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अतीत से वर्तमान तक
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|
अब हमें भविष्य में अपनाये जाने वाले राजनैतिक कार्यक्रम पर विचार कर लेना चाहिए| ध्येय-रूप में क्षात्र-धर्म के पालन के लिए अथवा उसके पालन करने की स्थिति तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम शक्ति की आवश्यकता पड़ती है| स्वयं अपने आप में अखंड और दृढ़ शक्ति का निर्माण किये बिना किसी भी अन्य प्रणाली को अपना कर ध्येय की कल्पना करना केवल आत्म-प्रवंचना मात्र कही जा सकती है| सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर सतोगुणी जातिय-भाव के निमार्ण द्वारा इस शक्ति के निर्माण की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| पर शक्ति और सामर्थ्य का जब तक बुद्धि से सामंजस्य नहीं करा दिया जाता तब तक वे मनोवांछित फलदायी नहीं होते| इस प्रकार के सामंजस्य से एक के किंचित अभाव की दूसरे द्वारा पूर्ति की जा सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में बौद्धिक तत्व के समावेश का निश्चित रूप से अर्थ है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर कार्य करना| इस व्यावहारिकता को सही अर्थ में समझने का तात्पर्य है समाज की मनोदशा का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ संतुलन और मेल करना| इस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को सम्यक रीति से समझने का नाम ही युग-धर्म की पहचान कही जा सकती है| यही युग-धर्म की पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों में बौद्धिक संतुलन की कसौटी है| अतएव भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से पूर्व हमें समझना पड़ेगा कि- युग धर्म क्या है ? हमें सोचना पड़ेगा किस प्रकार हम अपने सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुये युग-धर्म का पालन कर सकते है|
यह बताया जा चूका है कि भावी युग श्रमजीवी जातियों के अभ्युत्थान का युग होगा| भारत में अब तक श्रमजीवियों की उन्नति का रूप सामूहिक होकर व्यक्तिक ही हुआ है| शूद्रों में जो व्यक्ति महान और उच्च होते थे उन्हें उपाधियों आदि से विभूषित करके उच्च वर्ण वाले अपने में मिला लेते थे| इस सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार बहुत कुछ गुण, कर्म और स्वभाव ही था| शूद्रवर्ण में उत्पन्न हुए महान लोगों की इस विद्या या पराक्रम का प्रभाव मुख्यत: उच्च वर्णों के ही काम आने लगा और उनके सजातिय निम्न वर्ग उनके गुणों से कुछ भी लाभ नहीं उठा सके थे| पर अब समय गया है कि जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों का समाज पर प्रभुत्व होगा| अर्थात अब तक जिस प्रकार शूद्र जाति ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व प्राप्त कर समाज पर प्रभुत्व जमाती आई है इसके विपरीत भविष्य में यह अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और स्वभाव सहित समाज पर अधिपत्य स्थापित कर लेगी| साम्यवाद और समाजवाद के तत्वावधान में होने वाला श्रमजीवी शूद्रों का उत्थान इसी तथ्य की पुष्टि करता है|

भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के उत्थान का सूत्रपात हो गया है| बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस दिन अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो उठेंगे, उसी दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर राष्ट्र और समाज पर अधिपत्य कर सकते है| सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस खतरे से पूर्ण सावधान है| इसलिए वह श्रमजीवी-वर्गों में फुट डालकर उन्हें विभाजित रखना चाहता है| इस प्रकार एक का पक्ष लेकर दुसरे को प्रभावहीन और दसूरे का पक्ष लेकर पहले को निर्बल करने के हथकंडे वह काम ले रहा है, तथा श्रमजीवी-वर्गों को अपनी शक्ति और महत्ता का ज्ञान नहीं होने देने के लिए लुभावने कार्यक्रमों के जाल में उनको फंसा रहा है|

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