अतीत से वर्तमान
तक
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
अब हमें भविष्य
में अपनाये जाने
वाले राजनैतिक कार्यक्रम
पर विचार कर
लेना चाहिए| ध्येय-रूप में
क्षात्र-धर्म के
पालन के लिए
अथवा उसके पालन
करने की स्थिति
तक पहुँचने के
लिए सर्वप्रथम शक्ति
की आवश्यकता पड़ती
है| स्वयं अपने
आप में अखंड
और दृढ़ शक्ति
का निर्माण किये
बिना किसी भी
अन्य प्रणाली को
अपना कर ध्येय
की कल्पना करना
केवल आत्म-प्रवंचना
मात्र कही जा
सकती है| सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक प्रणाली
को अपनाकर सतोगुणी
जातिय-भाव के
निमार्ण द्वारा इस शक्ति
के निर्माण की
बात ऊपर लिखी
जा चुकी है|
पर शक्ति और
सामर्थ्य का जब
तक बुद्धि से
सामंजस्य नहीं करा
दिया जाता तब
तक वे मनोवांछित
फलदायी नहीं होते|
इस प्रकार के
सामंजस्य से एक
के किंचित अभाव
की दूसरे द्वारा
पूर्ति की जा
सकती है|
अपनी कार्य प्रणाली में
बौद्धिक तत्व के
समावेश का निश्चित
रूप से अर्थ
है राजनैतिक, सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों
में व्यावहारिकता को
ध्यान में रखकर
कार्य करना| इस
व्यावहारिकता को सही
अर्थ में समझने
का तात्पर्य है
समाज की मनोदशा
का राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के साथ
संतुलन और मेल
करना| इस राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र
को सम्यक रीति
से समझने का
नाम ही युग-धर्म की
पहचान कही जा
सकती है| यही
युग-धर्म की
पहचान राजनैतिक कार्यक्रमों
में बौद्धिक संतुलन
की कसौटी है|
अतएव भावी कार्यक्रम
निर्धारित करने से
पूर्व हमें समझना
पड़ेगा कि- युग
धर्म क्या है
? हमें सोचना पड़ेगा किस
प्रकार हम अपने
सिद्धांतों को सुरक्षित
रखते हुये युग-धर्म का
पालन कर सकते
है|
यह बताया जा चूका
है कि भावी
युग श्रमजीवी जातियों
के अभ्युत्थान का
युग होगा| भारत
में अब तक
श्रमजीवियों की उन्नति
का रूप सामूहिक
न होकर व्यक्तिक
ही हुआ है|
शूद्रों में जो
व्यक्ति महान और
उच्च होते थे
उन्हें उपाधियों आदि से
विभूषित करके उच्च
वर्ण वाले अपने
में मिला लेते
थे| इस सिद्धांत
के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का आधार
बहुत कुछ गुण,
कर्म और स्वभाव
ही था| शूद्रवर्ण
में उत्पन्न हुए
महान लोगों की
इस विद्या या
पराक्रम का प्रभाव
मुख्यत: उच्च वर्णों
के ही काम
आने लगा और
उनके सजातिय निम्न
वर्ग उनके गुणों
से कुछ भी
लाभ नहीं उठा
सके थे| पर
अब समय आ
गया है कि
जब शुद्रत्त्वसहित शूद्रों
का समाज पर
प्रभुत्व होगा| अर्थात अब
तक जिस प्रकार
शूद्र जाति ब्राह्मणत्व,
क्षत्रियत्व अथवा वैश्यत्त्व
प्राप्त कर समाज
पर प्रभुत्व जमाती
आई है इसके
विपरीत भविष्य में यह
अपने शुद्रोचित धर्म-कर्म और
स्वभाव सहित समाज
पर अधिपत्य स्थापित
कर लेगी| साम्यवाद
और समाजवाद के
तत्वावधान में होने
वाला श्रमजीवी शूद्रों
का उत्थान इसी
तथ्य की पुष्टि
करता है|
भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा भी
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्रों के
उत्थान का सूत्रपात
हो गया है|
बहुसंख्यक श्रमजीवी शूद्र जिस
दिन अपने अधिकारों
के प्रति सचेत
हो उठेंगे, उसी
दिन वे बुद्धिजीवी-वर्ग के
प्रभुत्व को समाप्त
कर राष्ट्र और
समाज पर अधिपत्य
कर सकते है|
सत्तारूढ़ बुद्धिजीवी-वर्ग इस
खतरे से पूर्ण
सावधान है| इसलिए
वह श्रमजीवी-वर्गों
में फुट डालकर
उन्हें विभाजित रखना चाहता
है| इस प्रकार
एक का पक्ष
लेकर दुसरे को
प्रभावहीन और दसूरे
का पक्ष लेकर
पहले को निर्बल
करने के हथकंडे
वह काम ले
रहा है, तथा
श्रमजीवी-वर्गों को अपनी
शक्ति और महत्ता
का ज्ञान नहीं
होने देने के
लिए लुभावने कार्यक्रमों
के जाल में
उनको फंसा रहा
है|
0 Comments:
It is our hope that by providing a stage for cultural, social, and professional interaction, we will help bridge a perceived gap between our native land and our new homelands. We also hope that this interaction within the community will allow us to come together as a group, and subsequently, contribute positively to the world around us.