दहेज प्रथा एक अभिशाप एक अभियान दहेज़ के विरूद्ध
मांग भरो और लाखों पाओ
मांग भरो और लाखों पाओ
मांग भरो और लाखों पाओ
“मांग भरो और लाखों पाओ, लेकर दुल्हन घर को आओ”
Justic For Shashi Rathore |
दहेज प्रथा एक अभिशाप एक अभियान दहेज़ के विरूद्ध
दहेज़ प्रथा एक ऐसी प्रथा हैं जिसमे शान से समाज एक औरत का व्यापार करता हैं उसके अरमानो को कुचल कर उसे ख़ुशी से बेचने का जश्न मनाता हैं | और यह जीवनपर्यन्त चलता ही रहता हैं | जब इसी तरह का लेन देन समाज में रहेगा और नारि को केवल सामान समझा जायेगा, तो उसकी गर्भ में हत्या करना क्या गलत हैं ? जब उसे एक वस्तु मात्र समझना हैं, जब उसे केवल भोग विलास का सामान समझना हैं, तो महान हैं वो लोग जो उसे आने से पहले ही मार देते हैं |
“मांग भरो और लाखों पाओ, लेकर दुल्हन घर को आओ” … 1961 तक ऐसा सोचने वाले लोगों के लिए सब ठीक था लेकिन 1961 में मांग भर कर अमीर होने के ख़्वाब देखने वालों पर बिजली गिरी थी। उस वर्ष भारतीय सिविल लॉ के तहत दहेज विरोधी अध्यादेश पारित हुआ और बाद में दहेज-खोरों को कड़ी सज़ा देने के लिए भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 304B और 498a बनाए गए। दहेज के लिए स्त्रियों की हत्या की खबरें एक ज़माने में इतनी आम बात थीं कि रोज़ सुबह अखबर खोलते ही मन विचलित हो जाता था। इस पर हैरानी होती थी कि हम कैसे इस निर्मम और संवेदनहीन समाज में जी रहे हैं।
दहेज़ प्रथा एक ऐसी प्रथा हैं जिसमे शान से समाज एक औरत का व्यापार करता हैं उसके अरमानो को कुचल कर उसे ख़ुशी से बेचने का जश्न मनाता हैं | और यह जीवनपर्यन्त चलता ही रहता हैं | जब इसी तरह का लेन देन समाज में रहेगा और नारि को केवल सामान समझा जायेगा, तो उसकी गर्भ में हत्या करना क्या गलत हैं ? जब उसे एक वस्तु मात्र समझना हैं, जब उसे केवल भोग विलास का सामान समझना हैं, तो महान हैं वो लोग जो उसे आने से पहले ही मार देते हैं |
“मांग भरो और लाखों पाओ, लेकर दुल्हन घर को आओ” … 1961 तक ऐसा सोचने वाले लोगों के लिए सब ठीक था लेकिन 1961 में मांग भर कर अमीर होने के ख़्वाब देखने वालों पर बिजली गिरी थी। उस वर्ष भारतीय सिविल लॉ के तहत दहेज विरोधी अध्यादेश पारित हुआ और बाद में दहेज-खोरों को कड़ी सज़ा देने के लिए भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 304B और 498a बनाए गए। दहेज के लिए स्त्रियों की हत्या की खबरें एक ज़माने में इतनी आम बात थीं कि रोज़ सुबह अखबर खोलते ही मन विचलित हो जाता था। इस पर हैरानी होती थी कि हम कैसे इस निर्मम और संवेदनहीन समाज में जी रहे हैं।
दहेज के लिए
हत्या करने की
सज़ा कम-से-कम सात
साल है और
अदालत उम्र क़ैद
तक की सज़ा
भी दे सकती
है। अब अखबारों
में दहेज हत्या
की उतनी खबरें
नहीं छपती जितनी
पहले छपा करती
थीं –तो क्या
यह मान लिया
जाए कि स्थिति
बदल गई है?
Justice For Shashi Rathore |
बहुत-सी चीज़े
जो पहले वर-पक्ष द्वारा
दहेज में मांगी
जाती थीं वो
सब चीज़ें अब
सामान्य लेन-देन
का हिस्सा हो
गईं हैं –अर्थात
आपको मांगने की
ज़रूरत नहीं है
–बहुत-सी वस्तुएँ
आपको केवल इसलिए
मिल जाती हैं
क्योंकि ये चीज़े
तो आजकल सभी
देते हैं। सोफ़ा,
डबल-बेड, एल.सी.ड़ी.
टीवी, डबल डोर
फ़्रिज, दो टन
का ए.सी.
ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन, डी.वी.डी.
प्लेयर, रसोई का
सारा सामान, वर-पक्ष के
लिए सोने की
कई चीज़े और
सबके कपड़े इत्यादि
ऐसी चीज़े हैं
जो आज बिना
मांगे ही दहेज
में दी जा
रही हैं। इतनी
सारी चीज़ों के
लेन-देन को
देखकर मैं सोचता
हूँ कि अगर
ये सब कन्या-पक्ष बिना
मांगे दे रहा
है तो वर-पक्ष के
मांगने की ज़रूरत
ही कहाँ रह
गई है?!! एक
तरह से देखा
जाए तो पहले
गुनहगार अक्सर वर-पक्ष
हुआ करता था
पर आजकल कन्या-पक्ष अधिक
कुसूरवार लगता है।
अच्छा ख़ासा दहेज
देना एक अलिखित
नियम बन गया
है जिसका पालन
हर पिता अपनी
सारी जमा-पूंजी
लगाकर भी करता
हुआ दिखाई देता
है। जब बिन
मांगे मोती मिल
रहे हों तो
पहले से ही
दहेज की लालसा
रखने वाले वर-पक्ष को
भला स्वीकार करने
में क्या आपत्ति
हो सकती है?
दहेज प्रथा एक अभिशाप एक अभियान दहेज़ के विरूद्ध |
बेटी की शादी
अगर “ग़रीब” पिता
कर रहा है
तो वर को
मोटरबाइक देना आजकल
सामान्य बात है।
पिता अमीर है
तो कार, अच्छा-ख़ासा अमीर
है तो लम्बी
कार और बहुत
अमीर है बहुत
लम्बी कार बिना
मांगे ही वर
को मिल जाती
है। फ़्लैट भी
आजकल बिना मांगे
“उपहार” में मिल
रहे हैं।
कैश एक ऐसी
चीज़ है जो
वर-पक्ष को
अक्सर बिना मांगे
नहीं मिलती। लेकिन
ऐसा नहीं है
कि लोग कैश
मांगने में हिचकिचाते
हैं। एक मित्र
ने बताया कि
उसकी महिला मित्र
के लिए एक
रिश्ता आया और
लड़के वालों ने
बिना इधर उधर
की बातों में
समय गंवाएँ पाँच
लाख नकद की
मांग रख दी।
लड़की के पिता
इतना पैसा देने
की स्थिति में
नहीं थे –सो
लड़के वालों ने
रिश्ता कहीं और
कर दिया। ये
पाँच लाख तो
साफ़-साफ़ मांगे
गए थे –इनके
अलावा “सामान्य” वस्तुएँ, जिनका
मैंने ऊपर उल्लेख
किया, वे तो
मिलनी ही थीं
–उन्हें मांग कर
वर-पक्ष अपना
“स्टैंडर्ड” नीचा नहीं
करता। बहरहाल, मैंने
अपने मित्र से
पूछा कि उस
लड़के में ऐसे
कौन से सुर्ख़ाब
के पर लगे
थे जो उसके
पिता ने पाँच
लाख रुपए मांगे?
जवाब मिला कि
लड़का रेल्वे में
इंजीनियर है! ये
लो कर लो
बात! रेल्वे में
इंजीनियर होना तो
जैसे पता नहीं
क्या होना हो
गया!
वास्तविकता
तो मैं नहीं
जानता लेकिन ऐसा
अक्सर सुनने में
आता है कि
भारत के कई
राज्यों में लड़के
के पद के
अनुसार विवाह के लिए
उसका भाव तय
होता है। लड़का
आई.ए.एस.
है तो कन्या-पक्ष को
एक करोड़ रुपया
नकद देना होगा,
डॉक्टर है तो
पचास लाख, इंजीनियर
है तो इतना
और वकील है
तो उतना…
ये सब सुनकर
लड़के के पिता
पर मुझे इतना
गुस्सा नहीं आता
क्योंकि वे तो
पिछली पीढ़ी के
लोग हैं अब
उनसे क्या कहूँ
–लेकिन ये नौजवान
लड़के कैसे इतने
बेशर्म हो सकते
हैं? ये तो
वही हैं न
जो युवा-शक्ति
की बातें करते
हुए बदलाव लाने
के नारे लगाते
फिरते हैं? अपनी
होने वाली (और
कई बार तो
हो चुकी) धर्मपत्नी
के पिता का
खून चूसकर पता
नहीं ये लोग
किस तरह उन
वस्तुओं का उपभोग
कर लेते हैं
जिन्हें पाने के
लिए इन्होनें कोई
मेहनत नहीं की।
दहेज प्रथा एक अभिशाप एक अभियान दहेज़ के विरूद्ध |
विवाह के समय
“उपहार” के नाम
पर बिना मांगे
दी जानी वाली
वस्तुओं के चलन
के मैं सख़्त
ख़िलाफ़ हूँ। इन्हें
उपहार का नाम
केवल वर-पक्ष
और ग़ैर-पक्ष
(यानी समाज) के
लोग ही देते
हैं। असलियत तो
लड़की का पिता
ही जानता है
कि कौन-सी
चीज़ वह वाकई
उपहार-स्वरूप दे
रहा है और
कौन-सी चीज़
उस सामाजिक दबाव
के चलते ज़बरन
जुटा रहा है
जो दिखाई भी
नहीं देता। हुक्का
गुड़गुड़ाते और बात-बात पर
बीड़ी फूंकने की
आदत वाले हमारे
समाज के ठेकेदार
दहेज प्रथा को
एक नए रूप
में चलाए हुए
हैं। दहेज-हत्याएँ
इसलिए कम हुई
हैं क्योंकि मध्य
वर्ग की आमदनी
बढ़ गई है।
कन्या-पक्ष अब
बिना मांगे ही
बहुत कुछ देने
लगा है। इसके
अलावा कानून का
डर और लड़कियों
का बढ़ा हुआ
आत्मविश्वास भी दहेज-हत्याओं के घिनौने
कृत्य को कम
करने में सहायक
हुआ है; लेकिन
आजकल शादी लायक
लड़कों के पिताओं
वाली पीढ़ी के
अधिकांश लोग अभी
भी दहेज प्रथा
को प्रत्यक्ष या
परोक्ष समर्थन देते हैं।
कमाल की बात
ये है कि
एक ही व्यक्ति
बिल्कुल अलग-अलग
तरीके से व्यवहार
करता दिखाई देता
है। जब उसकी
बेटी की शादी
होती है तो
उसे अपनी दीन-हीनता याद आने
लगती है; और
वही व्यक्ति जब
अपने बेटे की
शादी करने के
लिए कन्या ढूंढ
रहा होता है
तो वह ऐसे
बात करता है
जैसे ताश का
खिलाड़ी तुरप का
इक्का हाथ में
होने पर करता
है।
हालात थोड़े बदले
ज़रूर हैं; दहेज
हत्याओं में कमी
आई है; लेकिन
आज भी बहुत-सी महिलाएँ
घरेलू हिंसा का
शिकार हो रही
हैं। इस हिंसा
के पीछे और
अधिक दहेज की
मांग अक्सर एक
कारण के तौर
पर पाई जाती
है। आज वर-पक्ष इतना
तो समझने लगा
है कि मिट्टी
का तेल डालकर
बहू को जला
देने के बाद
वे बच नहीं
सकते। ऐसा करेंगे
तो सीधे जेल
जाएंगे। सो, अब
हिंसा पहले जितनी
खुल्लम-खुल्ला नहीं हो
रही है। अब
शारीरिक यातना से अधिक
मानसिक यातना दी जाने
लगी है। मानसिक
यातना को सिद्ध
करना अपेक्षाकृत मुश्किल
होता है, सो
अब लालची वर-पक्ष मानसिक
यातना का सहारा
लेने लगे हैं।
हाल में तो
नहीं लेकिन अब
से काफ़ी साल
पहले जब दहेज
के लिए हत्या
आम बात हो
चली थी, तब
जान-पहचान की
कई लड़कियों के
बारे में मैंने
सुना कि ससुराल
वालों ने उन्हें
जला कर मार
डाला… जब जलाकर
मारना मुश्किल होने
लगा तो फिर
गला घोट कर
उसे आत्महत्या का
रूप दिया जाने
लगा। यह सब
जान कर कई
बार मन करता
है कि इस
समाज को त्याग
दिया जाए। यहाँ
इंसान नहीं वहशी
रहते हैं। लेकिन
बकौल शायर “अब
तो घबरा के
कहते हैं कि
मर जाएंगे, जो
मर के भी
चैन ना पाया
तो किधर जाएंगे?”
मेरे विचार में विवाह
के उपरांत लड़की
को अपने पति
के घर केवल
और केवल अपने
व्यक्तिगत सामान के साथ
जाना चाहिए। वर-पक्ष को
अक्सर अहंकार और
गुमान होता है
कि वे किसी
“पराए” की बेटी
को अपने घर
में “पनाह” दे
रहे हैं और
इसकी “कीमत” के
तौर पर दहेज
लेना उनका अधिकार
है। लेकिन ये
तमाम बातें ग़लत
हैं। लड़की वर-पक्ष के
घर रहने इसलिए
नहीं जाती कि
उसके माता-पिता
उसे अपने घर
में रख नहीं
सकते! विवाह जैसे
संबंध की मांग
है कि किसी
को तो अपना
घर छोड़ना ही
पड़ेगा –लड़की नहीं
छोड़ेगी तो लड़के
को कन्या-पक्ष
में आकर रहना
होगा। सो, वर-पक्ष को
शुक्रगुज़ार होना चाहिए
कि घर छोड़ने
का दुख लड़की
और अपनी संतान
से दूर होने
दुख लड़की के
माता-पिता उठा
रहे हैं। यदि
ऐसा ना होता
तो वर-पक्ष
को ये सब
सहन करना होता
और शायद दहेज
भी देना पड़ता!
केवल काग़ज़ी डिग्रियाँ और
नौकरी पा लेना
दूल्हा बनने की
योगयताएँ नहीं हैं।
व्यक्ति को सबसे
पहले आत्म-सम्मान
पाना चाहिए। दहेज
मांगना नीचता है और
दिए जाने पर
स्वीकार कर लेना
अपने खुद के
ही सम्मान पर
चोट करना है।
जो व्यक्ति कुछ
रुपयों के लालच
में अपना आत्म-सम्मान ताक़ पर
रख दे उससे
तो किसी पिता
को अपनी बेटी
नहीं ब्याहनी चाहिए।
और किसी भी
लड़की को ऐसे
लड़के से विवाह
कभी नहीं करना
चाहिए जो एक
पैसे की भी
मांग करे या
बिना मांगे मिलने
पर स्वीकार कर
ले। जो लड़के
अपने माता-पिता
की “खुशी” को
ढाल बनाकर दहेज
लेते हैं उनसे
भी सभी को
बचना चाहिए।
विवाह आपसी सहमति
से होने वाला
एक पवित्र संबंध
है। पैसे की
जितनी छाया इस
पर पड़ेगी यह
उतना ही अपवित्र
होता जाएगा। नौजवानों
को चाहिए कि
वे ईमानदारी से
की गई मेहनत
के बल पर
कमाएँ और जीवन
में आगे बढ़ें।
यहाँ तो हर लड़के के माँ-बाप अपने बेटे को हैं बेच रहें
दहेज के बाजार में बढ़-चढ़ के लगाते हैं बोली…
करते हैं तय कीमत अपने ही परवरिश की..
और कहलाते हैं सम्मान के अधिकारी की...
दहेज प्रथा पर एक कविता - नन्ही सी कली
जवाब देंहटाएंएक नन्ही सी कली, धरती पर खिली
लोग कहने लगे, पराई है पराई है !
जब तक कली ये डाली से लिपटी रही
आँचल मे मुँह छिपा कर, दूध पीती रही
फूल बनी, धागे मे पिरोई गई
किसी के गले में हार बनते ही
टूट कर बिखर गई
ताने सुनाये गये दहेज में क्या लाई है
पैरों से रौन्दी गई
सोफा मार कर, घर से निकाली गई
कानून और समाज से माँगती रही न्याय
अनसुनी कर उसकी बातें
धज्जियाँ उड़ाई गई
अंत में कर ली उसने आत्महत्या
दुनिया से मुँह मोड़ लिया
वह थी, एक गरीब माँ बाप की बेटी ।