है
“महाराणा भाग गया
महाराणा भाग गया…”
का शोर हर
तरफ था. परन्तु
किसी के भी
चेहरे में जीत
की ख़ुशी नहीं
थी. महाराणा और
उनके वीर सैनिकों
ने युद्ध भूमि
में जो कौशल
दिखाया था उसके
कारण उनके छावनी
में एक कौतुहल
सा मचा था.
सभी मुग़ल सैनकों
के चेहरों में
महाराणा का आतंक
साफ़ साफ़ नजर
आ रहा था..
महाराणा का युद्ध
से सकुशल निकल
जाने से उन्हें
दो सन्देश मिले
थे, एक तो
वे महाराणा को
नहीं जीत सके
जिसके कारण सागर
सी विशाल मुग़ल
सेना के मुख
में एक जोरदार
तमाचा पड़ गया
था, महाराणा ने
ना केवल वहां
से निकल कर
दिखाया अपितु अपने विचित्र
रण कौशल से
असीम बहादुरी का
परिचय भी दिया
था जो की
शत्रुओं के दिल
में दहशत का
कारण बन बैठा
था. और दूसरा
ये था की
उन्हें मन ही
मन ये भय
सता रहा था
की कहीं फिर
से महाराणा अपने
मुट्ठी भर सैनिकों
को लेकर ना
आ जाए और
अपने घोड़े के
तापों तले हमें
रौंद डाले. शहजादा
सलीम का दिमाग
चकरा गया. उसकी
समझ में नहीं
आ रहा था
की इतना बड़ा
करिश्मा हुआ कैसे.
इतने कम सैनिको
के साथ घोड़े
पर सवार महाराणा
प्रताप ने तीन
दिन तक मुगलों
की एक लाख
वाली सेना को
बुरी तरह से
रौंद डाला. मुग़ल
सेना के बीचोबीच
पहुँच कर उसने
राजा मानसिंह, स्वयं
उसे और लगभग
सभी मुग़ल सरदारों
को चुनौती दी
और जब वह
इतनी बुरी तरह
घायल हो गया
और उसके सभी
बहादुर साथी मारे
गए तब मुग़ल
सेना के व्यूह
को चीरता हुआ
वह घायल राणा
युद्ध स्थल से
सुरक्षित बहार निकल
गया? उसके पास
एक घोडा और
एक तलवार के
अलावा और कुछ
भी नहीं बचा
था. इतनी घायल
स्थिति में तो
बाख कर कोई
भी नहीं निकल
सकता था फिर
ऐसी हालत में
ये चमत्कार हुआ
कैसे. शहजादा सलीम,
मानसिंह और उसके
सरदारों के साथ
बैठ कर युद्ध
की तहकीकात कर
रहा रहा था.
तब तक कुछ
सैनिक वहां आ
पहुंचे और और
शहजादे सलीम को
यह सूचना दी
की शक्तिसिंह को
मुग़ल छावनी में
देखा गया है.
उसे उसी दिशा
से आते देखा
गया है जिधर
राणा भगा था.
शहजादे सलीम को
शक्तिसिंह में शक
हुआ. उसके पास
पहले से ही
एक सूचना थी
की महाराणा के
युद्ध स्थल से
भाग जाने के
बाद शक्तिसिंह भी
अपने घोड़े में
बैठ कर वहां
से गायब हो
गया था. कुछ
ही समय में
शहजादे सलीम के
पास दो सैनिक
आ गए और
उन्हें सूचना दी की
यहाँ से कुछ
दूर में राणा
प्रताप के घोड़े
का शव पड़ा
है और पास
में ही दो
मुग़ल सैनिकों के
कटे हुए सर
भी पड़े है,
यह सुनते ही
शहजादा सलीम क्रोध
से पागल हो
उठा. उसने तुरंत
ही शक्तिसिंह को
गिरफ्तार करने का
आदेश दे दिया.
मुग़ल सैनिकों ने
शक्तिसिंह को गिरफ्तार
कर लिया. पूछताछ
के समय शक्तिसिंह
ने एक बहादुर
राजपूत की तरह
आगे बढ़ कर
मुग़ल सैनिकों के
हत्या का अभियोग
स्वीकार किया. शक्तिसिंह का
उत्तर सुनकर सलीम
का सिर घूम
गया. वह यह
निष्कर्ष में पहुंचा
की यदि आज
शक्तिसिंह ने घयाल
महाराणा की रक्षा
नहीं की होती
तो आज महाराणा
मुग़लो की गिरफ्त
में होता. राणा
प्रताप की जीवित
बाख जाना मुगलों
की हार थी.
हल्दीघाटी का युद्ध
जीत कर भी
वो हार गए
थे और वे
अच्छी तरह से
जानते थे की
यदि महाराणा जीवित
बाख गए है
तो वे चुचाप
बैठने वाले नहीं
है. इस जीत
को मुग़ल अपनी
अंतिम जीत नहीं
कह सकते थे.
शक्तिसिंह का अपराध
को संगीर्ण अपराध
माना गया. उसे
मुग़ल दरबार में
विद्रोह की संज्ञा
दी गयी तथा
अंतिम निर्णय तक
कैद में रखने
का आदेश दे
दिया. शक्तिसिंह के
घोड़े पर सवार
राणा प्रताप दूर
पहाड़ियों में पहुंचे.
वहां उन्हें वफादार
भील मिल गए.
भीलों ने महाराणा
को एक गुप्त
गुफा में ले
गए. वहां उनके
चिकित्सा और देखभाल
की पूरी व्यवस्था
कर दी. और
स्वयं हाथों में
बाण लेकर दूर
दूर तक बिखर
गए और मुग़ल
सेना की गतिविधियों
पर नजर रखने
लगे. कई दिनों
की चिकित्सा और
देखभाल के बाद
महाराणा के घाव
भरने शुरू होने
लगे. वे गुफा
में बैठे सोच
रहे थे –कितना
भयानक और विनाशकारी
युद्ध था. तीन
दिन के युद्ध
ने 20 हजार सैनिकों
में से 14 हज़ार
सैनिकों को निगल
गया, मेरे सभी
महत्वपूर्ण स्तम्भ मेरी रक्षा
के लिए अपना
प्राण न्योछावर कर
दिए. जब उन्होंने
चेतक के बारे
में सोचा तो
वो उसी समय
फूट फूट कर
रो पड़े , वे
सोचने लगे की
पता नहीं कौन
सा मंत्र झालापति
ने चेतक के
कानो में फूंका
की चेतक अपनी
मौत से झूझ
कर मेरी रक्षा
हेतु वायुवेग से
दौड़ पड़ा, उनकी
समझ में ही
नहीं आ रहा
था की चेतक
दौड़ रहा है
या वायु में
उड़ रहा है,
उसकी छलांग देख
कर शत्रु के
माथे भी पसीने
आ जाये. अपने
युद्ध की समीक्षा
करते करते महाराणा
भावुक हो गए.
फिर उन्हें शक्तिसिंह
का ध्यान आया-
वे सोचने लगे
की अगर शक्तिसिंह
वहां सही समय
पर ना पहुंचा
होता तो उनका
बचना तो लगभग
असंभव था. शक्तिसिंह
को गद्दार कहूँ
या मेवाड़ का
रक्षक…आज जो
मेवाड़ पति राणा
प्रताप इस गुफा
में बैठा है
वो केवल शक्तिसिंह
के कारण ही.
वो इस बात
से बहुत दुखी
थे क्योंकि इस
युद्ध में राजपूत
ही दुसरे राजपूत
से लड़ा था.
यह अकबर की
ही निति थी
की राजपूतों को
राजपूतों के विरुद्ध
लडवाया जाए. ये
सब सोचते सोचते
सोचते राणा प्रताप
को एकाएक अपने
हार की एक
और कारण याद
आया वो था
तोंपो का प्रहार
जिसके कारण राजपूत
सैनिकों के पाँव
उखड़ गए थे.
भीलों के विष
बुझे तीरों ने
मुगलों को पीछे
हटने में मजबूर
कर तो दिया
था पर जब
उन्होंने तोंपो का इस्तेमाल
किया तब हम
कमजोर पड़ गए
थे काश अगर
हमारे पास भी
कुछ तोंपे होती
तो आज युद्ध
का परिणाम कुछ
और ही होता.
ये सब सोचते
सोचते महाराणा को
गश आ गया,उनके घाव
अभी पूरी तरह
से भरे नहीं
थे. मन में
आया तनाव पुरे
शारीर में दुष्प्रभाव
छोड़ सकता था.
उधर मानसिंह ने
अकबर को मुगलों
के जीत का
समाचार दे दिया.
जब अकबर ने
युद्ध से लौटे
सैनिकों की समीक्षा
की तो उसे
ये भरोसा हो
गया की वो
केवल नाम का
ही युद्ध जीता
है महाराणा का
आतंक उनके चेहरे
में से साफ़
साफ़ नजर आ
रहा था. उन्हें
देख के लग
रहा था की
मुग़ल सैनिक शत्रु
के बंदीगृह से
लौटे है और
वहां उन्हें खूब
पीटा गया है.
गुप्तचरों ने अकबर
को सूचना दी
की युद्ध में
चौदह हज़ार सैनिको
के मारे जाने
के बावजूद राजपूतों
में उत्साह भरा
पड़ा है, उन्हें
इस बात की
बेहद ख़ुशी है
की उनका महाराणा
सही सलामत जीवित
बच गया है.अकबर को
पता था की
अब राजपूत तोंपो
का इस्तेमाल करेंगे
जिनके कारण उन्हें
भारी क्षति पहुंची
है. इसलिए वह
तुरंत ही अजमेर
पहुंचा और अजमेर
से मोहि पहुंचा.
उसने मोही में
गाजी खां को
तैनात किया, उसके
साथ शरीफ अटका
मुजाहिद्दीन खां और
शुभान अली तुर्क
को छोड़ा तथा
तीन हज़ार का
लश्कर दिया. मोहि
से अकबर गोगुदा
पहुंचा वहां का
दायित्व उसने राजा
भगवानदास और कुत्तुब्बुद्दीन
मोहम्मद खां को
सौंपा. शाह फक्रुद्दीन
तथा जगन्नाथ कछावा
को उदयपुर में
तैनात किया .
इस
प्रकार से अकबर
ने स्वयं मेवाड़
क्षेत्र में पहुंचकर
लगभग पुरे मेवाड़
को अपने कब्जे
में ले लिया.
कुछ जंगल और
पहाड़ियां ही बचे
थे जिनमे महाराणा
छिपे थे. अब
भी महाराणा का
आतंक मुग़ल सेना
में इतना था
की उन पहाड़ों
व् जंगलों को
घेरकर, मुग़ल सेना
राणा पर हमला
करने को तैयार
नहीं थी, जहाँ
महाराणा छुपा था.
मुग़ल सेना में
ये डर था
की कहीं अभी
महाराणा गोरिल्ला युद्ध कर
उन्हें गाजर मूली
की तरह ना
काट डाले. कुछ
दिनों तक स्वयं
अकबर अपने विशाल
शाही फ़ौज के
साथ मेवाड़ पर
ही रहा. और
उसके जाने के
साथ ही महाराणा
प्रताप ने प्रत्याक्रमण
कर धीरे धीरे
मेवाड़ का अधिकतर
भो भाग को
मुगलों से आजाद
करवा लिया.
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