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श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक पूज्य श्री तनसिंह जी

श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक पूज्य श्री तनसिंह जी



श्री क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक पूज्य श्री तनसिंह जी की आज 96 वीं जयंति है। पढ़ें, तनसिंह जी के देहावसान के पश्चात उनकी माताश्री के भावों को स्वर देता हुआ श्रद्धेय नारायणसिंह जी रेडा द्वारा लिखा गया आलेख "माँ के मुख से"...

माँ के मुख से

विधाता ने मेरे भाग्य में केवल छ: वर्ष का सुहाग लिखा था! होनहार को कोई टाल नहीं सकता!.... बाड़मेर से 80 मील उत्तर पश्चिम और जैसलमेर से 40 मील दक्षिण-पश्चिम में, वर्तमान राजस्थान के सुदूर पश्चिमी इलाके में रेतीले टीबो के बीच बसा छोटा सा गांव है, बेरसियाला, वही मेरा पीहर और वही है मेरा जन्म स्थान! मेरे जन्म के समय वह जैसलमेर राज्य का एक गाँव था, आज भी बेरसियाला का मुख्यालय जैसलमेर ही है। मेरे पिता का स्वर्गवास उस समय ही हो चुका था जब मैं केवल आठ वर्ष की थी! मेरे एक छोटा भाई था और दो छोटी बहनें! अब भाई भी नहीं रहा! उसके दो पुत्र, पांच पौत्र, एक पौत्री और मेरे भाई की पत्नी, अब वही मेरे पीहर का परिवार है।
संवत 1976 में माघ माह में ठाकुर बलवंतसिंह जी महेचा की अर्धागिनी बन दुल्हन का सेहरा बांधे हींगलू से मांग भरे मैंने इस घर में प्रवेश किया! विवाह उत्सव साधारण ही मनाया गया! मैं उनकी दूसरी पत्नी थी! उनका पहला विवाह गिराब के श्री जयसिंह की पुत्री से हुआ था! पहले विवाह से उन्हें दो संतान प्राप्त हुई, दोनों पुत्र! बड़े का नाम था प्रतापसिंह और छोटे का जैतमालसिंह! हमारे पाणिग्रहण से एक वर्ष पूर्व उनकी पहली पत्नी का देहांत हो चूका था! हमें प्रणय सूत्र में बँधे छ: वर्ष ही बीते थे कि वे चले गए, महायात्रा पर सदा सदा के लिए, और यहाँ रह गई मैं, मेरा भाग्य और दुःख !
उनका छोटा पुत्र जैतमालसिंह तो पिता से पूर्व ही संसार छोड़ चूका था! हाँ, पिता से पूर्व ठीक एक वर्ष पूर्व! ईस्वी 1952 में उनका बड़ा पुत्र प्रतापसिंह भी चला गया और सन 1979 दिसम्बर 7 को उनका छोटा पुत्र और मेरी एक मात्र सन्तान तणेराज भी चला गया, फिर भी मैं बैठी हूँ और मेरे साथ ही बैठा है मेरा दुर्भाग्य! किसी पुत्र की, और वह भी एक मात्र पुत्र की अर्थी माँ की आँखों के सामने उठाई जावे, इससे बढ़कर संसार में कोई दुर्भाग्य हो ही नहीं सकता और वह दिन मैंने देखा है! भगवान किसी भी माँ को ऐसा दिन न दिखाए!
तुम उसे तनसिंह ही कहोगे! कुछ लोग उसे साहब भी कहते थे पर मुझे तो पता नहीं, कि वह तणेराज से तनसिंह कब बन गया और कब बन गया तनसिंह से "साहब"? मैंने उससे एक दिन पूछा था कि तुम्हे लोग साहब क्यों कहते है? वह मुस्कराया और बोला--"मेरा रंग काला है न! इसलिए लोग मुझे चिढ़ाने के लिए साहब कहने लगे, पर मैं चिढ़ता क्यों? धीरे धीरे यह व्यंगात्मक विशेषण उपनाम में बदल गया!" मैंने उससे कभी यह नहीं पूछा कि उसका नाम तणेराज से तनसिंह कब और कैसे हो गया! मेरे लिए तो वह सदा तणेराज ही रहा!
तणेराज...... ! विक्रमी संवत 1980 के माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के सूर्योदय से पूर्व उसने मेरी कोख से जन्म लिया! मैं उसकी माँ बनी और वह मेरा बेटा! मेरी प्रथम और अंतिम सन्तान! उस दिन मैं मेरे अपने भाई शक्तिसिंह सोढा के घर पर थी! जन्म से नौ दिन बाद नामकरण संस्कार हुआ और नाम रखा गया तणेराज! दो महीने पीहर में रहने के बाद मैं अपने शिशु को लेकर बाड़मेर आ गई थी! मेरी कल्पना से अधिक हर्षोल्लास मनाया गया ! बधाइयाँ बांटी गयी ! मेरे तणेराज  को बधाई स्वरुप सर्वप्रथम छाती से लगाया, उसके बड़े पिता रणजीतसिंह जी ने और उसके बाद तो बधाई देने के लिए आने वालों का ताँता ही बंध  गया! उसके पिता माने जाने व्यक्ति थे, उनके यहाँ आने वालों की सदा भीड़ लगी रहती थी जब वे घर पर होते, कमरे के भीतर लोगों को बैठने के लिए कठिनाई से ही जगह मिल पाती थी, जिन्हें जगह नहीं मिल पाती वे कमरे के बाहर ही बैठे रहते, बाहर जूतियाँ रखने को भी जगह न बचती! मैं तो सुबह से लेकर अर्ध रात्रि तक रोटी बनाने में ही लगी रहती थी! इन दिनों पुत्र को बधाई देने वालों का आना जाना होने के कारण भीड़ और अधिक रहने लग गई थी!
शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति  मेरा तणेराज भी बढ़ने लगा, पर पूर्णिमा के पूर्व ही कृष्ण पक्ष की काली छाया ने हमें आ घेरा! अभी वह ठीक प्रकार चलना भी नहीं सीखा था कि कुँवर तणेराज से ठाकुर तणेराज हो गया! केवल चार वर्ष के अबोध बालक के सिर पर सफ़ेद पाग बँधवा  दी गई! सफ़ेद पाग, हमारी परम्परा में हर पुत्र को उसके पिता का स्वर्गवास होने पर बँधाई  जाने पाली पाग! तणेराज के पिता का स्वर्गवास हो चुका था और वह ठाकुर हो गया था!
           ठाकुर तणेराज! पर कैसा ठाकुर? कैसा जागीरदार? कैसी जागीर? हमारी जागीर की आमदनी तो केवल नब्बे रूपये वार्षिक थी! आर्थिक कठिनाइयाँ क्या होती है, यह मैंने बहुत शीघ्र ही अनुभव कर लिया और उस छोटी उम्र में ही यह भी अनुभव कर लिया कि सुख के दिनों में दुनिया के लोगों का रुख क्या रहता है और कठिनाइयों के बादल घिर आने पर वे ही लोग कितने बदल जाते है! गरीब की आबरू जाते जितनी देर लगती है उससे भी कम समय लगा --अपना कहलाने वाले लोगों को बदलते हुए! सभी का आना जाना बंद हो गया! अब न कमरे के भीतर आदमियों की भीड़ रहती थी और न बाहर जूतियों का ढेर!घर में आदमी के नाम पर था एक मेरा तणेराज, चार वर्ष का पुरुष और दूसरा साठ वर्ष का बूढ़ा धुड़ा जो जाति का वजीर था क्योंकि उसने वजीर माता पिता के यहाँ जन्म लिया था पर यदि आदमी की जाति, उसके गुणों से पहचानने की रीत कहीं हो तो मेरी निगाह में धूड़ा की जाति से बढ़कर संसार में जाति नहीं होती! वफ़ादारी और विश्वनीयता की यदि कोई परख हो सकती हो तो धुड़ा परख का खरा ही नहीं बल्कि स्वयं इसकी कसौटी था! लकड़ी लाने, पानी भरने जैसे घरेलु काम भी बूढ़ा धुड़ा ही करता था! तीन प्राणियों के लिए खाना पकाने में मुझे कितना समय लगता! कभी कभी तो एक समय का पकाया खाना ही दूसरे समय ठंडा बासी खाकर मैं पड़ी रहती! पौष्टिक खुराक के नाम पर अपने लाडले को देने के लिए मेरे पास अपने वक्ष की उष्णता के अतिरिक़्त कुछ नहीं होता था! तब मेरी माँ जीवित थी! माँ से बढ़कर बल्कि यह कहूँ कि उसके अतिरिक़्त मेरे दुःख को जानने वाला कोई नहीं था! विधवा के दुःख को विधवा ही जानती हैं ! वह मेरी माँ मेरे भाई को मुझसे मिलने भेजती थी, तब उसके साथ अन्न, थोड़ा बहुत घी और एक छोटी सी हाँडी में दूध से बनाया हुआ खोया भी भेज दिया करती थी! मेरे पुत्र को पौष्टिकता मिलती थी उस घी व खोया से, पर मुझे पौष्टिकता मिलती थी मेरी माँ की उस भावना से जिससे प्रेरित होकर वह यह सब कुछ करती थी!
मैं नहीं जानती मुझे यह प्रेरणा कहाँ से मिली कि मुझे अपने पुत्र को पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना हैं! अब उसकी उम्र पढ़ने योग्य हो चुकी थी, मैं उसे पाठशाला भेजने लगी! मुझे लोगों के व्यंग्य सुनने को मिले "अब यह पढ़ लिख कर बनेगा बड़ा बेरिस्टर" कुछ यह भी कहते कि क्या खाक पढ़ेगा उसमें तो माँग  कर खाने की भी योग्यता नहीं है !  
मैं सब कुछ चुपचाप सुनती रहती, किसी को कोई उत्तर दे भी नहीं सकती थी! धुडा मुझे हमेशा हिम्मत बँधवाता रहता था कि यह पढ़ेगा! यदि हिम्मत बंधाने वाला दूसरा कोई था तो वह था मेरा अन्तरमन, मेरा आत्म विश्वास! एक दिन मुझे पता लगा कि वह कभी कभी पाठशाला से ग़ायब रहता है! उस दिन उसके वापिस लौटने पर मैंने एक रस्सी से उसके हाथ बाँधे और छत की कड़ी से लटका कर नीचे आग जलाने का भय भी दिखाया! धुड़ा केवल वफादार ही नहीं, समझदार भी था, वह मेरी योजना को भाँप गया और बीच में पकड़कर उसे छुड़ा दिया! उसने आश्वासन दिया कि भविष्य में कभी पाठशाला से अनुपस्थित नहीं रहेगा! उस दिन के बाद मैं और भी अधिक सतर्कता बरतने लगी, पूछताछ करती कि तणेराज कभी पाठशाला से अनुपस्थित तो नहीं रहता? पर उस दिन के बाद उसने कभी मुझे यह सुनने का अवसर नहीं दिया कि वह पढाई से जी चुराता है!
एक दिन उसने चोरी भी की थी! अपने ही घर से, चंद पैसो की चोरी! मुझे दुःख हुआ वैसे तो मेरे लिए एक पैसे का मूल्य भी कम नहीं था, पर उससे अधिक दुःख था उसकी चोरी की आदत पड़ने का! उस दिन तो मैंने उससे कुछ नहीं कहा, अगले दिन कहा-- "यदि तुम चोरी करोगे तो लोग तुम्हे चोर कहेंगे चोर अच्छा आदमी नहीं होता!" और उसके बाद अगले पचास वर्षो में उसने मुझे कभी यह सुनने का अवसर नहीं आने दिया कि मेरा बेटा चोरी करता है!
बाड़मेर से सोलह मील दक्षिण की ओर रामदेरिया नामक गांव में हमारी काश्त की थोड़ी सी भूमि है! घर का खर्च चलाने के लिए उस समय भूमि पर काश्त करवाना आवश्यक हो गया था, इसके लिए जरुरी था कि मैं बाड़मेर छोड़ कर गाँव में अपनी ढाणी में जाकर रहूँ! मैंने यही किया! तणेराज को बाड़मेर में ही रखा और मैं गाँव में जाकर रहने लगी! समय समय पर बाड़मेर आती थी और बाजरा पीसकर छोड़ जाती थी! रोटी वह अपने हाथ से ही बनाता था! जब कभी आटा समाप्त हो जाता था, तब वह घर में रखी चक्की से आटा भी स्वयं ही पीस लेता था! बच्चा भी कहीं रोटी बनाना जानता है? उसे भी कहीं चक्की पीसना आता है? कई बार देखा करती थी, रोटी बनाते समय आग से जले हुए और चक्की पीसने से उभर आए छालों से भरे हुए उसके हाथों को! तब अपने दिल पर हजारों मन का पत्थर रख लेती थी, कहीं मेरी पीड़ा वह जान लेता, मेरी आखों की आर्द्रता वह देख लेता तो शायद पसीज कर पढ़ना ही छोड़ बैठता! मैं स्वयं ही अपने को धीरज बँधाती, दुःखी मत हो मन! जिस पुत्र के सर पर पिता के हाथ की छाया नहीं रहती, उसे यह सब तो सहना ही होता है! जिस नारी को इतनी छोटी उम्र में ही काले वस्त्र पहनने पड़ जावे, उसके लिए यह दुःख कोई बड़ा दुःख नहीं हुआ करता हैं! मेरा धीरज ही मेरे काम आया! मैं धीरज धरती गई, दिल को कठोर रखती गई और वह पढता गया !
जोधपुर तब मेरे लिए परदेश जितना ही दूर था, पर मन में कोई साध हो तो क्या देश और क्या परदेश! एक दिन उसने कहा-- "मैं राजपूत स्कूल, चौपासनी, जोधपुर में पढ़ने जाऊंगा!" मैंने उसे जाने की स्वीकृति दे दी! स्वीकृति और दुआ के सिवाय मेरे पास देने को कुछ नहीं था! मैं भी नहीं पूछ सकी कि उसकी पढाई का खर्च कैसे पूरा होगा? वह चौपासनी में पढ़ने जोधपुर चला गया ! चौपासनी से दसवी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढाई के लिए वह पिलानी गया! इन्ही दिनों उसके पास एक सुनहरे रंग का सिक्का नुमा तमगा देखा! अभाव हो तो अविश्वास भी शीघ्रता से सिर उठा लेता है! मैंने सोचा शायद अभी तक चोरी की आदत छोड़ी नहीं है यह सिक्का कहीं से चुरा लाया लगता है! पूछा तो उसने बताया कि वह चौपासनी स्कूल में सर्वश्रेष्ठ विधार्थी (बेस्ट स्कॉलर) रहा हैं और इसी के प्रमाण स्वरूप पुरस्कार में उसे यह तगमा चौपासनी की ओर से उसे मिला हैं! पाठक तुम कभी चौपासनी स्कूल जाओ तो वहाँ देखना सन 1942 का सर्वश्रेष्ठ विधार्थी कौन रहा था, कहीं उसने मुझ से झूठ तो नहीं कहा था? नहीं! नहीं!! यह तो मेरे ही अविश्वास का मैल बोल रहा है, अन्यथा वह तो कभी झूठ नहीं बोला, उसने कभी कुछ असत्य नही कहा! जो कहा सत्य ही कहा! भीषण गर्म और तेज लू के बाद बरसाती पवन का प्रथम झोंका भला लगता है! मेरे लिए आत्म गौरव की यह प्रथम लहर थी जो मेरे अन्तर को प्रसन्नता से सराबोर कर गई! मेरा तणेराज चौपासनी स्कूल का सर्वश्रेष्ठ विधार्थी! पर मैंने उस पर कुछ भी प्रकट नहीं होने दिया, कहीं इसे ही जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि मानकर संतोष न कर बैठे! माँ की आर्द्रता उसे मुझे देनी थी, पर पिता की कठोरता भी मुझे ही निभानी थी! उसके लिए मैं ही माँ थी और मैं ही पिता !
चौपासनी और पिलानी में पढ़ते समय बहुत बार वह छुट्टियों में भी घर नहीं आता था! माँ की ममता और पिता का वात्सल्य ही नहीं अभिभावक की सतर्कता का दायित्व भी मुझ पर ही था! मैंने पता लगवाया तो मालूम हुआ कि वह अपनी पढाई के खर्च की व्यवस्था हेतु कभी कपडे सीने का धंधा करता है, कभी छोटी मोटी बागवानी का तो कभी अन्य विधार्थियों को घर पर पढाने का! ठाली ठकुराई करने वाले हाथ से काम करने को बड़ी हेय दृष्टि से देखते रहे हैं, उस समय में तो यह रोग और भी अधिक था! पर मैंने हाथ से काम करने को कभी हेय नहीं समझा, कर्म को प्रतिष्ठा देने में ही मैंने सदा अपनी प्रतिष्ठा समझी है! उसकी स्वालम्बन की प्रवृति से मुझे संतोष मिला, बुरा कुछ भी नहीं लगा! न मुझ से मेरी विशेषताएँ छिपी थीं और न उससे इस घर की आर्थिक स्थिति ही! हम माँ बेटे ने स्वालम्बन चाहे आर्थिक संकट के दबाव, विवशताओं की काली छाया और परिस्थितियों के साये के तले सीखा हो, फिर भी स्वालम्बन के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता! किसी को हो न हो, मुझे तो उसके पुरुषार्थ पर सदा गौरव रहा है! जब यह जान लिया कि वह छुट्टियों का उपयोग कैसे करता है, तो मैंने भी कभी उस पर छुट्टियों में घर आने का आग्रह नहीं लादा! लोग कहने लगे कि मैं तो "काले लहू" की औरत हूं जिसने अपने एक मात्र बेटे को अपने से सैंकड़ो कोस दूर बैठा रखा है, न कभी बुलावा भेजती है, न याद करती हैं! मैं क्या कहूँ? क्या कोई माँ हो सकती हैं जो अपने बेटे को भुला दे? लोग मुझे "काले लहू" की कहते रहे, इसकी मुझे कभी चिन्ता नहीं हुई! चिन्ता रहती थी तो केवल यही की कभी मुझे यह सुनने का अवसर न मिले कि मेरा बेटा कपूत निकला! तुम कह सकते हो कि हर माँ अपने बेटे को सपूत ही कहती है, अत: मेरे कहने का विश्वास मत करो,स्वयं अपने ही अन्तर से पूछो कि वह कपूत निकला या सपूत?
एक दिन वह बोला, ''हैदराबाद में राजपूत सभा की मीटिंग हैं, मैं भी वहाँ जा रहा हूँ!'' वह वहाँ गया! वहां क्या हुआ? उसने क्या किया? मुझे मालूम नहीं! पर इस मीटिंग के थोड़े ही समय बाद छोल से समाचार आया कि श्री राणसिंह जी अपनी कन्या का सम्बन्ध मेरे पुत्र के साथ करना चाहते थे! राणसिंह जी के परिवार के संस्कारों व उनकी संपन्नता से मैं पहले से ही  परिचित थी! अतः मैंने यह सम्बन्ध स्वीकार कर लिया!
उस दिन 26 जून 1947 को मेरा घर खिल उठा! खेतसिंह का कड़िया (छोल) जिला थारपारकर (पाकिस्तान) के ठाकुर राणसिंह सोढा (गंगदासोत) की पुत्री बाईराज कुंवर आनखशिख सजी धजी दुल्हन, मेरी पुत्र वधु बनकर मेरे घर आई! मेरी पुत्र वधु सुकोमल, सयानी और भली--मेरे घर की लाज! लाड प्यार से पली सुकुमारी सी, किसी बगीचे में मधुमास की खिली कली सी, पैरों में पायल, अँगुलियों में बिछुए पहने सुन्दर सुरंगे परिधान में लिपटी वह मेरे आँगन की शोभा बनी! मेरे पुत्र को पाकर उसे सुहाग मिला और उसे पाकर मेरे घर के आँगन को सुहाग मिल गया! 
सन 1949 में उसने अध्ययन पूरा किया और यहीं बाड़मेर में वकालत प्रारम्भ कर दी! भाग्य ने पूरी करवट बदली भी नहीं थी कि लोगों ने शीघ्रता पूर्वक पलटा खाना शुरू कर दिया! थोड़े ही समय में मैंने देखा, लोगो का फिर आना जाना होने लगा है! उन्ही लोगों का जो कभी बड़ी बेहरहमी से बिना इधर देखे इस घर के पास से गुजर जाते थे! जैसे वे जानते ही नहीं कि यह घर भी किसी हमारे ही अपने का है ! मैंने मन ही मन समझ लिया कि दुनिया भी तभी साथ देती है जब भाग्य साथ देता है! भाग्य आया तो सहयोग भी दौड़ा आया, योग्यता आई तो लक्ष्मी भी दौड़ी आई और पुरुषार्थ आया तो लोग भी दौड़े आए! फिर वही कोलाहल, वही जमघट जो उसके पिता के समय देखा करती थी !
फिर नगरपालिका का चुनाव आया और एक दिन उसने मुझसे कहा "मुझे आशीष दो विजय की, मैं चुनाव में खड़ा हो रहा हूँ !" भाग्य और पुरुषार्थ का संयोग हुआ और वह न केवल सदस्य ही बल्कि नगरपालिका का अध्यक्ष भी चुन लिया गया और उसके बाद 1952 में प्रथम आम चुनाव में जीतकर एम. एल. ए. बन गया!
मुझे उससे शिकायत भी थी! एक दिन अपनी शिकायत उससे प्रकट भी कर  दी---"तुम घर के लिए रूपये बहुत कम देते हो, घर का काम कैसे चलाऊँ? क्या अब भी कष्ट उठाती रहूँ!''

"कितने रूपये चाहिये ?"

"जितने तुम कमाते हो!''

"कमाता तो काफी हूँ,क्या सब आपको ही देता रहूँ? यदि सब इस परिवार को ही दे दूँ तो फिर मेरे परिवार का काम कैसे चलाउँगा ?"

"तुम्हारा परिवार...?"

"हाँ, मेरा परिवार, मेरा सांघिक परिवार! इस परिवार के सम्बन्ध बने है---इस घर में जन्म लेने के कारण और उस परिवार से सम्बन्ध बने है हमारे त्याग,तपस्या और साधना के आधार पर! यह भी परिवार है और वह भी मेरा परिवार है!"
उसकी बात कुछ समझी, कुछ नहीं समझी पर यह मान्यता पुष्ट हो गई कि वह जो कुछ कर रहा है, स्वर्ण पिघलाने जैसा है, पुनीत कार्य है अतः मन ही मन मैंने अपनी शिकायत वापिस ले ली और माँ बेटे ने मिलकर प्रसन्नतापूर्वक फैसला कर लिया कि वह सौ रूपये मासिक देगा और मुझे इसकी सीमा में रहते हुए घर की गाडी खींचते जाना है!वह सौ रूपये प्रतिमाह मुझे देता रहा और मैं घर की गाडी चलाती रही ! आसानी से या कठिनाई से? यह कभी जबान पर नहीं लाऊंगी!
1960 की शीतला सप्तमी का दिन, दोपहर का समय, वह छत से गिर पड़ा और उसके दोनों हाथ टूट गए! दोनों हाथो पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया ! न अपने हाथ से खा सकता था, और न पी सकता था! न नहाना हाथ से, न खुजलाना ! इन्ही दिनों उसके उस परिवार को अधिक गहराई से देखने का अवसर मिला जिसे "श्री क्षत्रिय युवक संघ" कहते हैं! मुझे अनुभव हुआ कि मेरे केवल एक ही बेटा नहीं है! न जाने उसके कितने भाई है, न जाने मेरे कितने बेटे है! बेटा केवल वही नहीं होता जो कोख से जन्म लेता है, माँ भी केवल वही नहीं होती जो जन्म देती है! माँ-बेटा  तो एक सम्बन्ध होता है ! संसार का सर्वाधिक पवित्र सम्बन्ध, सर्वथा निर्मल सम्बन्ध, सदा सर्वदा बना रहने वाला अटूट सम्बन्ध! लौकिक ही नहीं पारलौकिक भी !
वह अध्यक्ष (1949 से 1952 तक) भी रहा, दो बार एम.एल.ए और दो बार एम.पी. भी रहा, पर मेरे लिए तो सदा तणेराज ही रहा! मेरा कहना उसने कभी नहीं टाला , किसी भी बात का कभी उल्लंघन नहीं किया! संसार से विदाई लेने से पूर्व भी मुझसे इसकी स्वीकृति मांगने आया था! उसकी भाषा को समझ नहीं पाई तो इसमें उसका क्या दोष? सोचती हूँ यदि मेरी स्वीकृति नहीं होती तो वह विदाई भी नहीं लेता! अंतिम विदाई से लगभग सोलह घंटे पूर्व वह मेरे पास आकर बैठा, और बोला "मैं ससुराल जाना चाहता हूँ!'' मैंने सोचा छोल जाना चाहता है! ठीक ही तो है, वह अपने बूढ़े श्वसुर से मिल आएगा! मैं कहाँ जानती थी कि वह जहाँ जाना चाहता है,वह ससुराल तो कही और हैं! मैंने राजी होकर कह दिया---"चले जाओ , तुम्हारे जाने से तुम्हारे ससुराल वालों को भी प्रसन्नता होगी!" और दूसरे दिन प्रातः ही वह चला गया ! मेरा लाल चला गया, मेरी बहु का सुहाग चला गया, मेरे आँगन के नन्हे बच्चों का पिता चला गया और तुम्हारा बंधू चला गया !
मैं बैठी हूँ, अपने दुर्भाग्य को सर पर चढ़ाए और उस कोने में बैठी है मेरी बहु! न जाने मेरे कौन से जन्मों के कर्मो का यह फल है ! हे विधाता ! तुम सबको विवश कर सकते हो पर तुम्हे विवश करने की शक्ति किसी में नहीं! मैं तो सब कष्ट सह लूँगी, पर यह कैसे सह पाएगी ! इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? मैं तो सदा ही तुमसे प्रार्थना करती रही हूँ कि तुमने मेरा सुहाग तो शीघ्र ही छीन लिया, इसे सदा सुहागिन बनाए रखना! मैंने तुमसे मांग की थी कि मेरे बाद किसी को काले वस्त्र पहनने न पड़े, पर तुमने मेरी आँखों के सामने ही मुझ जैसे ही काले वस्त्र पहनने के लिए इसे बाध्य कर दिया ! इसी की कोख से, मेरा आँगन चहकता चमन बना! मुझे मिली प्रथम पौत्री बालू कुंवर दूसरा पौत्र पृथ्वीराज तीसरी पौत्री जड़ावकुंवर और चौथा पौत्र देवीसिंह !
मेरी बालू रामपुरिया (मेवाड़) के श्री सरदारसिंह जी के द्वितीय पुत्र डॉक्टर हरिसिंह चुंडावत की धर्म सहचरी और प्यारी जडू सायरसिंह जी हरदासकाबास निवासी की पुत्र वधु! मेरा छोटा पौत्र जंवाई महावीरसिंह 1 जुलाई 1979 को ही तो आया था, दूल्हा बनकर और पिता ने अपनी छोटी बेटी को ससुराल के लिए विदा किया था, हँसी ख़ुशी से! मैंने सोचा था कि बाप द्वारा बेटी को यह प्रथम सीख हैं !जड़ाव आएगी और जब वापिस ससुराल लौटेगी तो हर बार बाप प्रसन्नता पूर्वक बेटी को विदा देगा, सीख देगा, आशीर्वाद देगा, सिर पर हाथ फेरेगा! मुझे क्या पता था कि यह बाप द्वारा अन्तिम विदाई है और इसके बाद बाप बेटी को विदाई देगा नहीं, स्वयं ही विदा हो जावेगा ! अब वह न कभी विदा देगा, न आशीष देगा,और न सिर पर हाथ ही रखेगा !
मालाधारी तो गया, पता नहीं मेरे प्राण क्यों अटके है? क्यों चले नहीं जाते? अन्तर में संशय और विश्वास के बीच द्वन्द्व चल रहा है! संशय कहता है अब यहाँ आने वालों का सिलसिला फिर टूट जाएगा,अब यहाँ अपनों की भीड़ नहीं रहा करेगी, पर विश्वास कहता है नहीं! इस बार ऐसा नहीं होगा! कभी नहीं होगा!

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