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सामराउ की सत्यता

सामराउ की सत्यता

सामराउ की सत्यता

_आर्थिक सहयोग जुटाने की मुहिम के लिए चल रहे संदेश में उम्मेद सिंह जी सेतरावा के मोबाइल नंबर दिए हुए हैं, अनेक लोग उन्हें फोन कर घटना का विवरण पूछ रहे हैं।
_उन्होंने पूरी घटना का विवरण लिख कर भेजा है। जोधपुर के बाहर मीडिया में इस घटना का पूरा विवरण नहीं आया है ऐसे में सोशल मीडिया का सहारा ले इसे हर देशवासी तक प्रसारित करें।


जोधपुर के सामड़ाऊ गाँव में जिस तरह से दो व्यक्तियों के झगड़े को जातिगत रूप देकर निर्दोष लोगों के आशियाने उजाड़ दिए गये 
तो उस घटना ने यह सोचने को मजबूर किया कि *आख़िर राजपूत इतना निर्बल कैसे हो गया* जो विरोध भी नहीं कर पाया। पता करने पर सत्यता इस तरह सामने आयी।
जिस दिन यह घटना हुई उस दिन भी उन लोगों ने कुछ जगह आगज़नी की और उत्पात मचाया और दूसरे दिन शव को लेकर सामड़ाऊ गाँव में बैठ गये, सरकार से कुछ माँगे मनवाने के लिए। भीड़ बढ़ती गई और प्रशासन का अमला भी बढ़ता गया। *उस समय police द्वारा वहाँ जो राजपूतों के घर थे उनको समझाया गया कि कल की ताज़ा घटना है और आप लोग उनको दिखोगे तो दंगा फ़साद हो जायेगा इस कारण आप यहाँ से दूर चले जाओ, शाम तक प्रशासन यह मामला निपटा लेगा शव यहाँ से पोस्टमार्टम के लिए ले जायेंगे, भीड़ बिखर जाएगी तब आप आ जाना।* लोगों ने कहा की हमारे घर, बच्चे, महिलाएँ व बुज़ुर्ग हैं उनको कहाँ ले जाएं। police ने कहा कि उनकी चिंता हम पर छोड़ो उनको कोई आँच नहीं आने देंगे बस जवान लोग इधर उधर हो जाओ तो शान्ति बनी रहेगी। *police प्रशासन पर विश्वास करके वो लोग वहाँ से दूर अपने खेतों में चले गये।*
भीड़ बढ़ती गई, तथाकथित किसान नेता भाषण देते गये और बीच बीच में भीड़ को उकसाते गये और फिर तांडव का नाच शुरू हुआ।


इस घटना की जब महिलाओं से जानकारी ली कि यह सब कैसे हो गया तो उनका कहना था की जब उन्होंने तांडव शुरू किया तब यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि न तो वे मानव है और न उनमें मानवीयता है। *अब हमारे सामने दो प्रश्न थे, ख़ुद की आबरू बचायें या आवास व संपत्ति की रक्षा करें।* कोई एक रास्ता चुनना था। जब तराज़ू के एक पलड़े में अपनी आबरू व दूसरे में घर संपत्ति को तोलना चाहा तो *पुरख़ो के संचित धन की अपेक्षा आबरू वाला धन अमूल्य लगा और हम उसको सुरक्षित अपने साथ लेकर बच्चों बुज़ुर्गों के साथ सुरक्षित स्थान पर चली गई*ं और पीछे राक्षसों ने अलाउद्दीन ख़िलजी की तरह सूने घरों में तांडव किया। दिए गये वचनों को निभाने में तो प्रशासन बिलकुल विफल रहा ही ऊपर से उस तांडव का मूकदर्शक भी बना।
अब समाज को सोचना यह है कि *महिला होते हुए भी उन्होंने तो आबरू रूपी समाजिक थाती की रक्षा कर ली पर अब हमारा क्या कर्तव्य बनता है?*
क्या हम हमारे सदियों से संजोये संस्कारों की रक्षा करते हुए *किसी निर्दोष को सताये बिना दुष्टों को सजा दिला सकेंगे* एवं बर्बरता के शिकार अपने परिवार जनों को संबल प्रदान कर सकेंगे?

*उम्मेद सिंह जी सेतरावा*

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